Monthly Archives: August 2012

आखिर यह भी तो नहीं रहेगा !


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

एक फकीर यात्रा करने गया। रास्ते में किसी गाँव में रात पड़ी तो लोगों से बोलाः “रात पड़ी है, मुझे कहाँ ठहरना चाहिए ? है कोई यहाँ धर्मात्मा आदमी ?”

बोलेः “धर्मात्मा तो बहुत हैं, धनी भी बहुत हैं लेकिन एक शुक्रगुजार व्यक्ति है, उसको लोग ʹशाकिरʹ बोलते हैं। तुम उसके यहाँ चले जाओ।”

शाकिर के पास पहुँचा वह फकीर। शाकिर ने बड़ी आवभगत की और अहोभाव से जितनी भी सेवा हो सकती है, दो दिन तक की। फकीर जब यात्रा को आगे निकला तो शाकिर ने रास्ते में खाने के काम आये ऐसी कोई सूखी सब्जी, कुछ मीठी रोटियाँ तो कुछ चरपरी रोटियाँ, कुछ अचार, खजूर आदि-आदि बड़े प्रेम से उनको देकर विदाई दी।

फकीर ने कहाः “शाकिर ! जितने तुम धनी हो उतने नम्र भी हो और जितना नम्रता का सदगुण है उतना ही साधुसेवा का भी तुम्हारे पास भंडार है। अल्लाह करे तुम और भी बढ़ो !”

शाकिर हँसाः “यह भी तो कब तक ? नहीं रहेगा…..”

फकीर को थोड़ा-सा सोचने को विवश होना पड़ा लेकिन फिर याद आया, गुरुदेव ने कहा था कि ʹकोई कुछ गहरी बात कहे तो तुरंत वाद-विवाद में नहीं पड़ना, देखते रहना।ʹ फकीर आगे चला।

वह फकीर हज करने गया। जब दो साल के बाद लौटा तो देखा शाकिर का महल, इमारतें उसकी लम्बी-चौड़ी दुकानें व बाजार सब के सब गायब ! उसने किसी से पूछाः “यह कैसे हुआ  ?”

बोलेः “बाढ़ आयी थी, उसमें सब बह गया। अब वह शाकिर किसी हमदाद नाम के मुसलमान जमींदार के यहाँ काम करता है। भैंसें दुहता है, रचका (चारा) काटता है, ठंडी-ठंडी रात में खेत में पानी पिलाता है। उसकी दो बड़ी बच्चियाँ हैं। पहले तो शाकिर बड़ा धनी था, अब इस कंगले की बच्चियों को शादी की भी कहीं जमावट नहीं होती।”

फकीर ने सोचा, ʹजिसके घर मैंने आदर-सत्कार पाया, वह गरीब हो गया तो क्या है, मुझे जाना चाहिए।” हमदाद के नौकर शाकिर ने झोंपड़ी में उस फकीर के लिये चटाई, फटा टाट बिछा दिया, रूखी-सूखी रोटी दी। सुबह को वह साधु जाने को था, उसकी आँखों में आँसू थे। वह बोलाः “शाकिर ! अल्लाह ने क्या कर दिया !”

शाकिर हँसा और बोलाः “आपने सत्संग में सुना होगा कि कोई भी अवस्था सदा नहीं रहती। अमीरी थी उसको याद करके दुःखी क्यों होना और गरीबी है उसको सच्चा मानकर  परेशान क्यों होना ? यह भी तो चला जायेगा।”

शाकिर की आँखों में सन्तुष्टि थी, वाणी में मधुरता थी और हृदय में संतों के संग का प्रभाव था। फकीर सोचता है, “मैं तो बाहर से फकीर हूँ लेकिन यह गृहस्थ शाकिर सचमुच सत्संग के प्रभाव से, गुरुदीक्षा के प्रभाव से भीतर का फकीर है, भीतर का साधु है।ʹ

मैं चाहता हूँ अब से तुम भी भीतर के साधु हो जाओ। तुम इरादा करो।

डेढ़ दो साल के बाद फिर फकीर ने अपना रुख यात्रा का बनाया। देखता क्या है कि वह जमींदार शाकिर जो हमदाद के यहाँ तुच्छ मजदूरी करता था, जिसे रूखी रोटियाँ खानी पड़ती थीं, रात भी जगता और दिन में भी मजदूरी करता, वह अब जमींदारी को भी मात कर दे, ऐसा अमीर बन गया है। वार्तालाप से पता चला कि हमदाद को कोई संतान नहीं थी। उसकी जो लम्बी-चौड़ी जमींदारी थी वह शाकिर को दे गया और सोने का देग (पात्र), हीरे जवाहरात से भरा हुआ चरु जहाँ गड़ा था वह जगह भी बता दी। पहले की सम्पदा से अभी कई गुनी ज्यादा सम्पदा हो गयी। फकीर बोला कि “हद हो गयी शाकिर ! तुमने कहा था यह भी गुजर जायेगा। अच्छा है, गरीबी गुजर गयी डाकिनी ! अल्लाह करे तुम ऐसे ही बने रहो !”

शाकिर हँसाः “फकीर ! बड़े-बड़े अमीरों को, बादशाहों को जो कुछ मिला वह बीत गया तो मेरा कब तक रहेगा ?”

“क्या य़ह भी चला जायेगा ?”

“या तो यह चला जायेगा अथवा इसको मेरा मानने वाला चला जायेगा। कौन रहता है ! जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है। तुमने सत्संग तो सुना होगा न ! मैंने संतों के वचन आत्मसात् किये हैं।”

हिन्दू धर्म के वेदांती संतों की ज्ञानधारा का ही हिस्सा (सत्संग, साहित्य) लेकर सूफीवाद बना है। तो सूफी संत, वेदांती संत एक ही बात कहते हैं- सब गुजरता है, उसको जानने वाला अंतरात्मा शाश्वत है। वही अल्लाह है, वही भगवान है, वही राम है, रहमान है।ʹ

फकीर आगे बढ़ा। यात्रा करके जब लौटा डेढ़ दो साल के बाद तो क्या देखता है, शाकिर का महल तो है लेकिन उसमें कबूतर ʹगुटर-गूँ, गुटर-गूँʹ कर रहे हैं।

कह रहा है आसमाँ यह समाँ कुछ भी नहीं।

रोती है शबनम कि नैरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।।

जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।

झाड़ उनकी कब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं।।

शाकिर कब्रिस्तान में सोया है। महल खाली-खट्…. बेटियों की शादी हो गयी, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी हैं। फकीर सोचता है, ʹअरे मनुष्य ! तू गर्व किस बात का करता है ?

मत कर रे भाया गरव गुमान, गुलाबी रंग उड़ी जावेलो।

मत कर रे भाया गरव गुमान, जवानीरो रंग उड़ी जावेलो।।

उड़ी जावेलो रे फीको पड़ी जावेलो, रे काले मर जावेलो,

पाछो नहीं आवेलो…. मत कर रे गरव….

धन रे दौलत थारा माल खजाना रे…. छोड़ी जावेलो रे पलमां उड़ी जावेलो।।

पाछो नहीं आवेलो… मत कर रे गरव…

क्यों इतराता है और क्यों परेशान होता है ! जिसके पास ज्यादा है वह भी नहीं टिकेगा। मेरे पास मुसीबत है वह भी नहीं टिकेगी। यह मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ, लेकिन  न मौज रहेगी न मुसीबत रहेगी, उसको जानने वाला दिलबर दाता ही तो रहता है। इसको पक्का कर ले, मौज हो जायेगी मौज !

पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं।

मिला अगर माल तो  उस माल में खुश हैं।

हो गये बेहाल तो उसी हाल में खुश हैं।।

शाकिर ! तुमने जिंदगी का रहस्य जाना। धन्य है शाकिर तुम्हारा सत्संग ! धन्य है तुम्हारे सत्संगकर्ता सदगुरु !! शाकिर! मैं तो फकीर बना लेकिल असली फकीरी की तो तेरी जिंदगानी है। तेरी जिंदगानी में असली फकीरी झलकती है। अब मैं तेरी कब्र देखना चाहता हूँ शाकिर ! वहाँ पर जाऊँगा, दुआ माँगूगा, फूल चढ़ाऊँगा। गृहस्थ शाकिर, फकीरों को भी फकीरी का संदेश दे, ऐसे फकीर शाकिर की कब्र पर जाऊँगा।ʹ

वह फकीर शाकिर की कब्र पर गया. क्या देखता है कि कब्र पर लिखा है ʹआखिर यह भी तो नहीं रहेगा !ʹ फकीर ने सिर पीटा कि ʹहद हो गयी ! अमीरी नहीं रहेगी, चलो मान लिया। गरीबी नहीं रहेगी, चलो मान लिया। बीमारी नहीं रहेगी, मान लिया। तंदरूस्ती नहीं रहेगी, मान लिया। यह सब बदलता है लेकिन क्रब कहाँ चली जायेगी ?ʹ कब्र में पत्थर पर लिखवा दिया था, ʹआखिर यह भी तो नहीं रहेगा !ʹ फकीर फिर आगे बढ़ा यात्रा को। जब लौटने लगा तो सोचा, ʹजाते-जाते शाकिर की कब्र पर सिजदा करता हुआ जाता हूँ।ʹ देखा तो कब्रिस्तान ही नहीं है ! उसने लोगों से पूछाः “क्या हुआ, कब्र को कैसे पर (पंख) लग गये ?”

बोलेः “जलजला (भूकम्प) आया था, पूरा कब्रिस्तान गायब हो गया। अब उसी कब्रिस्तान पर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हैं।”

हे संसार ! तू एक क्षण भी बिना बदले नहीं रहता और हे नासमझ मनुष्य ! तू उसको स्थिर रखने में अपनी कई जिंदगियाँ तबाह कर चुका है। ʹमेरी जवानी बनी रहे, मेरा यश बना रहे, मेरी पदोन्नति बनी रहे, मेरा पद बना रहे….ʹ श्वास-श्वास में तू बिगड़ता जा रहा है, फिर तेरा क्या बना रहेगा भाई !

ऐ गाफिल ! न समझा था, मिला था तन रतन तुझको।

मिलाया खाक में तूने, हे सजन ! क्या कहूँ तुझको ?

अपनी वजूदी हस्ती में तू इतना भूल मस्ताना।

करना था किया वो न,

अपने आत्मा-परमात्मा को पाना था, वह नहीं किया।

लगी उलटी लगन तुझको।

जिसको छोड़ जाना है उसी के पीछे लगा रहा। उसी की परीक्षा पास की। उसी के पीछे ʹसर-सरʹ करके सर-खोपड़ी एक कर दी। और जिनको ʹसर-सरʹ कहता है, उनका न सिर रहा न पैर रहा। कौन सी निशा में तू सो रहा है ? संत तुलसीदास जी ने ऐसे लोगों को झकझोरा हैः

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रसारा।।

(श्रीरामचरित. अयो.कां. 92.1)

ʹमैं विद्यार्थी हूँ। वह आयेगा मैं स्नातक हो जाँऊगा। वह दिन आयेगा जब बड़ी नौकरी पाऊँगा, आई ए एस बनूँगा, नहीं तो आई पी एस बनूँगा। मकान होगा, शादी होगी, गाड़ी होगी, सुखद दिन होंगे।ʹ अरे ! जब वे दिन आयेंगे तो जायेंगे भी। अभी नहीं हैं तो बाद में भी नहीं रहेंगे।

विश्वनियंता परमात्मा सत्स्वरूप, आनंदस्वरूप, शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म तुम्हारा आत्मा होकर बैठा है औऱ तुम बीते हुए का शोक करके परेशान हो रहे हो, भविष्य का भय करके भयभीत हो रहे हो और वर्तमान में ʹयह चला न जायʹ ऐसा सोच के भयभीत होकर उसके पिट्ठू बन रहे हो। अरे, जो अवस्था आयेगी वह तो जायेगी। डरने की क्या जरूरत है ? फिर नया आयेगा। यह शरीर जायेगा तो नया मिलेगा, नहीं मिला तो मुक्ति हो जायेगी। ये बातें तुम नहीं जानते हो इसलिए खामखाह परेशान, खामखाह भयभीत, खामखाह शोकातुर, चिंतित और खामखाह बीमार हो रहे हो।

बन जाओ तुम भी शाकिर। तेरा भाणा मीठा लागे। इतना ही तो समझना है। अपमान हुआ, वाह-वाह ! मान हुआ, वाह-वाह ! जो कुछ आया, वाह-वाह ! बीत रहा है, बह रहा है, वाह-वाह ! ʹऐसा हुआ, ऐसा होना चाहिए….ʹ तू फिकर न कर, फरियाद न कर, ʹवाह-वाह !ʹ कर बस।

तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काँटों से भी प्यार।

चाहे सुख दे या दुःख, हमें दोनों हैं स्वीकार।।

क्योंकि देने वाला तू ही है। माँ के गर्भ में दूध की व्यवस्था तूने की थी। माँ की जेर के साथ हमारी नाभि जोड़ना तेरी कला-कुशलता है वाह ! वाह ! मेरे रब ! मेरे प्रभु ! मेरे प्यारे !…. बस यह सीख जाओ, मौज हो जायेगी। वर्तमान रसमय हुआ तो आपका भूतकाल रसमय और भविष्य भी आयेगा तो वर्तमान के रस में रसीला हो के आयेगा। बहुत मौज हो जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 6,7,8 अंक 236

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

अधिक मास का माहात्म्य


(अधिक मासः 18 अगस्त से 16 सितम्बर)

अधिक मास में सूर्य की संक्रान्ति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) न होने के कारण इसे ʹमलमासʹ (मलिन मास) कहा गया। स्वामीरहित होने से यह मास देव-पितर आदि की पूजा तथा मंगल कर्मों के लिए त्याज्य माना गया। इससे लोग इसकी घोर निन्दा करने लगे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः “मैं इसे सर्वोपरि – अपने तुल्य करता हूँ। सदगुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देने का सामार्थ्य आदि जितने गुण सम्पन्न हैं, उन सबको मैंने इस मास को सौंप दिया।

अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः।

तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुरुषोत्तमः।।

इन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोकों और शास्त्रों में ʹपुरुषोत्तमʹ नाम से विख्यात हूँ, उसी प्रकार यह मलमास भी भूतल पर ʹपुरुषोत्तमʹ नाम से प्रसिद्ध होगा और मैं स्वयं इसका स्वामी हो गया हूँ।”

इस प्रकार अधिक मास, मलमास ʹपुरुषोत्तम मासʹ के नाम से विख्यात हुआ।

भगवान कहते हैं- “इस मास में मेरे उद्देश्य से जो स्नान (ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भगवत्स्मरण करते हुए किया गया स्नान), दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण तथा देवार्चन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो प्रमाद से इस मास को खाली बिता देते हैं,  उनका जीवन मनुष्यलोक में दारिद्रय, पुत्रशोक तथा पाप के कीचड़ से निंदित हो जाता है इसमें सन्देह नहीं।

सुगन्धित चंदन, दीप आदि से लक्ष्मीसहित सनातन भगवान तथा पितामह भीष्म का पूजन करें। घंटा, मृदंग और शंख की ध्वनि के साथ कपूर और चंदन से आरती करें। ये न हों तो रुई की बत्ती से ही आरती कर लें। इससे अनन्त फल की प्राप्ति होती है। चंदन, अक्षत और  पुष्पों के साथ ताँबे के पात्र में पानी रखकर भक्ति से प्रातःपूजन के पहले या बाद में अर्घ्य दें। अर्घ्य देते समय भगवान ब्रह्माजी के साथ मेरा स्मरण करके इस मंत्र को बोलें-

देवदेव महादेव प्रलयोत्पत्तिकारक।

गृहाणार्घ्यमिमं देव कृपां कृत्वा ममोपरि।।

स्वयम्भुवे नमस्तुभ्यं ब्रह्मणेमिततेजसे।

नमोस्तुते श्रियानन्त दयां कुरु ममोपरि।।

ʹहे देवदेव ! हे महादेव ! हे प्रलय और उत्पत्ति करने वाले ! हे देव मुझ पर कृपा करके इस अर्घ्य को ग्रहण कीजिये। तुझ स्वयंभु के लिए नमस्कार तथा तुझ अमिततेज ब्रह्मा के लिए नमस्कार। हे अनंत ! लक्ष्मी जी के साथ आप मुझ पर कृपा करें।ʹ

पुरुषोत्तम मास का व्रत दारिद्रय, पुत्रशोक और वैधव्य का नाशक है। इसके व्रत से ब्रह्महत्या आदि सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

विधिवत् सेवते यस्तु पुरुषोत्तममादरात्।

कुलं स्वकीयमुदधृत्य मामेवैष्ययत्यसंशयम्।।

प्रति तीसरे वर्ष में पुरुषोत्तम मास के आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ व्रत, उपवास, पूजा आदि शुभ कर्म करता है, वह निःसन्देह अपने समस्त परिवार के साथ मेरे लोक में पहुँचकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करता है।”

इस माह में केवल ईश्वर के उद्देश्य से जो जप, सत्संग व सत्कथा-श्रवण, हरिकीर्तन, व्रत, उपवास, स्नान, दान या पूजनादि किये जाते हैं, उनका अक्षय फल होता है और व्रती के सम्पूर्ण अनिष्ट नष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से किये जाने वाले अनुष्ठानों के लिए यह अत्यन्त श्रेष्ठ समय है। ʹदेवी भागवतʹ के अनुसार यदि दान आदि का सामर्थ्य न हो तो संतों-महापुरुषों की सेवा सर्वोत्तम है। इससे तीर्थस्नानादि के समान फल प्राप्त होता है।

इस मास में प्रातः स्नान, दान, तप, नियम, धर्म, पुण्यकर्म, व्रत-उपासना तथा निःस्वार्थ नाम जप-गुरुमंत्र जप का अधिक महत्त्व है। इस माह में दीपकों का दान करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। दुःख शोकों का नाश होता है। वंशदीप बढ़ता है, ऊँचा सान्निध्य मिलता है, आयु बढ़ती है।

अधिक मास में आँवले और तिल का उबटन शरीर पर मलकर स्नान करना और आँवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना – यह भगवान श्री पुरुषोत्तम को अतिशय प्रिय है, साथ ही स्वास्थ्यप्रद और प्रसन्ताप्रद भी है। यह व्रत करने वाले लोग बहुत पुण्यवान हो जाते हैं।

अधिक मास में वर्जित

इस मास में सभी सकाम कर्म एवं सकाम व्रत वर्जित हैं। जैसे – कुएँ, बावली, तालाब और बाग आदि का आरम्भ तथा प्रतिष्ठा, नवविवाहित वधू का प्रवेश, देवताओं का स्थापन (देव प्रतिष्ठा), यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, नामकर्म, मकान बनाना, नये वस्त्र एवं अलंकार पहनना आदि।

अधिक मास में करने योग्य

प्राणघातक रोग आदि के निवृत्ति के लिए रूद्रजप आदि अनुष्ठान, दान व जप-कीर्तन आदि, पुत्रजन्म के कृत्य, पितृमरण के श्राद्धादि तथा गर्भाधान, पुंसवन जैसे संस्कार किये जा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 14, 15 अंक 236

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ