गुरु जी का ऊँचा दृष्टिकोण

गुरु जी का ऊँचा दृष्टिकोण


ब्रह्मनिष्ठ पूज्य बापू जी का सत्संग-प्रसाद

बंगाल के एक प्रसिद्ध राजनेता थे अश्विनी कुमार दत्त। वे इतने ईमानदार थे कि चहुँओर उनकी ख्याति थी। वे बड़े धर्मपरायण व्यक्ति थे। उनके गुरु थे राजनारायण बसु। एक बार राजनारायण बसु को लकवा मार गया। जब अश्विनी कुमार को इस बात का पता चला तो वे सोचने लगे कि ʹगुरु जी तीन महीने से बिस्तर पर पड़े हैं और मुझे अभी तक पता नहीं चला !ʹ वे बड़े दुःखी होकर भागते-भागते अपने गुरु का समाचार पूछने गये। गुरु को प्रणाम करने गये तो गुरु का एक हाथ तो लकवे से निकम्मा हो चुका था, दूसरे हाथ से पकड़कर उठाया और प्रेम से थप्पी लगाते हुए बोलेः “बेटा ! कैसे भागे-भागे आये हो ! देखो भागा तो शरीर और दुःख हुआ मन में लेकिन उन दोनों को तुम जानने वाले हो।” ऐसा करके गुरु जी ने सत्यस्वरूप ईश्वर, आत्मा की सार बातें बतायीं।

वे तो दुःखी, चिंतित होकर आये थे पर सत्संग सुनते-सुनते उनकी दुःख-चिंता गायब हो गयी और बोलेः “गुरुजी ! मैं तो मायूस होकर आपका स्वास्थ्य देखने के लिए आया था लेकिन आपसे मिलने के बाद मेरी मायूसी चली गयी। आपको लकवा मार गया लेकिन  आपको उसकी पीड़ा नहीं, दुःख नहीं ! हम तो बहुत दुःखी थे। आपने सत्संग-अमृत का पान कराया, तीन घंटे बीत गये और मुझे पता भी नहीं चला।”

गुरुजी ने अश्विनी कुमार को थपथपाया, बोलेः “पगले ! पीड़ा हुई है तो शरीर को हुई है, लकवा मारा है तो एक हाथ को मारा है, दूसरा तो ठीक है, पैर भी ठीक हैं, जिह्वा भी ठीक है… यह उसकी (भगवान की) कितनी कृपा है ! पूरे शरीर को भी लकवा हो सकता था, हृदयाघात हो सकता था। 60 साल तक शरीर स्वस्थ रहा, अभी थोड़े दिन से ही तो लकवा है, यह उसकी कितनी कृपा है ! दुःख भेजकर वह हमें शरीर की आसक्ति मिटाने का संदेश देता है, सुख भेजकर हमें उदार बनने और परोपकार करने का संदेश देता है। हमको तो दुःख का आदर करना चाहिए, दुःख का उपकार मानना चाहिए।

बचपन में हम दुःखी होते थे क्योंकि माँ-बाप जबरदस्ती विद्यालय ले जाते थे लेकिन ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नहीं, जिसका दुःख के बिना विकास हो। दुःख का तो खूब-खूब धन्यवाद करना चाहिए और यह दुःख दिखता दुःख है किंतु अंदर से सावधानी, सुख और विवेक जगाने वाला है। दुःख विवेक-वैराग्य जगाकर परमात्मा तक पहुँचने का सुंदर साधन है।

मुझे सत्संग करने की भागादौड़ी से आराम करना चाहिए था किंतु मैं नहीं कर पा रहा था, तुम लोग नहीं करने देते थे तो भगवान ने लकवा करके देखो आराम दे दिया। यह उसकी कितनी कृपा है ! भगवान और दुःख की बड़ी कृपा है। माँ-बाप की कृपा है अतः मृत्यु के पश्चात माँ-बाप का श्राद्ध-तर्पण करते हैं लेकिन इस बेचारे दुःख का तो श्राद्ध भी नहीं करते, तर्पण भी नहीं करते। यह बेचारा आता है, मर जाता है, रहता नहीं है। अब यह दुःख भी मिट जायेगा अथवा शरीर के साथ चला जायेगा।”

अश्विनी देखता रह गया ! गुरु ने आगे कहाः “बेटा ! यह तेरी मेरी वार्ता जो सुनेगा-पढ़ेगा वह भी स्वस्थ हो जायेगा। बीमारी शरीर को होती है लाला ! दुःख मन में आता है, चिंता चित्त में आती है, तुम तो निर्लेप नारायण, अमर आत्मा हो।”

ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 10, अंक 238

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