Monthly Archives: October 2012

कलितारणहारा भगवन्नाम


इस कलिकाल में भवसागर से पार होने के लिए भगवन्नाम एक मजबूत नौका है, जिसकी सहायता से मनुष्य भवसागर से सरलता से पार हो सकता है। भगवन्नाम-महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि वेदव्यासजी अपने शिष्यों को कहते हैं- कलिर्धन्यः ʹअर्थात् कलियुग धन्य है !ʹ व्यासजी के वचन सुनकर शिष्यों ने जिज्ञासापूर्वक प्रश्न किया कि “गुरुजी ! कलियुग में तो पाप, दुराचार, निंदा, राग-द्वेष अधिक होता है, फिर भी आप उसे धन्य कह रहे हैं !”

व्यासजी ने कहाः “मैं कलियुग को धन्य इसलिए कहता हूँ क्योंकि इसमें भगवान को प्राप्त करना अधिक आसान है। कलियुग में निरंतर भगवन्नाम लेने मात्र से मनुष्य उनको प्राप्त कर सकता है। यह दूसरे युग में सम्भव ही नहीं है।”

ʹश्रीमद् भागवतʹ (12.3.52) में भी आता हैः

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।

ʹसत्ययुग में भगवान विष्णु के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में भगवान की पूजा से जो फल मिलता था, वह सब कलियुग में भगवान के नाम-कीर्तनमात्र से प्राप्त हो जाता है।ʹ

ऐसा कलितारण भगवन्नाम सर्व पापों को हरकर परमात्म-प्रीति जगाने का अमोघ सामर्थ्य रखता है। पापविनाशक परम कृपालु परमात्मा सबके सुहृद, परम हितैषी, निकटतम व सबके लिए सहज हैं। वे सहस्ररूपाधिपति, सहस्रनामाधिपति होते हुए भी नाम-रूप से रहित हैं। जात-पाँत, गुण-धर्म को न देखकर जो जिस नाम से उन्हें भजता है, प्रभु वैसे ही उसे मिलते हैं। उसकी समझ को अधिकाधिक परिपक्व बनाते हुए अपने दिव्य स्वरूप का ज्ञान पाने की ओर उसे प्रेरित करते हैं।

उस चैतन्यस्वरूप परमात्मा के नाम-जप के प्रताप से ही निर्बल सबल बनकर प्रबल भक्ति को पा सकते हैं। दुष्ट और कनिष्ठ श्रेष्ठ बनकर सर्वोत्कृष्ट पद को पा सकते हैं। यहाँ तक कि एक बार गलती से, कपट से या अन्य किसी भी भाव से कोई भगवन्नामरुपी डोरी से परमात्मा का दामन पकड़ लेता है तो फिर पकड़ने वाला कितना भी छुड़ाना चाहे पर प्रभु उसे छोड़ते नहीं।

भगवन्नाम-जप के प्रभाव से वह भगवान के प्रेमपाश में बँध जाता है। पूतना ने कपट से प्रभु को पकड़ा पर भगवान ने जब उसे पकड़ा तो ऐसा पकड़ा कि उसने छुड़ाना चाहा तो भी नहीं छोड़ा, पूतना को पार कर दिया। इस प्रकार अंतःस्थल की परा वाणी के प्रकाशक उस प्रभु का कोई दम्भ, पाखंड या कामनावश भी नाम-सुमिरन करे तो भी उसका कल्याण निश्चित ही होता है। दुनिया में मनुष्य को अपने नाम का मोह ही दुःख देता है और जन्म-मरण के चक्कर में डालता है। अतः कीर्ति का मोह छोड़ने के लिए नामकीर्तन-जप के सिवा कोई उपाय नहीं है। भगवान का नाम ʹममʹ के भार की जगह ʹसमʹ का सार सिखाता है। ममता को हटाकर समता के ऊँचे सिंहासन पर प्रतिष्ठित करता है। समता आयी तो सार, नहीं तो सब भार – यह सिद्धांत भगवन्नाम-सुमिरन करते-करते शांत होने से ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है। जप से लोभ मिटकर लाभ-ही-लाभ होता है, मनुष्य की इच्छानुसार फिर चाहे वह भौतिक लाभ हो या आध्यात्मिक लाभ।

गिरधर नाम का गान करते हुए भक्तिमती मीरा ने नाचकर प्रभु को रिझा लिया तो अकाल पुरुष आदि नामों का सुमिरन करते हुए उसमें शांत होकर गुरु नानकदेवजी ने प्रभु को पा लिया। ʹविट्ठल, रामकृष्ण, हरिʹ – इन भगवन्नामों से संत तुकारामजी ने भगवान की निष्काम उपासना कर पूर्णता प्राप्त की तो उन्हीं पांडुरंग का नाम जपते-जपते ब्रह्मज्ञानी सदगुरु विसोबा खेचर के श्रीचरणों में पहुँचने की यात्रा कर संत नामदेव जी के नामरूपरहित परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया। भगवन्नाम-जप से स्वार्थपरता सर्वार्थता में बदल जाती है और सर्वार्थता परमार्थता में परिणत होकर जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करती है। बिजलीघर से तो तार जुड़ा है ही, बस भगवन्नाम की पुकार से अहंकार का बटन दबाया कि प्रकाश-ही-प्रकाश है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 238

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जीने की कला


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से)

(अशांति क्यों नहीं जाती ?)

आज भौतिक साधन बहुत हैं पर घर-घर में अशांति है। आवागमन के लिए रेलगाड़ियाँ बढ़ी हैं, हवाई जहाज बढ़े हैं, बातचीत के लिए तार, टेलिफोन और वायरलेस बढ़े हैं, मनोरंजन के लिए रेडियो और सिनेमा साधन बढ़े हैं पर मनुष्य के मन की अशांति नहीं गयी है। वह बढ़ती ही गयी है क्योंकि हमने योग, उपासना और ज्ञान का सहारा लेना छोड़ दिया है। पहले हमारे यहाँ लोग दिन में तीन बार संध्या करते थे तो मन शुद्ध, सात्त्विक और शांत रहता था। एक दूसरे के  प्रति द्वेषभाव कम रहता था, जिससे झगड़े कम होते थे और शांति रहती थी। अभी यदि हम तीन बार संध्या नहीं कर सकते तो दो बार करें। दो बार भी नहीं कर सकते तो एक बार तो करें।

भगवान को देखने की दूरबीन

सब भगवान की माया है। दुःख आता है तो लोग बाह्य साधनों की तरफ देखते हैं। द्रौपदी भी जब तक बाह्य साधनों की तरफ देख रही थी, तब तक उसे निराशा ही हाथ लग रही थी। फिर जब वह हृदय की गहराई में गयी तो भगवान एवं भगवान की शक्तियाँ वहीं तो थीं।

भगवान तो पास ही हैं। एक ही सत्ता सबमें व्याप रही है। वह त्रिगुणातीत है, ढका हुआ है। भगवान को देखना है तो दूरबीन चाहिए। बाह्य दूरबीन नहीं, इसके लिए दूसरी विशेष दूरबीन चाहिए – अंतःकरण की दूरबीन। पहले अंतःकरण को शुद्ध करें – एकाग्र करें, फिर आत्मविचार करके आत्मज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति करें तो परमात्मा प्रकट हो जायेगा, आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। अथवा तो पहले मुक्तात्मा होने की, तत्त्वज्ञान की तड़प बढ़ायें, फिर मन, बुद्धि और अंतःकरण से संबंध-विच्छेद कर अपने आत्मवैभव से जाग जायें।

तीन के सम्मिलन से जीव नंदनवन

हमारा दैनिक कौटुम्बिक जीवन इतना अशांत क्यों होता जा रहा है ? क्योंकि हमारे अंदर भावबल, क्रियाबल और प्राणबल इन तीनों शक्तियों का समन्वय हो जाय तो जीवन चमक जाता है। यदि भावबल शुद्ध नहीं है तो व्यक्ति समाज को पतन की तरफ ले जाने वाले काम करता है, जैसे – मारना-पीटना, शराब पीना और अन्य बुरे काम करना।

घर में देवरानी का भावबल प्रबल है और प्राणबल कमजोर है व जेठानी का प्राणबल प्रबल है और भावबल कमजोर है तो वे दोनों लड़ेंगी। यदि आमने-सामने नहीं लड़ें तो आँखों से तो एक दूसरे को नाराजगी के भाव से देखेंगी ही। और कुछ नहीं तो बर्तन बजाकर या बच्चों को पीटकर अपना गुस्सा प्रकट करेंगी। दोनों बलों का समन्वय नहीं है अतः लड़ती हैं। पिता में यदि इन बलों का अभाव हुआ तो वे सब सदस्यों को ठीक ढंग से नहीं चला सकेंगे, अपने से हीन व कमजोर को दबायेंगे और नाम लेंगे अनुशासन का।

अनुशासन में प्यार और सामने वाले का हित तथा शुद्ध ज्ञान और मंगल भावना नहीं भरी है तो वह अनुशासन अहंपोषक और शासितों को सताने वाला हो जायेगा। बिना प्यार का अनुशासन झगड़ा, तंगदिली और खिंचाव लायेगा। प्यार में से अनुशासन निकला तो मोह बन जायेगा। पिता का अनुशासन हो पर प्यार से मिला हुआ हो। इस प्रकार अगर हमारे जीवन में इन तीनों बलों का समन्वय नहीं है तो कुटुम्ब चलाने में असफल हो जायेंगे। योग की कुछ सामान्य तरकीबों का उपयोग करके हम इन तीनों बलों को अपने में सामंजस्य कर सकते हैं। जो बल कमजोर हैं उसको प्रबल कर सकते हैं।

प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रियाबल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। भावबल, प्राणबल और क्रियाबल के विकास एवं ऊँची समझ से सहज समाधि का अपना स्वभाव बन जाता है तथा जीवन चमक उठता है। अपनी जीवनदृष्टि भी ऐसी होनी चाहिए कि त्याग भी नहीं, भोग भी नहीं अपितु समग्र जीवन सहज समाधि हो जाय। साधक की यह अभिलाषा होनी चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 238

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ईश्वर दर्शन से भी ऊँचा होता है आत्मसाक्षात्कार


आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते

पूज्य बापू जी का 48 वाँ आत्मसाक्षात्कार दिवस

17 अक्तूबर 2012

पूज्य बापू जी का सत्संग प्रसाद

आत्मसाक्षात्कार किसको बोलते हैं ? यह जरा समझ लेना। एक होता है कि मनुष्य ने संसार में किसी चीज की उपलब्धि की – ʹयह मेरी फलानी उपलब्धि का दिवस है, शादी का दिवस है…।ʹ दूसरा होता है, ʹयह मेरा जन्मदिवस है।ʹ

शादी का दिवस तो भोगी लोग मनाते हैं। बहुत तुच्छ है यह नजरिया। जन्मदिवस तो बहुत लोग मनाते हैं और मनायें, अच्छी बात है परंतु जन्मदिवस रोज पौने दो करोड़ लोगों का होता है धरती पर। आत्मसाक्षात्कार किये हुए महापुरुष धरती पर बहुत ही विरले होते हैं, इसलिए आत्मसाक्षात्कार दिवस तो कहीं-कहीं किसी किसी विरले का मनाया जाता है।

ईश्वर-दर्शन और आत्मसाक्षात्कार…. भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो गया, श्रीकृष्ण ने बातचीत की यह ईश्वर दर्शन हो गया। प्रचेताओं को भगवान शिव का दर्शन हो गया, भगवान नारायण का दर्शन हो गया। भगवान शिव का, भगवान नारायण का दर्शन हो गया फिर भी आत्मसाक्षात्कार बाकी रह जाता है। नामदेव महाराज को भगवान विट्ठल के दर्शन होते थे, वे उनसे बातचीत करते थे, फिर भी संतों ने कहा कि ʹतू कच्चा घड़ा है।ʹ नामदेव चले गये मंदिर में और भगवान को प्रार्थना कीः “माइया पांडुरंगा ! लवकर या… भगवान जल्दी प्रकट हो जाओ। मेरे को सभी संतों ने कच्चा घड़ा घोषित कर दिया है।” तो पांडुरंग प्रकट होकर बोलेः “संतों ने जो कहा है, ठीक ही कहा है।”

ʹʹप्रभु ! आप तो बोलते हैं, ʹनाम्या ! तु मुझे बहुत प्यारा है।ʹ आप प्रकट होकर मेरे से बातचीत करते हो, मेरे को स्नेह करते हो और फिर मैं कच्चा घड़ा कैसे ?”

“तुम मुझे और अपने को अलग मानते हो तथा संसार को सच्चा मानते हो। तुम्हारा नजरिया कच्चा है। संसार मेरी सत्ता से कैसे विलसित हुआ है, तुम्हारा शरीर और तुम मेरी सत्ता से कैसे मेरे में अभिन्न हो – इसका ज्ञान जब तक तुम्हें नहीं होता तब तक तुम्हारी स्थिति कच्ची है। संत विसोबा खेचर के पास जाओ। वे तुमको ब्रह्मज्ञान का उपदेश देंगे, तभी तुम पक्का घड़ा होओगे।” नामदेव जी संत विसोबा खेचर के चरणों में गये, उपदेश लिया तब आत्मसाक्षात्कार हुआ।

अर्जुन को श्रीकृष्ण मिले थे फिर भी अर्जुन के सब दुःख नहीं मिटे थे। भगवान के विराट रूप का दर्शन हुआ लेकिन उसका भय नहीं गया था। श्रीकृष्ण थे तब भी अर्जुन की किंकर्तव्यमूढ़ता नहीं गयी परंतु जब उसको श्रीकृष्ण का तत्त्वज्ञान-उपदेश मिला और उसने विचार करके अपने-आप में गोता मारा तो अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार हुआ। तो ईश्वर दर्शन से भी ऊँचा होता है आत्मसाक्षात्कार !

आत्मसाक्षात्कार के दिन सभी लोग आश्रमों में भोजन करोगे, गरीब गुरबों को कराओगे लेकिन अब आत्मसाक्षात्कार के लिए भी तैयार कर लो। जब बापू को वह हो सकता है तो बेटों को क्यों नहीं हो सकता !

आत्मसाक्षात्कार के सिवाय जो कुछ मिलेगा वह आपके पास टिकेगा नहीं। मैं शाप नहीं देता हूँ, सच्चाई बता रहा हूँ। शरीर ही जब टिकेगा नहीं तो मिली हुई वस्तु, मिली हुई पदोन्नति, मिली हुई पदवियाँ, मिली हुई वाहवाही कब तक टिकेगी ?

कह रहा है आसमाँ यह समाँ कुछ भी नहीं।

रोती है शबनम कि नैरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।।

जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।

झाड़ उनकी कब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं।।

ऐसे बड़े-बड़े राजाओं के राज्य नहीं टिके, लंकेश्वर की एक ईंट नहीं टिकी, हिरण्यकशिपु का हिरण्यपुर नहीं टिका तो तुम्हारा हमारा ईंट-चूने का मकान कब तक टिकेगा ? जो कभी न मिटे उसको ʹमैंʹ रूप में जानना इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार और जो मिट जाय उसको ʹमैंʹ मानकर फिर देवी-देवताओं या भगवान में प्रेम की, भाव की विशेषता होती है और आत्मसाक्षात्कार में प्रेम, भाव के साथ समझदारी की पराकाष्ठा होती है।

भगवान कहते हैं कि मेरी बात अगर मान लोगे तो दुःख टिकेगा नहीं और मेरी बात का त्याग करके कुछ भी कर लोगे तो दुःख सदा के लिए मिटेगा नहीं। तो भगवान की बात क्या है ?

वासुदेवः सर्वमिति….

अभी भले तुमने उसको नहीं जाना तो मान तो लो कि सर्वत्र वासुदेव है। और सर्वत्र वासुदेव है इसका अनुभव करने के लिए संतों का संग और भगवान का सुमिरन करो, सुमिरन का अभ्यास बढ़ाओ। संत कबीर जी कहते हैं-

सुमिरन ऐसा कीजिये खरे निशाने चोट।

मन ईश्वर में लीन हो हले न जिह्वा होठ।।

सुमिरन तो पहले दीर्घ किया जाता है। जैसे हरि ओઽ….म्…. फिर होंठों में हरि ૐ… फिर कंठ में। कभी कंठ में, कभी हृदय में तो कभी-कभी कंठ और हृदय छोड़कर ऐसे ही सुमिरन हो रहा है, उसे देखते जाओ। मन इधर-उधर जाय, फिर थोड़ा अभ्यास करो। बीच में कभी जोर से उच्चारण किया, फिर शांत हो गये। ऐसा अभ्यास बढ़ाओ और भगवत्सुमिरन करते-करते संसारी कार्य करो। संसारी कार्य भी इस उद्देश्य से करो कि हमें ईश्वरप्राप्ति करनी है।

परदुःखकातर और परहितपरायण होकर कर्म करो, जिससे अंतर्यामी प्रसन्न हों। तो बोलेः ʹमहाराज ! दूसरों की भलाई के लिए करेंगे तो फिर खायेंगे क्या ?ʹ

मैं जो कुछ करता हूँ, दूसरों की भलाई के लिए करता हूँ तो खाने की मुझे कोई कमी रखी क्या समाज ने ? अरे बाइक, स्कूटर काम में आता है तो उसको ऑयल, पानी, पेट्रोल मिलता है फिर यदि आप समाज के काम आयेंगे, ईश्वर के काम आयेंगे तो आपको कमी क्या रहेगी !

तो आप जो भी काम करते हैं, समाजरूपी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए ईमानदारी से करो। अपनी आवश्यकता कम-से-कम रखो और परमात्मा में प्रीति अधिक-से-अधिक बढ़ाते जाओ। परमात्मा के प्यारों का संग और उनके जीवन-चरित्र आदि पढ़ने से, शास्त्र पढ़ने सुनने से भगवत्प्राप्ति का रास्ता आसान हो जायेगा।

आत्मसाक्षात्कार जैसी पराकाष्ठा मेरे को 40 दिन में प्राप्त हो सकती है तो आपको अगर 40 साल में भी हो जाय तो भी सौदा सस्ता है। क्योंकि मुझे तड़प तो थी और फिर जैसे लाइट की फिटिंग हो गयी तो 40 दिन में तो क्या 40 सैकेंड में भी बटन दबाओ तो बत्ती जल जाती है। जितनी आपकी तड़प और तैयारी होगी उतनी ही जल्दी वह भूमिका बन जायेगी। तो महापुरुष की थोड़ी सी कृपा, जरा-सा उपदेश… कुंजी घुमाने में कितनी देर लगती है, उतना ही  बस, आत्मसाक्षात्कारर गुरु जी की कृपा से हो जाता है। शुकदेव जी महाराज का सत्संग सुनकर राजा परीक्षित को 7 दिन में हो गया, मुझे तो 40 दिन लग गये। महावीर जी को 12 साल लगे तब भी सौदा सस्ता है। मुझे केवल 40 दिन में ही हो गया ऐसा नहीं है। मैं भी बचपन से लगा था लेकिन तड़प 40 दिन के अंदरवाली तीव्रतम थी, उसने काम कर लिया। तो जितनी ईश्वरप्राप्ति की तड़प होगी, उतनी ईश्वर और गुरु की कृपा जल्दी हो जाती है।

अपना साधन यह है कि गुरु आज्ञा मानने की योग्यता ले आओ बस ! जब ईश्वरप्राप्ति की तड़प हो और गुरु की कृपा हो तो जैसे एक घड़े का पानी दूसरे घड़े में, एक पतीली का घी दूसरी पतीली में, ऐसे ही एक ब्रह्मवेत्ता की निष्ठा का संकल्प दूसरे में टिकता है। जैसे ज्योत से ज्योत जलती हहै, ऐसे ही एक ब्रह्मज्ञानी से दूसरा ब्रह्मज्ञानी बनता है, जिसके आगे दुनिया की सभी उपलब्धियाँ नगण्य हैं। तो आत्मज्ञान सब ज्ञानों से ऊँचा है, आत्मलाभ सब लाभों से ऊँचा है, आत्मसुख सब सुखों से ऊँचा है।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या2,4,5 अंक 238

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