Monthly Archives: November 2012

सदगुरु तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं – पूज्य बापू जी


गुरु नानक देव जयंतीः

ब्रह्मवेत्ता गुरु ने अपने सत्शिष्य पर कृपा बरसाते हुए कहाः “वत्स ! “तेरा मेरा मिलन हुआ है (तूने मंत्रदीक्षा ली है) तब से तू अकेला नहीं और तेरे मेरे बीच दूरी भी नहीं है। दूरी तेरे-मेरे शरीरों में हो सकती है, आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं। आत्मराज्य में देश-काल की कोई विघ्न बाधाएँ नहीं आ सकतीं, देश काल की दूरी नहीं हो सकती। तू अब आत्मराज्य में आ रहा है, इसलिए जहाँ तूने आँखें मूँदीं, गोता मारा वहीं तू कुछ-न-कुछ पा लेगा।”

करतारपुर में सत्संगियों की भारी दौड़ में गुरु नानक जी सत्संग कर रहे थे। किसी भक्त ने ताँबे के पैसे रख दिये। आज तक कभी भी नानक जी ने पैसे उठाये नहीं थे परंतु आज चालू सत्संग में उन पैसों को उठाकर दायीं हथेली से बायीं ओर और बायीं हथेली से दायीं हथेली पर रखे जा रहे हैं। नानक जी के शिष्य बाला और मरदाना चकित से रह गये। ताँबे के वे 4 पैसे, जो कोई 10-10 ग्राम का एक पैसा होता होगा, करीब 40 ग्राम होंगे।

नानकजी बड़ी गम्भीर मुद्रा में बैठे हुए, सत्संग करते हुए पैसों को हथेलियों पर अदल-बदल रहे हैं। वे उसी समय उछाल रहे हैं, जिस समय हजारों मील दूर उनका भक्त जो किराने का धंधा करता था, वह वजीर के लड़के को शक्कर तौलकर देता है। शक्कर किसी असावधानी से रास्ते में थैले से ढुल गयी। वजीर ने शक्कर तौली तो 4 रानी छाप पैसे के वजन की शक्कर कम थी। वजीर ने राजा से शिकायत की। उस गुरुमुख को सिपाही पकड़कर राजदरबार में लाये।

वह गुरुमुख अपने गुरु को ध्याता है ʹनानकजी ! मैं तुम्हारे द्वार तो नहीं पहुँच सकता हूँ परंतु तुम मेरे दिल के द्वार पर हो, मेरी रक्षा करो। मैंने तो व्यवहार ईमानदारी से किया है लेकिन अब शक्कर रास्ते में ही ढुल गई या कैसे क्या हुआ यह मुझे पता नहीं। जैसे, जो भी हुआ हो, कर्म का फल तो भोगना ही है परंतु हे दीनदयालु ! मैंने यह कर्म नहीं किया है। मुझ पर राजा की, सिपाहियों की, वजीर की कड़ी नजर है किंतु गुरुदेव ! तुम्हारी तो सदा मीठी नजर रहती है।ʹ

व्यापारी ने सच्चे हृदय से अपने सदगुरु को पुकारा। नानकजी 4 पैसे ज्यों दायीं हथेली पर रखते हैं त्यों जो शक्कर कम थी वह पूरी हो जाती है। वजीर, तौलने वाले तथा राजा चकित हैं। पलड़ा बदला गया। जब दायें पलड़े पर शक्कर का थैला था वह उठाकर बायें पलड़े पर रखते हैं तो नानक जी भी अपने दायें पलड़े (हथेली) से पैसे उठाकर बायें पलड़े (हथेली) में रखते हैं और वहाँ शक्कर पूरी हुई जा रही है। ऐसा कई बार होने पर ʹखुदा की लीला है, नियति हैʹ, ऐसा समझकर राजा ने उस दुकानदार को छोड़ दिया।

बाला, मरदाना ने सत्संग के बाद नानकजी से पूछाः “गुरुदेव ! आप पैसे छूते नहीं हैं फिर आज क्यों पैसे उठाकर हथेली बदलते जा रहे थे ?”

नानकजी बोलेः “बाला और मरदाना ! मेरा वह सोभसिंह जो था, उसके ऊपर आपत्ति आयी थी। वह था बेगुनाह। अगर गुनहगार भी होता और सच्चे हृदय से पुकारता तब भी मुझे ऐसा कुछ करना ही पड़ता क्योंकि वह मेरा हो चुका है, मैं उसका हूँ। अब मैं उन दिनों का इंतजार करता हूँ कि वह मुझसे दूर नहीं, मैं उससे दूर नहीं, ऐसे सत् अकाल पुरुष को वह पा ले। जब तक वह काल में है तब तक प्रतीति में उसकी सत्-बुद्धि होती है, उसको अपमान सच्चा लगेगा, दुःखी होगा। मान सच्चा लगेगा, सुखी होगा, आसक्त होगा। मैं चाहता हूँ कि उसकी रक्षा करते-करते उसको सुख-दुःख दोनों से पार करके मैं अपने स्वरूप का उसको दान कर दूँ। यह तो मैंने कुछ नहीं उसकी सेवा की, मैं तो अपने-आपको दे डालने की सेवा का भी इंतजार करता हूँ।”

शिष्य जब जान जाता है कि गुरु लोग इतने उदार होते हैं, इतना देना चाहते हैं, शिष्य का हृदय और भी भावना से, गुरु के सत्संग से पावन होता है। साधक की अनुभूतियाँ, साधक की श्रद्धा, तत्परता और साधक की फिसलाहट, साधक का प्रेम और साधक की पुकार गुरुदेव जानते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 239

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मेरे गुरुदेव कहाँ स्थित हैं ? – पूज्य बापू जी


भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज का महानिर्वाण दिवसः 22 नवम्बर

शुरु-शुरु में गुरुदेव के दर्शन किये, गुरुजी के चरणों में रहे, उस वक्त गुरुजी के प्रति जो आदर था, वह आदर ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझ में आती गयी, त्यों-त्यों बढ़ता गया, निष्ठा बढ़ती गयी। श्रीकृष्ण ʹनरो वा कुंजरो वाʹ करवा रहे हैं लेकिन आप कृष्ण की स्थिति को समझो तो कृष्ण ऐसा नहीं कर रहे हैं। रामजी आसक्त पुरुष की नाईं रो रहे हैं- हाय सीते ! सीते !!…. पार्वती माता को सन्देह हुआ, पार्वती जी रामजी के श्रीविग्रह को देख रही हैं परंतु शिवजी रामजी की स्थिति जानते हैं।

गुरु की स्थिति जितनी-जितनी समझ में आ जायेगी उतनी हमारी अपनी महानता भी विकसित होती जायेगी…. उसका मतलब यह नहीं कि ʹगुरु क्या खाते हैं ? गुरु क्या पीते हैं ? गुरु किससे बात करते हैं ?ʹ बाहर के व्यवहार को देखोगे तो श्रद्धा सतत नहीं टिकेगी। तुम पूजा-पाठ करते हो, ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु पूजा-पाठ भी नहीं करते। जो गुरु को शरीर मानता है या केवल शरीर को गुरु मानता है, वह गुरु की स्थिति नहीं समझ नहीं सकता।

गुरु की स्थिति ज्यों समझेंगे, त्यों गुरु का उपदेश फुरेगा। गुरु का उपदेश, गुरु का अनुभव है, गुरु का हृदय है। गुरु का उपदेश गुरु की स्थिति है।

मैं पहले भगवान शिव, भगवान कृष्ण, काली माता का चित्र रखता था, ध्यान-व्यान करता था लेकिन जब सदगुरु मिले तो क्या पता अंदर से स्वाभाविक आकर्षण उनके प्रति हो गया। साधना के लिए जहाँ मैं सात साल रहा, अभी देखोगे तो मेरे गुरुदेव का ही श्रीचित्र है और मैं ध्यान करते-करते उनकी स्थिति के, उनके निकट आ जाता। वे चाहे शरीर से कितने भी दूर होते परंतु मैं भाव से, मन से उनके निकट जाता तो उनके गुण, उनके भाव और उनकी प्रेरणा ऐसी सुंदर व सुहावनी मिलती कि मैंने तो भाई ! कभी सत्संग किया ही नहीं, मेरे बाप ने भी नहीं किया, दादा ने भी नहीं किया। गुरु ने संदेशा भेजाः “सत्संग करो।ʹ ईन-मीन-तीन पढ़ा, सत्संग क्या करूँ ? किंतु गुरु ने कहा है तो बस, चली गाड़ी… चली गाड़ी तो तुम जान रहे हो, देख रहे हो, दुनिया देख रही है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

मंगल तो तपस्या से हो सकता है। मंगल तो देवी-देवता, भगवान के वरदान से हो सकता है लेकिन परम मंगल भगवान के वरदान से भी नहीं होगा, ध्यान रहे। भगवान को गुरुरूप से मानोगे और भगवद-तत्त्व में स्थिति करोगे, तभी परम मंगल होगा।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

ऐसी कौन सी माँ होगी जो बालक का बुरा चाहेगी ? ऐसे कौन-से माँ-बाप होंगे जो बालक-बालिकाओं को दबाये रखना चाहेंगे ? माँ और बाप तो चाहेंगे कि हमारे बच्चे हमसे सवाये हों। ऐसे ही सदगुरु भी चाहेंगे कि मेरा शिष्य सत्शिष्य हो, सवाया हो लेकिन गुरुदेव से स्थिति नहीं होगी तो कभी-कभी लगेगा कि ʹदेखो, मेरा यश देखकर गुरूजी नाराज हो रहे हैं।ʹ

मेरे को डीसा में लोग जब पूजने-मानने लग गये, जय-जयकार करने लगे और गुरु जी को पता लगा तो गुरुजी ने मेरे को डाँटा और उन लोगों को भी डाँटाः “अभी कच्चा है, परिपक्व होने दो उसको।” कुछ लोगों को मेरे गुरुजी के प्रति ऐसा-वैसा भाव आ गया। लेकिन गुरुदेव की कितनी करूणा थी, वह तो हमारा ही हृदय जानता है। उन्हीं की कृपा से हम उनके चरण पकड़ पाये, रह पाये, उसके प्रति आदर रख पाये, नहीं तो ʹइतना अपमान कर दिया, इतने लोग मान रहे हैं और मेरी वाहवाही के लिए गुरु जी को इतना बुरा लग रहा है !ʹ – ऐसा अगर सोचते और बेवकूफी थोड़ी साथ दे देती तो सत्यानाश कर देते अपना। नहीं, यह उनकी करूणा-कृपा है।

हम अपना दोष खुद नहीं निकाल सकते तो उन निर्दोष-हृदय को कितना नीचे आना पड़ता है हमारा दोष देखने के लिए और हमारे दोष को निकालने के लिए उनको अपना हृदय ऐसा बनाना पड़ता है। वहाँ क्रोध नहीं है, क्रोध बनाना पड़ता है। वहाँ अशांति नहीं है, अशांति लानी पड़ती है उनको अपने हृदय में। यह उनकी कितनी करूणा-कृपा है ! वहाँ झँझट नहीं है फिर भी तेरे-मेरे का झंझट उनको लाना पड़ता है – “भाई, तुम आये ? कब आये ? कहाँ से आये ?…..” अरे, ʹसारी दुनिया मिथ्या है, स्वप्न है, तुच्छ है, ब्रह्म में तीनों काल में सृष्टि बनी नहींʹ, ऐसे अनुभव में जो विराज रहे हैं वे जरा-जरा सी बात में ध्यान रख रहे हैं, जरा-जरा बात सुनाने में भी आगे-पीछे का, सामाजिकता का ध्यान रख रहे हैं, यह उनकी कितनी कृपा है ! कितनी करूणा है !

गुरु में स्थिति हो जाय तो पता चले कि ʹअरे, हम कितना अपने-आपको ठग रहे थे !ʹ हम अपनी मति-गति से जो माँगेंगे…. जैसे खिलौनों में खेलता हुआ बच्चा माँ-बाप से या किसी देने वाले से क्या माँग सकता है ? कितना माँग सकता है ? ʹयह खिलौना चाहिए, यह फलाना-फलाना चाहिए…ʹ जब वह बुद्धिमान होता है तो समझता है कि पिता की जायदाद और पिता की जमीन-जागीर सबका अधिकारी मैं था। मैं केवल चार रूपये के खिलौने माँग रहा था, ये-वो माँग रहा था। वास्तव में पिता की सारी मिल्कियत और पिता, ये सब मेरे हैं। ऐसे ही ʹगुरु का अनुभव और गुरुदेव वास्तव में मेरे हैं। ब्रह्मांड और ब्रह्मांड के अधिष्ठाता सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा मेरे हैंʹ-ऐसा अनुभव होगा और गुरु कृपा छलकेगी।

गुरु की स्थिति को शिष्य समझे, गुरु की स्थिति जितनी समझेगा, उतना वह महान होगा। सोचो, वे साधु पुरुष कहाँ रहते हैं ? शरीर में ? क्या वे शरीर को ʹमैंʹ मानते हैं ? अथवा अपने को क्या मानते हैं ? वे जैसा अपने को जानते हैं और जहाँ अपने-आप में स्थित हैं, वहाँ जाने का प्रयत्न करो। गुरु जाति में, सम्प्रदाय में, मत-पंथ में स्थित हैं क्या ?

नहीं, गुरुजी स्थित हैं अपने-आप में, अपने स्वरूप में, अनंत ब्रह्मांडों के अधिष्ठान परब्रह्मस्वरूप में। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे त्यों-त्यों हृदय निर्दोष हो जायेगा, आनंदित और ज्ञानमय हो जायेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति को समझेंगे, त्यों हृदय मधुर बनता जायेगा और व्यवहार करते हुए भी निर्लपता का आनंद आने लगेगा। ज्यों-ज्यों गुरुदेव की स्थिति समझेंगे, त्यों उनके लिए हृदय विशाल होता जायेगा, त्यों-त्यों हृदय आदर और महानता से भरता जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 239

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बलसंवर्धक शीत ऋतु


(22 अक्तूबर 2012 से 17 फरवरी 2013 तक)

महर्षि कश्यप ने कहा हैः

न च आहारसमं किंचित् भैषज्यं उपलभ्यते।

देश, काल, प्रकृति, मात्रा व जठराग्नि के अनुसार लिये गये आहार के समान कोई औषधि नहीं है। केवल सम्यक् आहार विहार से व्यक्ति उत्तम स्वास्थ्य व दीर्घ आयु की प्राप्ति कर सकता है।

प्रदीप्त जठराग्नि के कारण शीत ऋतु पौष्टिक व बलवर्धक आहार सेवन के लिए अनुकूल होती है। इन दिनों में उपवास, अल्प व रूखा आहार सप्तधातु तथा बल का ह्रास करता है।

शीतकाल में सेवन योग्य पुष्टिदायी व्यंजन

गाजर का हलवाः गाजर में लौह तत्त्व व विटामिन ʹएʹ काफी मात्रा में पाये जाते हैं। यह वायुशामक, हृदय व मस्तिष्क की नस-नाड़ियों के लिए बलप्रद, रक्तवर्धक व नेत्रों के लिए लाभदायी है।

विधिः गाजर के भीतर का पीला भाग हटा के उसे कद्दूकस कर घी में सेंक लें। आधी मात्रा में मिश्री मिलाकर धीमी आँच पर पकायें। तैयार होने पर इलायची, मगजकरी के बीज व थोड़ी सी खसखस  डाल दें। (दूध का उपयोग न करें।)

कद्दू के बीज की बर्फीः काजु में जैसे मौलिक व पुष्टिदायी तत्त्व पाये जाते हैं, वैसे ही कद्दू के बीजों में भी होते हैं। बीज की गिरी को घी में सेंक के समभाग चीनी मिला के बर्फी या छोटे-छोटे लड्डू बना लें। एक दो लड्डू सुबह चबा-चबाकर खायें। विशेष रूप से बालकों के लिए यह स्वादिष्ट, बल व बुद्धिवर्धक खुराक है।

खजूर की पुष्टिदायी गोलियाँ- सिंघाड़े के आटे को घी में सेंक लें। आटे के समभाग खजूर को मिक्सी में पीसकर उसमें मिला लें। हलका सा सेंक कर बेर के आकार की गोलियाँ बना लें। 2-4 गोलियाँ सुबह चूसकर खायें, थोड़ी देर बाद दूध पियें। इससे अतिशीघ्रता से रक्त की वृद्धि होती है। उत्साह, प्रसन्नता व वर्ण में निखार आता है। गर्भिणी माताएँ छठे महीने से यह प्रयोग शुरु करें। इससे गर्भ का पोषण व प्रसव के बाद दूध में वृद्धि होगी। माताएँ बालकों को हानिकारक चॉकलेट्स की जगह ये पुष्टिदायी गोलियाँ  खिलायें।

वीर्यवर्धक प्रयोगः 4-5 खजूर रात को पानी में भिगो के रखें। सुबह 1 चम्मच मक्खन, 1 इलायची व थोड़ा सा जायफल पानी में घिसकर उसमें मिला के खाली पेट लें। यह वीर्यवर्धक प्रयोग है।

मेथी की सुखड़ीः मेथीदाना हड्डियों व जोड़ों को मजबूत बनाता है। मेथी का आटा, पुराना गुड़ व घी समान भाग लें। आटा घी में सेंक के पुराना गुड़ व थोड़ी सोंठ मिलाकर सुखड़ी (बर्फी) बना लें। यह उत्तम वायुशामक योग हाथ-पैर, कमर व जोड़ों के दर्द, सायटिका तथा दुग्धपान कराने वाली माताओं व प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए विशेष लाभदायी है।

चन्द्रशूर की खीरः चन्द्रशूर (हालों) में प्रचंड मात्रा में लौह, फॉस्फोरस व कैल्शियम पाया जाता है। 12 वर्ष से ऊपर के बालकों को इसकी खीर बनाकर सुबह खाली पेट 40 दिन तक खिलाने से कद बढ़ता है। माताओं को दूध बढ़ाने के लिए यह खीर खिलाने का परम्परागत रिवाज है। इससे कमर का दर्द, सायटिका व पुराने गठिया में भी फायदा होता है।

सूचनाः पौष्टिक पदार्थों का सेवन सुबह खाली पेट अपनी पाचनशक्ति के अनुसार करने से पोषक तत्त्वों का अवशोषण ठीक से होता है। उनका सम्यक पाचन होने पर ही भोजन करना चाहिए।

नारी कल्याण पाकः

यह पाक युवतियाँ, गर्भिणी, नवप्रसूता माताएँ तथा महिलाएँ-सभी के लिए लाभदायी है।

लाभः यह बल व रक्तवर्धक, प्रजनन अंगों को सशक्त बनाने वाला, गर्भपोषक, गर्भस्थापक (गर्भ को स्थिर पुष्ट करने वाला) श्रमहारक (श्रम से होने वाली थकावट को मिटाने वाला) व उत्तम पित्तशामक है। एक दो माह तक इसका सेवन करने से श्वेतप्रदर (ल्यूकोरिया), अत्यधिक मासिक रक्तस्राव व उसके कारण होने वाले कमरदर्द, रक्त की कमी, कमजोरी, निस्तेजता आदि दूर होकर शक्ति व स्फूर्ति आती है। जिन माताओं को बार-बार गर्भपात होता हो उनके लिए यह विशेष हितकर है। सगर्भावस्था में छठे महीने से पाक का सेवन शुरु करने से बालक हृष्ट-पुषअट होता है, दूध भी खुलकर आता है।

धातु की दुर्बलता में पुरुष भी इसका उपयोग कर सकते हैं।

सामग्रीः सिंघाड़े का आटा, गेहूँ का आटा व देशी घी प्रत्येक 250 ग्राम, खजूर 100 ग्राम, बबूल का पिसा हुआ गोंद 100 ग्राम, पिसी मिश्री 500 ग्राम।

विधिः घी को गर्म कर गोंद को घी में भून लें। फिर उसमें सिंघाड़े व गेहूँ का आटा मिलाकर धीमी आँच पर सेंके। जब मंद सुगंध आने लगे तब पिसा हुआ खजूर व मिश्री मिला दें। पाक बनने पर थाली में फैलाकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर रखें।

सेवन विधिः 2 टुकड़े (लगभग 20 ग्राम) सुबह-शाम खायें। ऊपर से दूध पी सकते हैं।

सावधानीः खट्टे, मिर्च-मसालेदार व तले हुए तथा ब्रेड-बिस्कुट आदि बासी पदार्थ न खायें।

संधिशूलहर पाक

लाभः उत्तम वायुनाशक व हड्डियों को मजबूत करने वाली मेथी, दोषों का पाचन करने वाली सोंठ व जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाले द्रव्यों से बना यह पाक जोड़ों के दर्द, गृध्रसी (सायटिका), गठिया, गर्दन का दर्द (सर्वायकल स्पोंडिलोसिस), कमरदर्द तथा वायु के कारण होने वाली हाथ-पैरों की ऐंठन, सुन्नता, जकड़न आदि में अतीव गुणकारी है। सर्दियों में 40-60 दिन तक इसका सेवन कर सकते हैं। बल व पुष्टि के लिए निरोगी व्यक्ति भी इसका लाभ ले सकते हैं। प्रसूता माताओं के लिए भी यह खूब लाभदायी है। इससे गर्भाशय की शुद्धि व दूध में वृद्धि होती है।

सामग्रीः मेथी का आटा व सोंठ का चूर्ण प्रत्येक 80 ग्राम, देशी घी 150 ग्राम, मिश्री 650 ग्राम। प्रक्षेप द्रव्य- पीपर, सोंठ, पीपरामूल, चित्रक, जीरा, धनिया, अजवायन, कलौंजी, सौंफ, जायफल, दालचीनी, तेजपत्र एवं नागरमोथ प्रत्येक का चूर्ण 10-10 ग्राम व काली मिर्च का चूर्ण 15 ग्राम।

विधिः मिश्री की एक तार की चाशनी बना लें। सोंठ को घी में धीमी आँच पर सेंक लें। जब उसका रंग सुनहरा लाल हो जाय, तब मेथी का आटा व चाशनी मिलाकर अच्छे से हिलायें। नीचे उतारकर प्रक्षेप द्रव्य मिला दें।

सेवन विधिः 15-20 ग्राम पाक सुबह गुनगुने पानी के साथ लें।

सूचनाः जोड़ों के दर्द में दही, टमाटर आदि खट्टे पदार्थ, आलू, राजमाँ, उड़द, मटर व तले हुए, पचने में भारी पदार्थ न खायें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 30,31 अंक 239

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