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सर्वांगीण शुद्धि द्वारा परम शुद्धि का साधनः गीता पूज्य बापूजी


गीता जयंतीः 23 दिसम्बर 2012

श्रीमद् भगवदगीता ने कमाल का भी कमाल कर दिया ! गीता यह नहीं कहती कि तुम ऐसी वेशभूषा पहनो, ऐसा तिलक करो, ऐसा नियम करो, ऐसा मजहब पालो। नहीं-नहीं, गीता (18-57) में आता है।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।

ʹसमबुद्धिरूप योग का अवलम्बन लेकर मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो।ʹ

बुद्धियोग से मेरी उपासना करके मेरे में चित्त लगाकर मेरे सुख को, आनंद को, माधुर्य को पा लो। गीता का ज्ञान जिसने थोड़ा भी पाया, बीते हुए का शोक सदा के लिए गया। जो बीत जाता है उसका शोक कर करके लोग परेशान हो रहे हैं। बेटा मर गया, 6 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पति मर गया, 3 साल हो गये, अभी रो रहे हैं। पत्नी मर गयी है, 5 साल हो गये, अभी भी रो रहे हैं, मूर्खता है।

बीते हुए का शोक गीता हटा देती है। भविष्य के भय को उखाड़ फेंकती है और वर्तमान की विडम्बनाओं को दूर कर गीता तुम्हें ज्ञान के प्रकाश से सम्पन्न बना देती है। तुम रस्सी को साँप, अजगर या और कुछ समझकर परेशान थे, ठूँठे को चोर, डाकू या साधु समझकर प्रभावित हो रहे थे अथवा विक्षिप्त हो रहे थे-यह सारी नासमझी गीता-ज्ञान के प्रकाश से हटा देती है।

गीता आपके जीवन में ज्ञान की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और भाव की शुद्धि ले आती है। बस तीन की शुद्धि हो गयी तो आपका आत्मा और ईश्वर का आत्मा एक हो जायेगा, आप निर्दुःख हो जायेंगे। आप युद्ध करेंगे लेकिन कर्मबन्धन नहीं होगा। आप रागी जैसे लगेंगे किंतु अंदर से निर्लेप रहेंगे। आप खिन्न जैसे लगेंगे परंतु अंदर से बड़े शांत रहेंगे। ʹहाय सीते ! सीते ! हाय लक्ष्मण !ʹ करते हुए दिखते हैं रामजी लेकिन वसिष्ठजी के शुद्ध ज्ञान से रामजी वही हैं-

उठत बैठत ओई उटाने,

कहत कबीर हम उसी ठिकाने।

मृत्यु कब आये, कहाँ आये कोई पता नहीं इसलिए मौत आये उसके पहले अपना क्रियाशुद्धि, भावशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का खजाना पा लेना चाहिए। मैं लंकापति रावण हूँ… आग लगी तेरे अहंकार को ! ज्ञान की अशुद्धि हो गयी। ब्राह्मण थे, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए थे। भाव की अशुद्धि हो गयी सीता जी को ले आये। कर्म की अशुद्धि हो गयी, करा-कराया चौपट हो गया। शबरी भीलन को मतंग ऋषि का सत्संग मिला है, ज्ञान की शुद्धि है। ʹतुमको कोई मिटा नहीं सकता और शरीर को कोई टिका नहीं सकताʹ – यह शुद्ध ज्ञान है। लेकिन अमिट (आत्मा) मिटने  वाले शरीर को ʹमैंʹ मानकर मृत्यु के भय से डर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान की शुद्धि करते हुए कहाः

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

ʹजैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नये शरीरों को प्राप्त होता है।ʹ (गीता 2-22)

अतः मृत्यु से डरो मत और डराओ मत। डरने से तुम जीवित नहीं रहोगे, बुरी तरह मरोगे लेकिन निर्भय होने से अच्छी तरह से अमरता की यात्रा करोगे।

एक सवाल पूँछूँगा, जवाब जरूर दोगे।

एक किलो रूई है। उसको जलाना हो तो कितनी दियासिलाई लगेंगी ? एक। अगर 10 किलो रूई जलानी हो तो 10 दियासिलाइयाँ लगेंगी क्या ? हजार किलो या लाख किलो रूई कोक जलाना हो तो दियासिलाइयाँ कितनी लगेंगी ? सौ लगेंगी ? लाख लगेंगी ? दो लगेंगी ? नहीं, एक ही काफी है। ऐसे ही कितने जन्मों के कर्म हों, कितने ही पाप-ताप हों, नामझी और ज्ञान की अशुद्धि हो किंतु एक बार गुरुमंत्र मिल गया और लग गये आत्मज्ञान के रास्ते तो बेड़ा पार हो जायेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं-

यथैधांसि समिद्धोग्निर्भस्मात्कुरुतेर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।

ʹहे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है।ʹ (गीताः 4.37)

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः….

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, दुराचारियों में आखिरी नम्बर का है, सर्वज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि। तो भी तू गुरु के ज्ञान की नाव में बैठकर निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा। फिर पानी 50 फुट गहरा हो चाहे 5 हजार फुट गहरा हो, तू बेड़े में बैठा है तुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।

श्रीकृष्ण चाहते हैं कि आपकी समझ की शुद्धि हो, ज्ञान की शुद्धि हो – मरने वाले शरीर को ʹमैंʹ मत मानो, यह ʹमेराʹ शरीर है। बदलने वाला मन है, चिन्तन करने वाला चित्त है, इस सबको देखने वाला ʹमैंʹ हूँ।

हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप।

सारी परिस्थितियाँ आ आकर बदल जाती हैं, मौत भी आकर चली जाती है। इसलिए ज्ञान की शुद्धि करो। जल्दी मरने की जरूरत नहीं है और मरने वाले शरीर को अमर करने के चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है। न मरने वाले को अमर करो, न मरने वाले को परेशान करके जल्दी मरो। स्वस्थ जीवन, सुखी जीवन, सम्मानित जीवन का प्राकृतिक नियम जान लो।

भाव की शुद्धि, कर्म की शुद्धि और ज्ञान की शुद्धि पर गीता ने बड़ा भारी जोर दिया है। तुम्हें ईश्वर को बनाना नहीं है, ईश्वर के पास जाना नहीं है, ईश्वर को बुलाना नहीं है। कण-कण में क्षण-क्षण में अंतरात्मा ईश्वर है। उसका आनंद, उसका सामर्थ्य, उसका ज्ञान हँसते-खेलते पाना है। ऐसा गीताकार ने युद्ध के मैदान में अर्जुन को अनुभव करा दिया है।

जगत में कर्म की प्रधानता है इसलिए कर्म को ऐसे करो कि करने का अहं नहीं, लापरवाही नहीं, हलकी वासना नहीं। दूसरों के भले के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए किया गया आपका कर्म ʹकर्मयोगʹ हो जायेगा।

ज्ञान की शुद्धि तत्त्वज्ञान से होती है। मरने वाला शरीर मैं नहीं हूँ। बदलने वाला मन मैं नहीं हूँ। इन सबकी बदलाहट को जो जानता है ʹʹૐʹ उसमें शांत होना सीखो। जितने शांत होते जाओगे उतने ईश्वरीय प्रेरणा और ईश्वरीय सामर्थ्य के धनी होते जाओगे।

भगवान कहते हैं- तुम्हारे ज्ञान को तत्त्वज्ञान से दिव्य करो। भगवान के सत्संग से और ध्यान से तुम्हारी भावनाओं को शुद्ध करो और धर्म के नियम से तुम्हारे कर्मों को शुद्ध करो।

गीता का धर्म, गीता की भक्ति और गीता का ज्ञान ऐसा है कि वह प्रत्येक समस्या का समाधान करता है। जब गीता का अमृतमय ज्ञान मिल जाता है, तब सारी भटकान मिटाने की दिशा मिल जाती है, ब्रह्मज्ञान को पाने की युक्ति मिल जाती है और वह युक्ति मुक्ति के मंगलमय द्वार खोल देती है। कितना ऊँचा ज्ञान है गीता का !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अँक 240

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सब देवों का देव – पूज्य बापू जी


मनमानी श्रद्धा होती है तो मनमाना फल मिलता है। और मन थोड़ी सीमा में ही होता है, मन की अपनी सीमा है। श्रद्धा सात्त्विक, राजस, तामस – जैसी होती है, वैसा ही फल मिलता है। आप किसी देवतो रिझाते हैं और फल चाहते हैं तो जैसे किसी मनुष्य को रिझाते हैं और फल चाहते हैं तो जैसे किसी मनुष्य को रिझाया तो 5 साल की कुर्सी है। तो 5 साल की कुर्सी या 10-15 साल का उसका सत्ताबल, फिर दूसरी कोई सरकार, दूसरा कायदा हो गया। तो जितने आयुष्यवाला पद होगा, उतना ही आपको फायदा हुआ।

ब्रह्माजी के एक दिन में 14 इन्द्र बदलते हैं। देवता की उपासना करो तो वे जब बदल जाते हैं तो फिर नये इन्द्र का कानून हो जाता है। हर 5 साल में जो-जो कानून पहली सरकार ने पास किये, उनमें भी कई फेरबदल हो जाते हैं, अधिकारियों में फेरबदल हो जाता है। ʹयह अधिकारी अपना है, यह अपना है, यह फलाने का दायाँ हाथ है….ʹ ऐसा करते-करते, खुशामदखोरी करते-करते, भीख माँगते-माँगते, उनका आश्रय लेते-लेते आखिर देखो तो निराश !

छोटी बुद्धि होती है न, तो छोटे-छोटे ग्रामदेवता को मानते हैं, कोई स्थानदेवता को मानते हैं, कोई कुलदेवता को मानते हैं, कोई किसी देवता को मानते हैं। छोटी-छोटी मति है तो छोटे-छोटे देव में ही अटक जाती है, अब पता ही नहीं कि वह कुलदेवता कब मर जाय, कब ग्रामदेवता मर जाय। कुलदेवता के द्वारा, ग्रामदेवता के द्वारा कुछ भी कृपा होगी तो उसी परमेश्वर की होगी, सत्ता होगी तो उसी की होगी, संकल्प सामर्थ्य होगा तो उसी का होगा।

भगवान कहते हैं-

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।

गीताः 5.29

सारे यज्ञ और तपों का फल भोक्ता मैं हूँ। ʹइदं इन्द्राय स्वाहा।ʹ मैं ही भोग रहा हूँ, इन्द3 के पीछे चक्कर क्यों काट रहे हो ? इदं वरुणाय स्वाहा। इदं कुबेराय स्वाहा।ʹ – ये मातृपिंड करो, पितृपिंड करो, यक्षों को दो लेकिन भगवान कहते हैं कि सबके अंदर अंतरात्मारूप से तो मैं ही हूँ और किसी के द्वारा भी वरदान, आशीर्वाद मिलता है तो मैं ही दे रहा हूँ लेकिन उन छोटी-छोटी आकृतियों में लगे रहे तो फिर वह छोटा-छोटा खत्म हुआ तो तुम्हारी उपलब्धि भी खत्म हुई। उन सबमें मैं हूँ। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। ईश्वर तो बहुत हैं। एक-एक सृष्टि के अलग-अलग ईश्वर हैं। सृष्टियाँ कितनी हैं कोई पार नहीं है लेकिन उन सब सृष्टियों के ईश्वरों-का-ईश्वर अंतर्यामी आत्मा मैं महेश्वर हूँ और कैसा हूँ ? सुहृदं सर्वभूतानां… प्राणिमात्र का सुहृद हूँ। अकारण हित करने वाला हूँ। ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। ऐसा जो मुझे जानता है उसे शान्ति प्राप्त होती है।

माँ के शरीर में दूध कौन बनाता है ? ग्रामदेव नहीं बनाता, स्थानदेव नहीं बनाता, कुलदेवता नहीं बनाता। वह माँ का अंतर्यामी देव हमारे लिए दूध बनाने की व्यवस्था कर देता है। बस, इतना पक्का करो कि सारे भगवान, सारे के सारे देवता, सारे यक्ष, राक्षस, किन्नर, भगवान, गुरु सबके रूप में वह मेरा परमेश्वर ही है। तो आपका नजरिया बड़ा हो जायेगा, बुद्धि विशाल हो जायेगी। खंड में से अखंड में चले जायेंगे। परिच्छिन्न में से व्यापक हो जायेंगे। बिंदु में से सिंधु बन जायेंगे। ऐसा कोई बिन्दु नहीं है कि सिंधु से अलग हो। ऐसा कोई घड़े का आकाश नहीं है जो महाकाश से अलग हो। ऐसे ही ऐसा कोई जीव नहीं जिसका उस परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना, ज्ञान के बिना कोई अस्तित्व हो।

ʹहे देवता ! यह दे दे…..ʹ, बदली हो जायेगी उसकी तो ! वह देगा तो भी तेरे देवता (अंतर्यामी परमात्मा) के बल से देगा, पागल कहीं का ! ʹहे फलाने देवता ! यह दे दे….ʹ देखो, मैं अभी तो तुमको पागल बोल देता हूँ किंतु पहले मैं भी पीपल देवता को फेरे फिरता था। उनकी डालियों की चम्पी करता, ʹहरि ૐૐ…..ʹ करके आलिंगन करता, बड़ा अच्छा लगता था। अब पता चल गया गुरु कृपा से ओहो ! वही का वही था, अपना ही हृदयदेव था।

हे मेरे प्रभु ! हे मेरे साँईं ! हे मेरे भगवानों-के-भगवान लीलाशाह जी भगवान ! माँगने तो आये थे कुछ, और दे डाला कुछ ! माँगने तो आये थे कि चलो शिवजी का दर्शन करा देंगे लेकिन शिवजी जिससे शिवजी हैं वही मेरा अपना-आपा है, वह दे डाला। माँगने तो आते हैं- ʹयह हो जाय, वह हो जाय, वह हो जाय….ʹ – छोटी-छोटी चीजें लेकिन सत्संग में इधर-उधर घुमा-फिरा के वही दे देते हैं। ओ हो दाता ! तू सुहृद भी है, उदार भी है, दानी तो कैसा ! राजा तो क्या दान करेगा ? सेठ का बच्चा क्या दान करेगा ? कर्ण भी क्या दान करेगा ? चीज वस्तुओं का दान करेगा, अपने कवच का दान कर देगा लेकिन भगवान तो अपने-आपका ही दान कर देते हैं। सबसे बड़ा दाता देखो तो तू ही है महाराज ! यह तेरे दाताओं में जो दानवीरता है वह तेरी है प्रभु ! दाताओं में जो दानवीरता है, बुद्धिमानों में जो बुद्धि है, वह तेरी सत्ता है, तेरी महिमा है। जो उसकी तरफ चल देता है न, उसकी मति-गति कोई नाप नहीं सकता।

श्रद्धा शास्त्रविधि से होती है तो ब्रह्मविलास तक पहुचाती है और श्रद्धा मनमानी होती है तो भूत-भैरव में, बड़े-पीर में रूका के जीवन भटका देती है। कर्म का फल कर्म नहीं देता है, कर्म तो कृत है, किसी के द्वारा किया जाता है, खुद जड़ है। कर्म का फल देने वाला चैतन्य ईश्वर है। और  वही ईश्वर जिसमें स्थापना करो कि ʹयह देवता मेरे कर्म का फल देगाʹ, उस देवता के द्वारा भी इस ईश्वर का ही अंश कर्म का फल देगा। तो फुटकर-फुटकर बाबुओं को रिझा-रिझा के थक जाओगे, सबके बापों का बाप बैठा है उसे पा लो, बस हो गया। परमात्मा तो निर्गुण-निराकार है। किन्तु जो चाहे आकार को साधू परतछ देव। (परतछ=प्रत्यक्ष) जिसने परमात्मा को अपने आत्मरूप में जाना है वह प्रत्यक्ष, साक्षात् भगवान है। मुझे तो मेरे लीलाशाह भगवान मिल गये। पहले तो अलग-अलग भगवानों की खूब उपासना की, नाक रगड़ी पर जब सदगुरु भगवान मिल गये तब सब भगवानों को रख दिया। अभी मेरी कुटिया में अगर कोई भगवान होगा तो मेरे गुरु भगवान का चित्र होगा, नहीं तो बिना चित्र के भी मेरे भगवान अब मेरे से अलग नहीं हो सकते। हे हरि ! हे प्रभु ! ૐૐૐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 240

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प्रकृति भी तुम्हारी आज्ञा मानेगी


परब्रह्म परमात्मा की प्रसन्नता व संतुष्टि के लिए ही प्रकृति ने यह संसाररूपी खेल रचा है और जिनकी ब्रह्म में स्थिति हो जाती है, ऐसे महापुरुषों का संकल्पबल असीम होता है। ऐसे निरिच्छ महापुरुष कई बार सर्वमांगल्य के भाव से भरकर प्रकृति को बदलाहट के लिए आज्ञा देते हैं तो कई बार स्वयं प्रकृति ऐसे महापुरुषों की सेवा के लिए तत्पर हो जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें ब्रह्मनिष्ठ पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के जीवन में कई बार देखने को मिला है।

जो गुरु आज्ञा मानता है…..

एक बार भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज ने बापू जी को कुछ भक्तों को चाइना पीक (वर्तमान में नैना पीक) दिखाने की आज्ञा दी। ओलों की वर्षा और घना कोहरा होने से सभी यात्री वापस लौटने लगे परंतु अपने सदगुरुदेव की आज्ञा पूरी करने हेतु बापू जी उन भक्तों को समझाते बुझाते, कभी सत्संग सुनाते कैसे भी करके युक्ति से गन्तव्य स्थान तक ले गये। वहाँ पहुँचे तो मौसम एकदम साफ हो गया था। भक्तों ने चाइना पीक देखा। वे बड़ी खुशी से लौटे और पूरा हाल साँईं जी को कह सुनाया। जिस पर साँईं श्री लीलाशाह जी का हृदय बापू जी के लिए करूणा-कृपा से छलक उठा और बोलेः “जो गुरु आज्ञा मानता है, प्रकृति भी उसकी आज्ञा मानेगी।” और आज हम देख रहे हैं कि ब्रह्मज्ञानी का यह ब्रह्मवाक्य साकार होकर ध्रुव सत्य के रूप में देदीप्यमान हो रहा है। पूज्य बापू जी के करोड़ों शिष्यों के जीवन इसकी अनंत अदभुत गाथाएँ हैं। प्रकृति और परमेश्वर की इस अदभुत, मधुमय लीला-सरिता से कुछ आचमनः

करूणावत्सल बापू जी अकालपीड़ित भक्तों की करूण पुकार सुनकर अपने संकल्पबल से कहीं वर्षा करने की लीला करते हैं तो कहीं बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं को अपने संकल्पबल द्वारा टाल देते हैं। सितम्बर 2005 में भूकम्प की तबाही से उभरे रापर क्षेत्र के अकालपीड़ित लोगों की व्यथा सुनकर बापू जी ने कहाः “यह सत्संग पूरा करेंगे, फिर वर्षा करना ठाकुर जी !” विनोद-विनोद में भक्तों से भी यही कहलवाया और खुद हो गये चुप ! बापू जी ने एक नजर डाली आकाश पर, भक्तों पर और फिर शुरु कर दिया सत्संग। सत्संग पूरा होते ही लोग अपने-अपने घर पहुँचे और वर्षा ने अपना रंग दिखाया। पूरे रापर, कच्छ में खूब वर्षा हुई। फिर तो सिद्धपुर, विरमगाम, खेरालू… कितने-कितने स्थानों पर यह लीला चलती रही इसकी गिनती कर पाना सम्भव नहीं है।

इसी प्रकार रतलाम के पास नामली गाँव, पंचेड़ में पानी की भारी किल्लत थी, जमीन गहरी खोदने पर भी पानी नहीं निकलता था। भक्तों ने गुरुदेव के श्रीचरणों में प्रार्थना निवेदित कीक। पूज्यश्री ने वहाँ सत्संग किया, फिर जिस स्थान पर जमीन खोदने के लिए गुरुदेव ने आज्ञा की, वहाँ खुदाई करने पर थोड़ी ही गहराई में पानी का स्रोत मिल गया। फिर उस गाँव में जहाँ-जहाँ खुदाई हुई सभी जगह पानी-ही-पानी ! कैसी करूणा है महापुरुषों की !

अभी हाल ही में सभी ने एक ऐसा चमत्कार देखा जिसे सभी ने 21वीं सदी के उस सबसे बड़े चमत्कार के रूप में नवाजा, जिसे पूरे विश्व के लोगों ने देखा और हर कोई आज भी देख सकता है क्योंकि सौभाग्य से वह चमत्कार कैमरे में भी रिकॉर्ड हुआ। (देखें सितम्बर 2012 की ʹऋषि दर्शनʹ विडियो मैगजीन) स्थान था गोधरा व तारीख थी 29 अगस्त 2012 यहाँ हुई हेलिकॉप्टर दुर्घटना में जहाँ 100 फुट की ऊँचाई से गिरे हेलिकॉप्टर के पुर्जे-पुर्जे अलग हो गये, वहीं उसमें सवार पूज्य बापू जी के कोमल शरीर का अंग-प्रत्यंग चुस्त-तंदरुस्त ! हेलिकॉप्टर दुर्घटनाओं के रक्तरंजित इतिहास में यह पहली ही घटना थी, जिसमें किसी भी यात्री का बाल भी बाँका न हुआ हो। उसके अगले ही दिन नौसेना के दो हेलिकॉप्टरों के पंख टकराये और नौ लोगों की मृत्यु हो गयी। बापू जी जिस हेलिकॉप्टर से बिल्कुल सुरक्षित बाहर आये उसकी दशा देखकर तो नास्तिकों का शीश भी संत-चरणों में झुके बिना नहीं रहेगा !

प्रकृति करे सेवा

जिनको कछु न चाहिए, वो शाहन के शाह।

ऐसे अचाह, अलमस्त महापुरुषों की सेवा करके प्रकृति अपना भाग्य बना लेती है। उनके चित्त में बस एक हल्का-सा स्फुरण हो और वह वस्तु हाजिर हो जाय, यह बात विज्ञान की समझ से परे है। बापू जी कहते हैं- “मेरे शरीर को कुछ भी आवश्यकता हो तो पहले चीज आ जायेगी, बाद में लगेगा कि ʹहाँ, चलो ले लो।ʹ पहले चीज आयेगी, बाद में आवश्यकता दिखेगी – ऐसी व्यवस्था हो जाती है। आप ईश्वर में टिक जाओ तो प्रकृति आपकी सेवा करके अपने को आनंदित करती है।

जब मैं डीसा (गुजरात) के एकांत में था तो कुटिया से जब बाहर निकलता तो लोग खड़े रहते और हमारे पास तो कुछ होता नहीं था, तो किसी को बुलाया और कहाः “तुम मूँगफली ले आओ और बच्चों को बाँट दो।” दो रूपये की बहुत सारी मूँगफली मिल जाती थी। तो उसने मूँगफली लाकर बच्चों को बाँट दी। जो गर्म-गर्म मूँगफली बिकती है न ठेले पर, वह। फिर मन में सोचा, ʹअपन किसी से माँगते नहीं और उसको बोला कि इनको मूँगफली लाकर दे दो। उसको पैसे कैसे देंगे ?ʹ अपने पास तो पैसे थे नहीं। फिर हम नदी पर जा रहे थे तो ज्यों नदी पर गये त्यों दो रूपये के चार नोट ऊपर-ऊपर तैरते हुए आ गये। मैंने उन्हें उठा लिया और उस व्यक्ति को दे दिये कि ʹये ले मूँगफली के पैसे।ʹ

ऐसे ही नारायण जब चौदह-पन्द्रह साल का था तब मेरी रसोई की सेवा करता था। जब मैं दुबई गया तो रसोइया साथ चला। मैं सुरमा लगाता था। मैंने कहाः “इधर तो गर्मी बहुत है बेटा ! सुरमा लाया है क्या ?”

बोलेः “साँईं सुरमा तो नहीं लाया मैं।”

“चलो, ठीक है।”

जब दुबई के समुद्र-तट पर घूमने गया तो देखा कि जैसे मिठाई के डिब्बे आते हैं न, वैसे ही छोटा-सा डिब्बा तरंगों पर नाच रहा है। मैंने कहाः “इस बक्से में क्या होगा ?” हाथ लम्बा करके उठा लिया और देखा तो सुरमे की दो शीशियाँ और एक सलाई थी, कई  वर्षों तक चला वह। बिल्कुल पक्की, सच्ची बात है !”

कैसी है आत्मवेत्ता संतों की महिमा, जिनकी सेवा करने के लिए प्रकृति भी सदैव मौका ढूँढती रहती है।

पूज्य बापूजी का अवतरण होने वाला था तो उसके पहले ही परमात्मा ने सौदागर को सत्प्रेरणा दी और वह अत्यन्त सुंदर, विशाल झूला लेकर आ गया था। साधनाकाल में बापू जी की ऐसी ऊँचाई थी कि परमात्मा को चुनौती दे दी कि

जिसको गरज होगी आयेगा, सृष्टिकर्ता खुद लायेगा।।

पूज्य श्री को प्रातः यह विचार आये उससे पहले ही रात को स्वप्न में किसानों को मार्ग बताकर सृष्टिकर्ता ने ब्रह्मवेत्ता संत के भोजन की व्यवस्था कर दी।

सर्वसुहृद पूज्य बापू जी कहते हैं- “आप एक बार उस परब्रह्म-परमात्मा में स्थित हो जाओ तो आपके लिए सब सहज हो जायेगा। मुझे जो गाय दूध पिलाती थी, वह गर्भवती हो गयी थी। अब दूध कहाँ से लाना ? तो मैंने प्यार से गाय की गर्दन को सहलाया, वह फोटो भी है। मैंने कहाः “अब दूध पिलाना बंद कर दिया क्या ?” फिर उस गाय ने जीवन में दूध कभी बंद नहीं किया जब तक वह जीवित रही (वर्तमान में औरंगाबाद आश्रम में भी एक ऐसी ही गाय है, जो वर्षभर दूध देती है।) ऐसे ही आम का वृक्ष बारहों महीने फल देता है और भगवान तो बारह महीनों, चौबीसों घंटे, हर सेकंड फलित-ही-फलित कर रहे हैं।”

सच ही है, परमात्मा तो ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का स्वरूप है और वही सृष्टिकर्ता, पालनहारा भी है। वही प्रकृति को प्रेरित करके अपने इन साकार स्वरूपों की सेवा में लगाता रहता है। संत कबीर जी ने भी ऐसे महापुरुषों के लिए कहा हैः

अलख पुरुष की आरसी साधु का ही देह।

लखा जो चाहे अलख को इन्हीं में तू लख लेह।।

महापुरुषों से क्या माँगें ?

पूज्य बापू जी

“संतों के पास आकर सांसारिक वस्तुएँ माँगना तो ऐसा ही है जैसे किसी राजा से हीरे न माँगकर आलू, मिर्च, धनिया माँगा जाय। मैं तुम्हें ऐसा आत्म-खजाना देना चाहता हूँ जिससे सब दुःख सदा के लिए दूर हो जायें। तुम अपने दुःख आप मिटा सको, औरों के भी मिटा सको ऐसा लक्ष्य बना लो और मैं तुम्हारा सहयोग करता हूँ, कदम-कदम पर साथ हूँ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 2,9,10 अंक 53

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