Monthly Archives: December 2012

जैसी नजर, वैसे नजारे – पूज्य बापू जी


जगत तुम्हें आधिभौतिक दिखता है उसकी परवाह नहीं लेकिन देखने का नजरिया तुम आध्यात्मिक करो।

एक वैज्ञानिक को पीपल का पेड़ दिखा, वह बोलेगाः ʹपीपल का पेड़ है। इसकी लकड़ियों में ऐसा है – ऐसा है, यह गुण है, यह दोष है। इसके फर्नीचर से ऐसे-ऐसे फायदे होंगे या यह होगा। इसके धुएँ से यह हो रहा है, यह होगा।ʹ वैज्ञानिक ने पीपल को लकड़ी समझकर उसका उपयोग किया।

वैद्य को पीपल का पेड़ दिखेगा तो वह बोलेगा कि ʹइसमें पित्तशमन का सामर्थ्य है। इसके छोटे-छोटे पत्तों का – कोंपलों का मुरब्बा बनाकर रोज 10 ग्राम खायें तो कैसी भी गर्मी हो शांत हो जायेगी।ʹ वैद्य की दृष्टि है कि ʹपेड़ सात्त्विक है, इसमें अदभुत शक्तिवर्धक औषधीय गुण छुपे हैं।ʹ

भक्त पीपल को देखता है तो कहता हैः ʹये तो पीपल देवता हैं। इनमें आधिदैविक स्वभाव के आत्मा भी वास करते हैं। ये तो नारायण का अभिव्यक्ति हैं।ʹ वह पीपल के पेड़ को धागा बाँधेगा, उसके चारों तरफ घूमेगा।

ʹअच्युतानन्तगोविन्द नामोच्चारणभेषजात्।

नश्यन्ति सकला रोगा सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।।ʹ

करेगा और शनि देवता का पूजनादि करेगा। लेकिन तत्त्ववेत्ता बोलेगा कि ʹपंचभूतों और अष्टधा प्रकृति में चमचम चमकने वाला वही मेरा चैतन्य है। अगर चैतन्य नहीं होता तो पृथ्वी से रस कैसे लेता ? फल कैसे लगते ? फूल कैसे खिलते ? और सात्त्विक हवाएँ कैसे बनतीं ? ब्रह्म पीपल का पेड़ बनकर अपने-आपको पोषित करता है।ʹ

वैज्ञानिक आधिभौतिक नजर से देखता है तो उसका उपयोग आधिभौतिक ही होता है। भक्त भगवदभाव से देखता है, नारायणरूप मानकर पीपल को फेरे फिरता है, जल चढ़ाता है।

हम जब बच्चे थे तो पीपल की जड़ों को हरि ૐ….ૐ…, तू ही ૐ….ૐ…. करके चम्पी करते थे। बड़ा आनंद आता था। घर से जाते तब भी वहाँ पूजा करते, आते तब भी उसी मस्ती में, आनंद में रहते। तो हमारे अंतःकरण का निर्माण हुआ।

भौतिकवादी को भौतिक फायदा होगा, आयुर्वेदवाले को औषधीय फायदा होगा, भगवदभाव वाले को अपना चित्त निर्माण होगा और तत्त्ववेत्ता अष्टधा प्रकृति के संगदोष से मुक्त अपने स्वरूप को ही देखेगा।

अब तुम कौन-सा नजरिया अपनाते हो उस पर तुम्हारा भविष्य है। किसी को लगेगा कि गुरु हमारे ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं। किसी को लगेगा उपदेशक हैं। जिसका जैसा नजरिया होता है उस समय उसका चित्त भी वैसा ही बन जाता है और जैसा चित्त होता है वैसा ही दिखता है। इस प्रकार प्राणी-पदार्थों के प्रति अपना-अपना नजरिया है। अतः ऊँचा नजरिया करो, ऊँचे पद को पाओ।

जब तत्त्वज्ञान होता है तो समझते हैं कि ब्रह्म ही पीपलरूप होकर दिखाई देता है और ब्रह्म ही गंगा होकर बह रहा है। ब्रह्म ही सब रूपों में है। सब ब्रह्म ही ब्रह्म है। ब्रह्मवेत्ता की ब्रह्मदृष्टि है। भक्त की भगवददृष्टि है और भौतिकवादी की भौतिक दृष्टि है। जैसी दृष्टि होती है, अंतःकरण वैसा ही होता है। इसलिए अपना नजरिया ऊँचा कर लेना चाहिए। आध्यात्मिक अर्थघटन करो, नहीं तो भगवद-अर्थघटन करो।

आधिभौतिक उपयोग में भी आधिदैविक और आध्यात्मिक नजरिये से विशेष लाभ मिलेगा। जैसे – ʹहे नारायण ! हे  ब्रह्म ! आप औषधरूप में हो….ʹ मंगल ही मंगल हो जायेगा। ʹआप शत्रु के रूप में आये हो दोष और अहंकार मिटाने को, आप मित्र के रूप में हो हताशा निराशा मिटाने को। कीड़ी में नन्हें, हाथी में बड़े और महावत में भी आप ही आप हो। मुन्ना बनकर ऊँआँ…ऊँआँ… आप ही करते हो और माँ बनकर वात्सल्य देने वाले भी आप ही हो। चोरी करके भागने वाले में भी आपकी चेतना और पकड़ने वाले में भी आप ही आप ! जलचरों की हरकतों में आप ही आप और जलचरों को निहारने वाले भी आप ही आप ! गुरु बनकर मंगल नजरिया आप ही दे रहे हो और साधक बनकर सुन रहे भी आप ही आप !ʹ – यह परम नजरिया आपको अतिशीघ्र ही परब्रह्म परमात्मा के साथ एकरूप कर देगा। आपको शोक, मोह, राग, द्वेष, भय, चिन्ता, अहंकार, आवेग, अशांति से मुक्त करके अपनी महिमा में जगा देगा। ૐ….ૐ…. लगो लाले-लालियाँ, बेटे ! ऊँचे नजरिये में। ʹआईएएस कर लूँ, एम.डी. कर लूँ, पीएचडी कर लूँ, एमबीए कर लूँ, यह कर लूँ – वह कर लूँ…ʹ ये कर करके तो सभी ठगे जा रहे हैं। जो करना है करो लेकिन इस नजरिये को पहले दृढ़ कर लो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 240

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ज्ञान के बिना भोग नहीं – पूज्य बापू जी


ज्ञान के बिना भोग नहीं होता। जीभ पर स्वादिष्ट-सलोना व्यंजन आया लेकिन उसका ज्ञान होगा तभी मजा आयेगा। खट्टे खारे का ज्ञान होगा तभी उसका मजा आयेगा। यह हमारा हितैषी है, उसका ज्ञान होगा तब उसको देख के मजा आयेगा। बिना ज्ञान के भोग नहीं होता।

वास्तव में देखा जाय तो ज्ञानस्वरूप ईश्वर को ही हम भोग रहे हैं और ईश्वर से ही भोग रहे हैं। यहाँ भी ईश्वर की सत्ता है और इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान में भी ईश्वर ही अनेक लीलाएँ करता है। जैसे – स्वप्नद्रष्टा आप ही रेलगाड़ी बन जाता है, आप ही यात्री बन जाता है, आप ही स्टेशन और जंक्शन बन जाता है और मुंबई का हलवा, नड़ियाद का गोटा (पकौड़ा) खा ले, भरूच की सींग खा ले… सपने में भरूच भी तू ही बन गया और नड़ियाद भी तू ही बन गया और नड़ियाद के गोटे भी तू ही बन गया और खाने वाला दूसरा आया क्या ? तू ही खाता है। जान गये बलमा, पहचान गये… गाड़ी आगे चली तो आबू की रबड़ी-पूड़ी… अजमेर का दूध मीठा… क्या-क्या देखते हैं ! एक ही स्वप्नद्रष्टा क्या-क्या बन जाता है ! क्या तेरी लीला है ! हे प्रभु ! हे देव ! हे ज्ञानस्वरूपा, चैतन्यस्वरूपा ! उसकी महिमा विचारते-विचारते चुप हो गये तो बस, ठहर गये। जैसे रात्रि को चुप हो जाते हैं न, तो थकान मिट जाती है, ऐसे ही उसके प्रेम में चुप हो गये तो जन्म-मरण की थकान का पर्दा खुल जाता है धड़ाक-धुम ! ब्राह्मी स्थिति आ जाती है।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके….

ऐसा नहीं कि मोह सुबह न ठग सके, मोह रात को न ठग सके, मोह अमावस्या को न ठग सके, कभी न ठग सके-

 मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

आसुमल से हो गये, साँईं आसाराम।।

मालूम पड़ने से ही भोग होता है और भोग से ही सुख होता है तो ज्ञान से ही मालूम पड़ेगा, ज्ञान से ही भोग होगा, ज्ञान से ही सुख होगा। जो हिन्दी भाषा कतई न जानता हो अथवा बहरा हो, निपट निराला….. वह सत्संग में बैठा हो तो उसको सुख नहीं मिलेगा, माहौल के आन्दोलनों का भले उसे पुण्य हो लेकिन जो ज्ञान से सुख होता है न, वह फल वस्तु, व्यक्ति से नहीं होता। कुर्सी मिल गयी तो वह फल नहीं है लेकिन कुर्सी के सुख का फल हृदय में आया, वही फल है। चीज वस्तु पड़ी है वह फल नहीं है लेकिन उससे हृदय में जो सुख-दुःख होता है वही फल है। जब हृदय से ही सुख और दुःख के फल का एहसास होता है तो हृदय को ही ऐसा बनाओ की भावनामय हो जाये। काहे को झंझट में पड़ो ! बड़ा सौदा कर लो।

बुद्धि में सत्य का ज्ञान, सत्य का प्रकाश, इन्द्रियों में सच्चरित्रता, मन में सदभाव लाओ और ईश्वर को अपना मानो। सौंप दो उसको, बस हो गया। ज्यादा झंझट में पड़ो ही मत ! तीसरी पढ़े तो पढ़े, नहीं तो नहीं जाना ! हम गये तो समय बिगाड़ा तीन साल, हरि ૐ…. ૐ…. ऐसा अथाह खजाना है। हमने 3 साल बिगाड़े तो कोई 18 साल, 21 साल बिगाड़ के इधर आये। ईश्वर के सिवाये न जाने कितने जन्म बिगड़ गये, हे हरि ! कितनी उपलब्धियाँ बिगड़ गयीं ! क्योंकि  आप शाश्वत हो और शरीर, वस्तु और उपलब्धियाँ ने नश्वर हैं। आप नित्य हो, शरीर, उपलब्धियाँ अनित्य हैं। आप सुखस्वरूप हो, ज्ञानस्वरूप हो, चैतन्यस्वरूप हो। उपलब्धियाँ तो सँभाल-सँभाल के थक जाओगे। बुद्धि में सत्य का निश्चय हो। सत्य एक परमात्मा है। चित्त में समता हो, मन में भगवान का प्रेम हो, अपनत्व हो, सदभाव हो और आचरण में पवित्रता हो, बस ! फिर तो मौज हो गयी मौज ! मुक्ति हो गयी… शोक, दुःख, जन्म-मरण से पार हो गये !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 20 अंक 240

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अब वैज्ञानिक भी मान रहे हैं सिजेरियन डिलीवरी खतरनाक


विश्वमानव के सच्चे हितैषी पूज्य संत श्री आशारामजी बापू वर्षों से सत्संग में कहते आ रहे हैं कि ऑपरेशन द्वारा प्रसूति माँ और बच्चा दोनों के लिए हानिकारक है। अतः प्रसूति प्राकृतिक रूप से ही होनी चाहिए।

कई प्रयोगों के पश्चात विज्ञान भी आज इस तथ्य को मानने के लिए बाध्य हो गया है कि प्राकृतिक प्रसूति ही माँ एवं बच्चे के लिए लाभप्रद है। जापानी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोध से यह सिद्ध हुआ है कि प्रसूति के समय स्रावितच होने वाले 95% योनिगत द्रव्य हितकर जीवाणुओं से युक्त होते हैं, जो सामान्य प्रसूति में शिशु के शरीर में प्रविष्ट होकर उसकी रोगप्रतिकारक शक्ति और पाचनशक्ति को बढ़ाते हैं। इससे दमा, एलर्जी, श्वसन-संबंधी रोगों का खतरा काफी कम हो जाता है, जबकि ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चे अस्पताल के हानिकारक जीवाणुओं से प्रभावित हो जाते हैं।

स्विट्जरलैंड के डॉ. केरोलिन रोदुइत ने 2917 बच्चों का अध्ययन करके पाया कि उनमें से 247 बच्चे जो कि सिजेरियन से जन्मे थे, उनमें से 12 % बच्चों को 8 साल की उम्र तक में दमे का रोग हुआ और उपचार कराना पड़ा। इसका कारण यह था कि उनकी रोगप्रतिकारक शक्ति प्राकृतिक रूप से जन्म लेने वाले बच्चों की अपेक्षा कम होती है, जिससे उनमें दमे का रोग होने की सम्भावना 80 % बढ़ जाती है। प्राकृतिक प्रसूति में गर्भाशय के संकोचन से शिशु के फेफड़ों और छाती में संचित प्रवाही द्रव्य मुँह के द्वारा बाहर निकल जाता है, जो सिजेरियन में नहीं हो सकता। इससे शिशु के फेफड़ों को भारी हानि होती है, जो आगे चलकर दमे जैसे रोगों का कारण बनती है।

ऑपरेशन से पैदा हुए बच्चों में मधुमेह (Diabetes) होने की सम्भावना 20 % अधिक रहती है।

सिजेरियन के बाद अगले गर्भधारण में गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क एवं मेरूरज्जु (Spinal Cord) में विकृति तथा वजन कम होने का भय रहता है। सिजेरियन डिलीवरी से माँ को होने वाली सम्भावित हानियाँ-

ʹमिन्कोफ्फ एवं चेर्वेनाक 2003ʹ की रिपोर्ट के अनुसार सिजेरियन के समय मृत्यु का भय अधिक होता है।

सामान्य प्रसूति की अपेक्षा सिजेरियन के समय माता की मृत्यु की सम्भावना 26 गुऩी अधिक रहती है।

सिजेरियन के बाद अत्यधिक रक्तस्राव तथा चीरे के स्थान पर दर्द जो 6 महीनों तक भी रह सकता है।

गर्भाशय व मूत्राशय के बीच चिपकाव (Adhesions) अथवा आँतों में अवरोध, जिससे पेट में स्थायी दर्द का प्रादुर्भाव।

अगला प्रसव पुनः ऑपरेशन से होने की सम्भावना। उसमें अत्यधिक रक्तस्राव व गर्भाशय-भेदन (rupture) का डर।

गर्भाशय की दुर्बलता व गर्भधारण क्षमता (fertility) का ह्रास।

भविष्य में गर्भाशयोच्छेदन (hysterectomy) तथा चीरे के स्थान पर हर्निया का खतरा।

ʹविश्व स्वास्थ्य संगठनʹ की 2012 रिपोर्ट के अनुसार भारत में सिजेरियन डिलीवरी की दर बढ़कर 9 % हो गयी है। खोजबीन करने पर ʹविश्व स्वास्थ्य संगठनʹ को यह कड़वा सच भी हाथ लगा कि ʹबहुत से मामलों में अस्पतालों द्वारा पैसे कमाने के लालच में ऑपरेशन द्वारा प्रसूति करवायी गयी।ʹ अतः लालच के लिए ऐसा करने वाले अस्पतालों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही होनी चाहिए, ऐसी माँग देश की जनता में जोर पकड़ रही है। जो माताएँ प्रसूति के दर्द के भय से एवं भावी खतरों से अनजान होने के कारण इसका तुरंत वरण कर लेती हैं, उन्हें अब विश्व के प्रख्यात वैज्ञानिक एवं मूर्धन्य आधुनिक चिकित्सक स्वयं ही चेतावनी दे रहे हैं कि अपनी व संतान की रक्षा के लिए सावधान हो जायें। सिजेरियन नहीं प्राकृतिक प्रसूति से बच्चे को जन्म दें।

ʹसामान्य प्रसूति में यदि कहीं बाधा जैसे लगेग तो 10-12 ग्राम देशी गाय के गोबर का ताजा रस निकालें, गुरु मंत्र का जप करके अथवा ʹनारायण-नारायण….ʹ जप करके गर्भवती महिला को पिला दें। एक घंटे में प्रसूति नहीं हो तो वापस पिला दें। सहजता से प्रसूति होगी। अगर प्रसव पीड़ा समय पर शुरु नहीं हो रही हो तो गर्भिणी ʹजम्भला….. जम्भला….ʹ मंत्र का जप करे और पीड़ा शुरु होने पर उसे गोबर का रस पिलायें तो सुखपूर्वक प्रसव होगा।”

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 240

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