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हिन्दुओ ! संगठित होकर अपने धर्म की रक्षा करो


महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी

केवल व्यवसायिक उन्नति से ही किसी देश की जनता का सुख तथा समृद्धि सुरक्षित नहीं रह सकती। आचार की उन्नति करना आर्थिक उन्नति से कहीं अधिक महत्त्व रखता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने धर्म को अपनाता है। हिन्दुओं को इससे विचलित नहीं होना चाहिए।

समस्त संसार में हिन्दुओं की ही एक ऐसी जाति है, जिसने धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया है। यही जाति पृथ्वी पर ऐसी रह गयी है जो वेद-शास्त्रों पर अगाध श्रद्धा रखती है। यही एक जाति है जो न केवल आत्मा की अमरता पर विश्वास रखती है बल्कि अनेकता में एकता को भी प्रत्यक्ष देखती है। ये ऐसे तत्त्व हैं जिन्हें आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों समस्त विश्व अपनाना चाहेगा, इनकी आवश्यकता का अनुभव करेगा, एक दिन उसे अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होना पड़ेगा। उस समय यही हिन्दू जाति उसे मार्ग दिखलायेगी। यदि नहीं मिट गयी तो क्या होगा ? मानव-जाति को फिर ʹक… ख… ग….ʹ प्रारम्भ करना होगा।

लोग इसका खंडन करते हैं बिना समझे-बूझे ही, वे इसके शास्त्रों का मजाक उड़ाते हैं बिना ऩकी गहराई का अंदाजा किये हुए ही। वे इसकी उपेक्षा करते हैं, बिना भली-भाँति इसका अध्ययन किये हुए ही। आज तक किस विदेशी ने इसके मर्म को पहचाना है ? किसने इसका परिपूर्ण अवगाहन किया है ? यह तो विश्व का कर्तव्य है कि इस जाति की रक्षा करे।

अरे, हिन्दुत्व का परित्याग करके  भारतीय राष्ट्रीयता जीवित नहीं रह सकती। राष्ट्रीयता का आधार सुरक्षित रहना चाहिए। यहाँ न तो संकरता अभीष्ट है और न दुर्बलता क्योंकि आदर्श की प्रतिष्ठा उसके द्वारा हो होती है।

उत्तमः सर्वधर्माणां हिन्दू धर्मोयमुच्यते।

रक्ष्यः प्रचारणीयश्च सर्वलोकहितैषिभिः।।

ʹसब धर्मों में हिन्दू धर्म उत्तम कहा गया है। सब हितैषी लोगों के द्वारा इसकी रक्षा की जानी चाहिए, इसका प्रचार किया जाना चाहिए।ʹ

हिन्दू धर्म की शिक्षा क्या है ? यह धर्म हमें औरों के मतों का मान करना सिखलाता है, सहनशील होना बतलाता है। यह किसी पर आक्रमण करने की शिक्षा नहीं देता पर साथ ही यह आदेश भी देता है कि यदि तुम्हारे धर्म पर कोई आक्रमण करे तो धर्म की रक्षा के लिए प्राण तक न्योछावर करने में संकोच न करो।

पीपल के वृक्ष की तरह इस हिन्दू धर्म की जड़ें बहुत गहरी और दूर तक फैली हुई हैं। ऋषियों के तपोबल तथा केवल वायु एवं जल के आहार पर की गयी तपस्या ने इसकी रक्षा की और इसलिए यह कल्पलता आज भी हरी है। उन्हीं की तपस्या के कारण हिन्दू जाति आज भी जीवित है। अनगिनत जातियाँ यहाँ आयीं, हजारों हमले हुए परंतु परमात्मा की कृपा से हिन्दू धर्म आज भी जीवित है।

आपको हिन्दू शक्ति को जगाना है जिससे आप पर हाथ न उठाये, उस शक्ति को जगाना है कि जिससे आप पृथ्वी पर ऊँचा माथा करके इज्जत के साथ चल सकें। इसलिए हिन्दू संगठन की आवश्यकता है। जो माई के सच्चे सपूत हैं, जो सोच सकते हैं, जिनका दिमाग अच्छा है, वे एक हों, संगठित हों।

कौन नहीं जानता कि हिन्दू धर्म संसार के सब धर्मों में उद्धार हैं। इतनी उदारता और किसी धर्म में है ? किसी धर्म में भूतमात्र की चिंता कि विधान है ? लोग क्यों उन्हें अहिन्दू बनाने पर तुले हैं ? हिन्दुओ अपने धर्म की रक्षा करो। आपत्काल पर विचार करो और समय की प्रगति पर ध्यान दो।

संसार में हिन्दू जाति का दूसरा कोई देश नहीं है। अन्य जातियों के लिए तो दूसरे देश भी हैं पर हिन्दुओं के लिए केवल हिन्दुस्तान है। उनके लिए यही सर्वस्व है। यही उनकी मूर्तियों और मंदिरों का स्थान है। अतः इस देश में सुख शांति स्थापित करने का दायित्व उन्हीं का है।

(ʹमालवीय जी के सपनों का भारतʹ से संकलित)

स्रोतऋ ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 18,17 अंक 245

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संस्कार ही सही और गलत राह पर ले जाते हैं – पूज्य बापू जी


जीवन में सावधानी नहीं है तो जिससे सुख मिलेगा उसके प्रति राग हो जायेगा और जिससे दुःख मिलेगा उसके प्रति द्वेष हो जायेगा। इससे इससे अनजाने में ही चित्त में संस्कार जमा होते जायेंगे एवं वे ही संस्कार जन्म मरण का कारण बन जायेंगे।

ʹयहाँ सुख होगाʹ ऐसी जब अंतःकरण में संस्कार की धारा चलती है तो ज्ञान तुमको उस कार्य में प्रवृत्त करता है। ʹयहाँ दुःख होगाʹ ऐसी धारा होती है तो वहाँ से तुम निवृत्त होते हो। ज्ञान ही प्रवर्त्तक है, ज्ञान ही निर्वतक है। वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियाँ ये सुख और दुःख के ऊपरी साधन हैं लेकिन सुख-दुःख के ऊपरी-ऊपरी साधन हैं लेकिन सुख-दुःख का मूल कहाँ हैं इसका अगर ज्ञान हो जाये तो तुम शुद्ध ज्ञान में पहुँच जाओगे। प्रवृत्ति व निवृत्ति का ज्ञान मूल में तो आता है चैतन्य से लेकिन तुम्हारे संस्कारों की भूलों से वह ज्ञान ले ले के इधर-उधर भटक के तुम पूरा कर देते हो। अगर ज्ञानस्वरूप ईश्वर के मूल में जाने की कुछ बुद्धि सूझ जाय, भूख जग जाय तो सारे सुखों का मूल अपना आत्मदेव है – परमेश्वर। जब अपने ही घर में खुदाई है, काबा का सिजदा कौन करे ! काशी में कौन जाय !

दो व्यक्ति लड़ रहे हैं। क्यों लड़ रहे हैं ? एक को है कि ʹयह मेरा कुछ ले जायेगा।ʹ दूसरे को है कि ʹछीन लो।ʹ तो भय लड़ रहा है, लोग लड़ रहा है लेकिन ज्ञान दोनों में है। ज्ञानस्वरूप चेतन तो है लेकिन भय के संस्कार और लोभ के संस्कार लड़ा रहे हैं। ऐसे ही राग के संस्कार और द्वेष के संस्कार भी लड़ा रहे हैं।

राक्षसों को रावण के प्रति राग है और हनुमानजी के प्रति द्वेष है तो वे राम जी के विरूद्ध लड़ाई करेंगे और हनुमानजी व बंदरों को राम जी के प्रति प्रेम है और राक्षसों के प्रति नाराजगी है तो वे राक्षसों से लड़ेंगे लेकिन लड़ने की सत्ता, ज्ञान तो वही का वही है। गीजर में तार गयो तो पानी गरम होगा और फ्रिज में गया तो ठंडा लेकिन विद्युत वही का वही। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म। वह सत्स्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अन्त न होने वाला है, मरने के बाद भी ज्ञानस्वरूप आत्मदेश का अंत नहीं होता।

किसी के कर्म सात्त्विक होते हैं तो उसके संस्कार वैसे होंगे। जैसे – तुम्हारे कर्म सात्त्विक है तो सत्संग में आऩे का संस्कार, ज्ञान तुम्हें यहाँ ले आया। अगर शराबी-कबाबी होता तो बोलताः ʹरविवार का दिन है, चलो भाई ! शराबखाने में जायेंगेʹ, पिक्चरबाज होता तो थियेटर में ले जाता। तो ज्ञान के आधार से संस्कार तुम्हें यहाँ-वहाँ ले जा रहे हैं।

तो कोई चीज बुरी और भली कैसे ? कि संस्कारों के अनुसार। मेरे सामने कोई तुलसी डाली हुई कुछ सात्त्विक चीज-वस्तु-प्रसाद ले आता है तो मैं कहता हूँ- ʹचलो भाई ! थोड़ा रखो, थोड़ा ले जाओʹ लेकिन यदि कोई मांस, मदिरा, अंडा आदि ले आयेगा तो मैं कहूँगा- ʹए… बेवकूफ है क्या ? यह क्या ले आया !ʹ लेकिन वही चीज शराबी-कबाबी के पास ले जाओ तो बोलेगाः ʹयार ! उस्ताद !! आज तो सुभान-अल्लाह है।ʹ और मेरा प्रसाद ले जाओगे तो बोलेगाः ʹअरे छोड़ ! बाबा लोगों की क्या बात करता है, यह आमलेट पड़ा है, मैं मौज मार रहा हूँ।ʹ

तो उसके तामस, नीच संस्कार हैं तो उसका ज्ञान नीचा हो जाता है। यदि मध्यम संस्कार हैं तो उसका ज्ञान मध्यम हो जाता है और उत्तम संस्कार हैं तो उसका ज्ञान उत्तम हो जाता है। यदि भगवदीय संस्कार हैं तो उसका ज्ञान भगवन्मय हो जाता है और ब्रह्मज्ञान के संस्कार हैं तो उसका ज्ञान अपने मूल स्वभाव को जानकर उसे मुक्तात्मा, महान आत्मा बना देता है, साक्षात्कार करा देता है।

जो कुछ परिवर्तन और प्राप्ति है वह मनुष्य-जीवन में ही है। जो किसी विघ्न-बाधा के आने पर सोचता हैः ʹयहाँ से चला जाऊँ, भाग जाऊँ….ʹ, वह आदमी अपने जीवन में कुछ नहीं कर सकता। वह कायर है, कायर ! हतभागी है। मन्दाः सुमन्दमतयाः। वे ही हलके संस्कार अगर आगे आते हैं तो हल्का प्रकाश होता है। जैसे बरसात तो वही-की-वही लेकिन कीचड़ में पड़ती है तो दलदल हो जाती है, सड़क पर पड़ती है तो डीजल और गोबर के दाग धोती है, खेत में पड़ती है तो धान हो जाता है और स्वाती नक्षत्र के दिनों में सीप में पड़ती है तो मोती हो जाती है। पानी तो वही का वही लेकिन सम्पर्क कैसा होता है ? जैसा सम्पर्क वैसा लाभ होता है। ऐसे ही ज्ञान तो वही-का-वही लेकिन संस्कार कैसे हैं ? संस्कार अगर दिव्य होते जायें तो ज्ञान की दिव्यता का फायदा मिलेगा। संस्कार दिव्य कैसे होते हैं ?

दुनियादारी में तो दिव्य संस्कार आते ही नहीं हैं। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभवाले ही संस्कार आते हैं। तो बोलेः ʹध्यान भजन करें।ʹ

ध्यान-भजन दुनियादारी से तो अच्छा है, इससे बुद्धि तो अच्छी होती है लेकिन इससे भी ऊँची बात है सत्संग।

तन सुखाय पिंजर कियो, धरे रैन दिन ध्यान।

ध्यान अच्छा तो है, दिन-रात कोई ध्यान कर ले लेकिन-

तुलसी मिटे न वासना, बिना विचारे ज्ञान।

वासना इधर-उधर भटकती है। एकाग्र होने के बाद भी संकल्प करके आदमी दिव्य लोकों में और दिव्य भोगों में उलझ सकता है, इसीलिए उसको सत्संग चाहिए और सत्संग से ज्ञान के दिव्य संस्कार जागृत होते हैं। इसलिए बोलते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लब सतसंग।।

अर्थात् स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये तो भी वे सब मिलकर दूसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षणमात्र के सत्संग से मिलता है। (श्रीरामचरित. सुं.कां.-4)

सो जानब सतसंग प्रभाऊ।

लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 245

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मंत्रजप से शुद्ध होते हैं जन्मकुण्डली के बारह स्थान – पूज्य बापू जी


शास्त्रों में जन्मकुण्डली के बारह स्थान बताये गये हैं। एक करोड़ जप पूरा होने पर उनमें से प्रथम स्थान-तनु स्थान शुद्ध होने लगता है। रजो-तमोगुण शांत होकर रोगबीजों व जन्म-मरण के बीजों का नाश होता है तथा शुभ स्वप्न आने लगते हैं। संतों, देवताओं व भगवान के दर्शन होने लगते हैं। कभी कम्पन होने लगेगा, कभी हास्य आने लगेगा, कभी नृत्य उभरेगा, कभी आप सोच नहीं सकते ऐसे-ऐसे रहस्य प्रकट होंगे। निगुरों के आगे इन रहस्यों को प्रकट नहीं करना चाहिए। रात को सोते समय कंठ में गुरु जी के साथ तादात्म्य करके सो गये तो गुरु शिष्य का संबंध जुड़ जाता है। श्रद्धा तीव्र है तो संबंध जल्दी जुड़ता है अन्यथा दो तीन महीने में जुड़ जाता है। स्वप्न में गुरु अथवा संत के दर्शन होने लगें तो समझो एक करोड़ जप का फल फलित हो गया।

अगर दो करोड़ जप हुआ तो कुंडली का दूसरा स्थान-कुटुम्ब स्थान शुद्ध व प्रभावशाली हो जाता है। धन की प्राप्ति होगी, कुटुम्ब का वियोग नहीं होगा। समता ,शांति व माधुर्य स्वाभाविक हो जायेगा। कुटुम्ब स्थान शुद्ध होने पर नौकरी व धनप्राप्ति के लिए भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जैसे व्यक्ति की छाया उसके पीछे चलती है, ऐसे ही धन और यश उसका दास होकर उसके पीछे चलेंगे।

तीन करोड़ जप  की संख्या पूरी होने पर जन्मकुण्डली का तीसरा स्थान या सहज स्थान शुद्ध हो जाता है, जाग जाता है। असाध्य कार्य आपके लिए साध्य हो जाता है। लोग आपको प्रेम करने लगेंगे, स्नेह करने लगेंगे। आपकी उपस्थितिमात्र से लोगों की प्रेमावृत्ति छलकने लगेगी।

अगर चार करोड़ जप हो जाता है तो चौथा स्थान – सुख स्थान, मित्र स्थान शुद्ध हो जाता है। शरीर और मन के आघात नहीं के बराबर हो जायेंगे। मानसिक उपद्रव की घटनाएँ होंगी लेकिन आपका मन उन सबसे निर्लेप रहेगा। डरने की बात नहीं है कि चार करोड़ जप कब पूरा होगा। साधारण जगह पर जप की अपेक्षा तुलसी की क्यारी के नजदीक एक जब दस जप के बराब होता है। देवालय अथवा आश्रम में प्राणायाम करके किया गया एक जप सौ गुना ज्यादा फल देता है। ब्रह्मवेत्ता गुरु के आगे किया एक जप हजारों गुना फल देता है। संयम, श्रद्धा, एकाग्रता व तत्परता जितने अंशों में मजबूत होंगे, जप उतना ज्यादा प्रभावी होगा। सोमवती अमावस्या और ऐसी मंगलमय तिथियों के दिनों में जप का फल 10 हजार गुना हो जाता है। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण में लाख गुना हो जाता है। दुष्कर्मों का त्याग करके किये गये जप का फल अनंत गुना हो जाता है।

पाँच करोड़ जप पूरा होने पर पाँचवाँ स्थान-पुत्र स्थान शुद्ध हो जायेगा। अपुत्रवान को पुत्र हो जायेगा। अपुत्रवान को आप पुत्र देने की युक्ति सिद्ध कर लेंगे।

छः करोड़ जप पूरा होने पर छठा स्थान-रिपु स्थान शुद्ध हो जायेगा। कोई आपसे शत्रुता नहीं रख सकेगा। किसी  ने शत्रुता की तो प्रकृति उसको दंडित करेगी। शत्रु वे रोग से आपको निपटना नहीं पड़ेगा, जप की शक्ति उससे निपटेगी।

सात करोड़ जप पूरा होने पर आपकी जन्मकुण्डली का सातवाँ स्थान-स्त्री स्थान शुद्ध हो जाता है। आपकी शादी नहीं हो रही है तो शादी हो जायेगी। दूसरे की शादी नहीं हो रही है तो उसके लिए आपकी दुआ भी काम करने लगेगी। दाम्पत्य सुख अनुकूल होगा। आपके सभी रिश्तेदार, पत्नी, बच्चे, ससुराल पक्ष के लोग आपसे  प्रसन्न रहने लगेंगे। आपको किसी को रिझाना नहीं पड़ेगा, सभी आपको रिझाने का मौका खोजते फिरेंगे। भगवद्-जप से आप इतने पावन होने लगेंगे ! फिर निर्णय क्यों नहीं करते कि ʹमैं दो करोड़ की संख्या पूरी करूँगा।ʹ तीन, चार, पाँच करोड़…. जितने का भी हो ठान लो बस।

अगर आठ करोड़ जप हो गया तो आठवाँ स्थान – मृत्यु स्थान शुद्ध हो जायेगा। फिर आपकी चाहे गाड़ियों, मोटरों अथवा जहाज या हेलिकाप्टर से भयंकर दुर्घटना ही क्यों न हो लेकिन आपकी अकाल मृत्यु नहीं हो सकती है। मृत्यु के दिन ही मृत्यु होगी, उसके पहले नहीं हो सकती। चाहे आप गौरांग की नाई उछलते हुए दरियाई तूफान की लहरों में प्रेम से कूद जायें तो भी आपका बाल बाँका नहीं होगा।

आनंदमयी माँ बीच नर्मदा में नाव से कूद पड़ीं, तैरना नहीं जानती थी फिर भी हयात रहीं। लाल जी महाराज नर्मदा की बाढ़ में आ गये, वे तैरना नहीं जानते थे फिर भी उनकी जप-सत्ता ने मानो उनको पकड़ के किनारे कर दिया। मैंने ऐसे कई जप के धनियों को देखा भी है, शास्त्रों में पढ़ा-सुना भी है।

अगर नौ करोड़ जप  हो जाये तो मंत्र के देवता जप करते ही आपके सामने प्रकट हो जायेंगे, वार्तालाप करेंगे। समर्थ रामदास के आगे सीताराम प्रकट हो जाते थे, तुकारामजी के आगे रूकोबा विट्ठल (राधा कृष्ण) प्रकट हो जाते थे, लाल जी महाराज के सामने उनके इष्टदेव मंत्र जपते ही प्रकट हो जाते थे।

अगर दस करोड़ जप की संख्या पूरी कर ली तो जन्मकुंडली का दसवाँ स्थान-कर्म स्थान, पितृ स्थान शुद्ध हो जायेगा। दुष्कर्मों का नाश होगा और आपके सभी कर्म सत्कर्म हो जायेंगे। श्रीकृष्ण का युद्ध भी सत्कर्म हो जाता है, हनुमानजी का लंका जलाना भी सत्कर्म हो जाता है।

राम लखन जानकी, जय बोलो हनुमान की।

लंका जलायी तो कितने जल गये होंगे ! लेकिन हनुमान जी को दोष नहीं लगा।

अगर ग्यारह करोड़ जप हो गया तो ग्यारहवाँ स्थान-लाभ स्थान शुद्ध होता है। धन, घर, भूमि के तो लाभ सहज में होते जायेंगे। सत्त्वात्संजायते ज्ञानम्…. परमात्म-ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा।

अगर बारह करोड़ जप हो जाता है तो क्या कहना ! आपका बारहवाँ स्थान – व्यय स्थान शुद्ध हो जाता है। वह इतना शुद्ध हो जाता है कि अनावश्यक व्यय बंद हो जायेंगा। रज-तम पूर्णत शांत हो जायेंगे। सत्त्वगुण की जो सिद्धि है दर्शन-अदर्शन, वह प्राप्त हो जायेगी। मेरे सामने ऐसा हुआ था। मेरे सामने जा रहे थे संत। जैसे ही मैं देखने को दौड़ा तो उसी समय वे अदृश्य हो गये।

जिन्हें हरिभक्ति प्यारी हो,

माता-पिता सहजे छुटे संतान अरू नारी।

माता-पिता और पति-पत्नी की मोह-ममता छूट जाती है और उनमें भी भगवद् भाव आने लगता है। जिसको भगवद् भक्ति का रंग लगता है, उसका नजरिया बदल जाता है। विकारी नजरिये की जगह भगवद् नजरिया आ जाता है। ममता की जगह पर भगवान आ जाते हैं। मोह, स्वार्थ और विकार की जगह पर स्नेह और सच्चिदानंद छलकने लगता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 245

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