चिदानंदमय देह तुम्हारी… – पूज्य बापू जी

चिदानंदमय देह तुम्हारी… – पूज्य बापू जी


एक भोला-भाला आदमी संत-महापुरुष के पास जाकर बोलाः “मुझे गुरु बना दो।”

गुरुजीः “बेटा ! पहले शिष्य तो बन !”

“शिष्य-विष्य नहीं बनना, मुझे गुरु बनाओ। तुम जो भी कहोगे, वह सब करूँगा।”

गुरुजी ने देखा कि यह आज्ञा पालने की तो बात करता है। बोलेः “बेटा ! मैं तेरे को कैसा लगता हूँ ?”

वह लड़का गाय-भैंस चराता था, गडरिया था। बोलाः “बापजी ! आपके तो बड़े-बड़े बाल हैं, बड़ी-बड़ी जटाएँ हैं। आप तो मुझे ढोर (पशु) जैसे लगते हो।”

बाबा ने देखा, निर्दोष-हृदय तो हैं पर ढोर चराते-चराते इसकी ढोर बुद्धि हो गयी है। बोलेः “जाओ, तीर्थयात्रा करो, भिक्षा माँग के खाओ। कहीं तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना।”

ऐसा करते-करते सालभर के बाद गुरुपूनम को आया। गुरु जीः “बेटा ! कैसा लगता हूँ ?”

बोलेः “आप तो बहुत अच्छे आदमी लग रहे हो।”

बाबा समझ गये कि अभी यह अच्छा आदमी हुआ है इसीलिए मैं इसे अच्छा आदमी दिख रहा हूँ। सालभर का और नियम दे दिया। फिर आया।

गुरुजीः “अब कैसा लगता हूँ ?”

“बाबाजी ! आप ढोर जैसे लगते हो, आप अच्छे आदमी हो, यह मेरी बेवकूफी थी। आप तो देवपुरुष हो, देवपुरुष !”

बाबा ने देखा, इसमें सात्त्विकता आयी है, देवत्त्व आया है। बाबा ने अब मंत्र दिया। बोलेः “इतना जप करना।”

जप करते-करते उसका अंतःकरण और शुद्ध हुआ, और एकाग्रता हुई। कुछ शास्त्र पढ़ने को गुरु जी ने आदेश दिया। घूमता-घामता, तपस्या, साधन-भजन करता-करता सालभर के बाद आया।

गुरु जी ने पूछाः “बेटा ! अब मैं कैसा लग रहा हूँ ?”

“गुरु जी ! आप ढोर जैसे लगते हैं – यह मेरी नालायकी थी। आप अच्छे इन्सान हैं – यह भी मेरी मंद मति थी। आप देवता हैं – यह भी मेरी अल्प बुद्धि थी। देवता तो पुण्य का फल भोगकर नीचे आ रहे हैं और आप तो दूसरों के भी पाप-ताप काटकर उनको भगवान से मिला रहे हैं। आप तो भगवान जैसे हैं।”

गुरु ने देखा, अभी इसका भाव भगवदाकार हुआ है। बोलेः “ठीक है। बेटा ! ले, यह वेदान्त का शास्त्र। भगवान किसे कहते हैं और जीव किसको कहते हैं, यह पढ़ो। जहाँ ऐसा ज्ञान मिले वहीं रहना और इस ज्ञान का अनुसंधान करना।”

वह उसी ज्ञान का अनुसंधान करता लेकिन ज्ञान का अनुसंधान करते-करते आँखें, मन इधर-उधर जाते तो गुरुमूर्ति को याद करता। गुरुमूर्ति को याद करते-करते गुरु तत्त्व के साथ तादात्म्य होता और गुरु-तत्त्व के साथ तादात्म्य करते-करते सारे देवी-देवताओं का जो सारस्वरूप है – गुरु तत्त्व, उसमें उसकी स्थिति होने लगी। आया गुरुपूनम को।

गुरु ने कहाः “बेटा ! मैं कैसा लगता हूँ ?”

अब उसकी आँखें बोल रही हैं, वाणी उठती नहीं। पर गुरु जी को जवाब तो देना है, बोलाः “गुरु जी ! आप पशु लग रहे थे, यह मेरी दुष्ट दृष्टि थी। अच्छे मनुष्य, देवता या भगवान लग रहे थे, यह सारी मेरी अल्प मति थी। आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं और आप कर्मबंधन को काटते हैं। देवता राजी हो जाता है तो स्वर्ग देता है, भगवान प्रसन्न हो जायें तो वैकुंठ देते हैं लेकिन आप प्रसन्न हो जाते हैं तो अपने आत्मस्वरूप का दान करते हैं। जीव जिससे जीव है, ईश्वर जिससे ईश्वर है, उस परब्रह्म-परमात्मा का स्पर्श और अनुभव कराने वाले आप तो साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं।”

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

साक्षात् अठखेलियाँ करता जो निर्गुण-निराकार परब्रह्म है, वही तुम सगुण-साकार रूप लेकर आये हो मेरे कल्याण के लिए।

इसी प्रकार भागवत में आता है कि जब रहूगण राजा से जड़भरत की भेंट हुई तो उसने जड़भरत को पहले डाँटा, अपमानित किया पर बाद में जब पता चला कि ये कोई महापुरुष हैं तो रहूगण राजा उनको प्रणाम करता है। तब जड़भरत ने बतायाः अहं पुरा भरतो नाम राजा….अजनाभ खंड का नाम जिसके नाम से ʹभारतवर्षʹ पड़ा, वह मैं भरत था। मैं तपस्या करके तपस्वी तो हो गया लेकिन तत्त्वज्ञानी सदगुरु का सान्निध्य और आत्मज्ञआन न होने से हिरण के चिंतन में फँसकर हिरण बन गया और हिरण में से अभी ब्राह्मण-पुत्र जड़भरत हुआ हूँ।” इतना सुनने के बाद भी रहूगण कहता हैः “महाराज ! आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही आपने लीला की है।” वह यह नहीं कहता कि ʹहिरण में से अभी साधु बने हो। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।ʹ नहीं, आप साक्षात परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही हिरण बनने की और ये जड़भरत बनने की आपकी लीला है।ʹ ऐसी दृढ़ श्रद्धा हुई तब उसको ज्ञान भी तो हो गया !

गुरु को पाना यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना यह परम सौभाग्य है। कभी-कभी तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा। उड़िया बाबा कहते हैं- “गुरु को शरीर मानना श्रद्धा डगमग कर देगा।” गुरु का शरीर तो दिखेगा लेकिन ʹशरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैंʹ – इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तभी श्रद्धा टिकेगी व ज्ञान की प्राप्ति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 246

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