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छिपा परमेश्वर


गुरु सत्य है। गुरु पूर्ण हैं। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं। उनके बारे  में कहा गया हैः

मनुष्यदेहमास्थाय छन्नास्ते परमेश्वरः।

ʹखुद परमेश्वर ही गुरुरूप मनुष्य देह धारण करके छिपकर रहता है।ʹ

गुरु की यह व्याख्या है – ʹजो शक्तिपात द्वारा अंतर्शक्ति को जगाते हैं, मनुष्य शरीर में परमेश्वरीय शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा, ज्ञान की मस्ती, भक्ति का प्रेम, कर्म में निष्कामता और जीते-जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे ही राम, शक्ति, गणपति और वे गुरु ही माता-पिता हैं।ʹ

ऐसे गुरु का कितना उपकार, कितना अनुग्रह, कितनी दया है ! ऐसे गुरु समान कौन मित्र, कौन प्रेमी, कौन माँ और कौन देवता है ? जिन गुरु ने आपके कुल, जाति, कर्म-अकर्म, गुण-दोष आदि देखे बगैर आपको अपना लिया, उन गुरु की महिमा कौन गा सकता है ! श्रीगुरु में जिसकी प्रह्लाद जैसी दृढ़ आस्तिक बुद्धि होती है, उसके अंदर परमेश्वर का प्रकट होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

तुम डरो मत ! निर्भय होकर गुरु का आश्रय हो। गुरु पर भरोसा रखो। एक आशा, एक विश्वास, एक बल श्रीगुरु का लेकर रहो। गुरु में पूर्ण आत्मसमर्पण करके गुरुभाव को अपनाओ।

स्वामी श्री मुक्तानंदजी (ʹचित्तशक्ति विलासʹ से साभार)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 29, अंक 246

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चिदानंदमय देह तुम्हारी… – पूज्य बापू जी


एक भोला-भाला आदमी संत-महापुरुष के पास जाकर बोलाः “मुझे गुरु बना दो।”

गुरुजीः “बेटा ! पहले शिष्य तो बन !”

“शिष्य-विष्य नहीं बनना, मुझे गुरु बनाओ। तुम जो भी कहोगे, वह सब करूँगा।”

गुरुजी ने देखा कि यह आज्ञा पालने की तो बात करता है। बोलेः “बेटा ! मैं तेरे को कैसा लगता हूँ ?”

वह लड़का गाय-भैंस चराता था, गडरिया था। बोलाः “बापजी ! आपके तो बड़े-बड़े बाल हैं, बड़ी-बड़ी जटाएँ हैं। आप तो मुझे ढोर (पशु) जैसे लगते हो।”

बाबा ने देखा, निर्दोष-हृदय तो हैं पर ढोर चराते-चराते इसकी ढोर बुद्धि हो गयी है। बोलेः “जाओ, तीर्थयात्रा करो, भिक्षा माँग के खाओ। कहीं तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना।”

ऐसा करते-करते सालभर के बाद गुरुपूनम को आया। गुरु जीः “बेटा ! कैसा लगता हूँ ?”

बोलेः “आप तो बहुत अच्छे आदमी लग रहे हो।”

बाबा समझ गये कि अभी यह अच्छा आदमी हुआ है इसीलिए मैं इसे अच्छा आदमी दिख रहा हूँ। सालभर का और नियम दे दिया। फिर आया।

गुरुजीः “अब कैसा लगता हूँ ?”

“बाबाजी ! आप ढोर जैसे लगते हो, आप अच्छे आदमी हो, यह मेरी बेवकूफी थी। आप तो देवपुरुष हो, देवपुरुष !”

बाबा ने देखा, इसमें सात्त्विकता आयी है, देवत्त्व आया है। बाबा ने अब मंत्र दिया। बोलेः “इतना जप करना।”

जप करते-करते उसका अंतःकरण और शुद्ध हुआ, और एकाग्रता हुई। कुछ शास्त्र पढ़ने को गुरु जी ने आदेश दिया। घूमता-घामता, तपस्या, साधन-भजन करता-करता सालभर के बाद आया।

गुरु जी ने पूछाः “बेटा ! अब मैं कैसा लग रहा हूँ ?”

“गुरु जी ! आप ढोर जैसे लगते हैं – यह मेरी नालायकी थी। आप अच्छे इन्सान हैं – यह भी मेरी मंद मति थी। आप देवता हैं – यह भी मेरी अल्प बुद्धि थी। देवता तो पुण्य का फल भोगकर नीचे आ रहे हैं और आप तो दूसरों के भी पाप-ताप काटकर उनको भगवान से मिला रहे हैं। आप तो भगवान जैसे हैं।”

गुरु ने देखा, अभी इसका भाव भगवदाकार हुआ है। बोलेः “ठीक है। बेटा ! ले, यह वेदान्त का शास्त्र। भगवान किसे कहते हैं और जीव किसको कहते हैं, यह पढ़ो। जहाँ ऐसा ज्ञान मिले वहीं रहना और इस ज्ञान का अनुसंधान करना।”

वह उसी ज्ञान का अनुसंधान करता लेकिन ज्ञान का अनुसंधान करते-करते आँखें, मन इधर-उधर जाते तो गुरुमूर्ति को याद करता। गुरुमूर्ति को याद करते-करते गुरु तत्त्व के साथ तादात्म्य होता और गुरु-तत्त्व के साथ तादात्म्य करते-करते सारे देवी-देवताओं का जो सारस्वरूप है – गुरु तत्त्व, उसमें उसकी स्थिति होने लगी। आया गुरुपूनम को।

गुरु ने कहाः “बेटा ! मैं कैसा लगता हूँ ?”

अब उसकी आँखें बोल रही हैं, वाणी उठती नहीं। पर गुरु जी को जवाब तो देना है, बोलाः “गुरु जी ! आप पशु लग रहे थे, यह मेरी दुष्ट दृष्टि थी। अच्छे मनुष्य, देवता या भगवान लग रहे थे, यह सारी मेरी अल्प मति थी। आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। भगवान तो कर्मबंधन से भेजते हैं और आप कर्मबंधन को काटते हैं। देवता राजी हो जाता है तो स्वर्ग देता है, भगवान प्रसन्न हो जायें तो वैकुंठ देते हैं लेकिन आप प्रसन्न हो जाते हैं तो अपने आत्मस्वरूप का दान करते हैं। जीव जिससे जीव है, ईश्वर जिससे ईश्वर है, उस परब्रह्म-परमात्मा का स्पर्श और अनुभव कराने वाले आप तो साक्षात् परब्रह्म-परमात्मा हैं।”

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

साक्षात् अठखेलियाँ करता जो निर्गुण-निराकार परब्रह्म है, वही तुम सगुण-साकार रूप लेकर आये हो मेरे कल्याण के लिए।

इसी प्रकार भागवत में आता है कि जब रहूगण राजा से जड़भरत की भेंट हुई तो उसने जड़भरत को पहले डाँटा, अपमानित किया पर बाद में जब पता चला कि ये कोई महापुरुष हैं तो रहूगण राजा उनको प्रणाम करता है। तब जड़भरत ने बतायाः अहं पुरा भरतो नाम राजा….अजनाभ खंड का नाम जिसके नाम से ʹभारतवर्षʹ पड़ा, वह मैं भरत था। मैं तपस्या करके तपस्वी तो हो गया लेकिन तत्त्वज्ञानी सदगुरु का सान्निध्य और आत्मज्ञआन न होने से हिरण के चिंतन में फँसकर हिरण बन गया और हिरण में से अभी ब्राह्मण-पुत्र जड़भरत हुआ हूँ।” इतना सुनने के बाद भी रहूगण कहता हैः “महाराज ! आप तो साक्षात् परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही आपने लीला की है।” वह यह नहीं कहता कि ʹहिरण में से अभी साधु बने हो। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।ʹ नहीं, आप साक्षात परब्रह्म हैं। मेरे कल्याण के लिए ही हिरण बनने की और ये जड़भरत बनने की आपकी लीला है।ʹ ऐसी दृढ़ श्रद्धा हुई तब उसको ज्ञान भी तो हो गया !

गुरु को पाना यह तो सौभाग्य है लेकिन उनमें श्रद्धा टिकी रहना यह परम सौभाग्य है। कभी-कभी तो नजदीक रहने से उनमें देहाध्यास दिखेगा। उड़िया बाबा कहते हैं- “गुरु को शरीर मानना श्रद्धा डगमग कर देगा।” गुरु का शरीर तो दिखेगा लेकिन ʹशरीर होते हुए भी वे अशरीरी आत्मा हैंʹ – इस प्रकार का भाव दृढ़ होगा तभी श्रद्धा टिकेगी व ज्ञान की प्राप्ति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 246

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गुरु कौन ?


संतान दो तरह की होती है – एक बिन्दु संतान और दूसरी नाद संतान। पिता से जो पुत्र की उत्पत्ति होती है, उसको बिंदु संतान बोलते हैं, वे बिंदु से उत्पन्न होते हैं। और गुरु से जो शिष्य की उत्पत्ति होती है, उसको नाद संतान बोलते हैं, वे नाद पुत्र हैं। जब गुरु अपने शिष्य को उपदेश करते हैं कि ʹतुम कौन होʹ तो एक नया ही भाव उदय होता है। वे बताते हैं कि ʹतुम भगवानके भी आत्मा हो। तुम इस देह से अतीत, द्रष्टा हो।ʹ इस नवीन भाव की उत्पत्ति गुरु के उपदेश से होती है। जैसे आधिभौतिक जगत में माता-पिता जन्म देने वाले होते हैं, वैसे आधिदैविक और आध्यात्मिक जगत में गुरु जन्म देने वाले होते हैं। इसी से गुरु के लिए कहा गया हैः

गुरुर्ब्रह्मा…. महेश्वरः। गुरुर्साक्षात्…. श्रीगुरवे नमः।।

ब्रह्मा उसको कहते हैं जो पैदा करे। शिष्य को उत्पन्न किसने किया ? गुरु ने ही शिष्य में साधकत्व को जन्म दिया। ʹतुम अजन्मा आत्मा हो, तुम ऐसे हो,ʹ – यह संस्कार, यह भाव दिया इसलिए गुरु ब्रह्मा हैं – गुरुर्ब्रह्मा। और उऩ्हींने बारम्बार सत्संग के द्वारा, उपदेश के द्वारा पोषण किया है। विष्णु का काम पालन करना है, और गुरु ने भी पालन किया है इसलिए गुरु विष्णु हैं – गुरुर्विष्णुः। शिष्य के जीवन में जितनेत दोष-दुर्गुण हैं, उनका संहार किसने किया ? उऩको मिटाया किसने ? कि गुरु ने, इसलिए वे रूद्र हैं – गुरुर्देवो महेश्वरः। और जब स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की उपाधि को हटाकर शुद्ध आत्मा की दृष्टि से देखते हैं तो गुरुर्साक्षात् परब्रह्म ! उपनिषद में आता हैः

त्वं नः पिता स भवान् तमसः पारं पारयति।

तुम हमारे पिता हो। पिता कैसे हो ? क्योंकि तुम हमको इस घोर अंधकार (अज्ञान के अँधेरे) से पार पहुँचाते हो, इसलिए तुम हमारे पिता हो।

ʹगीताʹ में भगवान कहते हैं – महर्षिणां भृगुरहम्। जिसमें पाप गलाने की शक्ति है, जैसे सुनार सोने को जलाकर उसमें से मैल निकाल देता है, ऐसे भृगु-गुरु उसको कहते हैं। ʹभृगुʹ शब्द के अंत में जो ʹगुʹ है उसे से गुरु शब्द प्रारम्भ हुआ। और यह ʹऋʹ तो है ही ʹभृʹ में और भ् है…. ʹभृगुʹ पीछे से पढ़ो तो गु ऋ और भ। तो भृगु माने हुआ गुरुभक्त ! तो भृगु अर्थात् गुरुभक्त कौन हैं ? भगवान कहते हैं मैं हूँ- महर्षिणां भृगुरहम्। और प्रेरणा देते हैं कि तुम भी गुरु की भक्ति करो।

गुरु कौन है ? जो दुःख को जला दे – एक बात, जो पाप को जला दे – दूसरी बात, जो वासना को जला दे – तीसरी बात, जो अज्ञान को जला दे – चौथी बात और जो अज्ञानकृत सम्पूर्ण भेद-विभेद को जला दे, भस्म कर दे। यह महाराज भूनने वाले का नाम भृगु है। भर्जनात् भृगुः। जो संसार की वासना को पूरी करे सो नहीं, जो मिटावे, वह गुरु ! – स्वामी श्री अखंडानंदजी सरस्वती।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 7, अंक 246

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