Monthly Archives: November 2013

लड़की की कहानी विश्वास करने योग्य नहीं है


सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अधिवक्ता एवं न्यायविद् श्री राम जेठमलानी

संत श्री आशारामजी बापू पर किया गया केस झूठा है, लड़की को कुछ नहीं हुआ। यह असम्भव है कि उस कमरे में लड़की को कुछ हुआ हो। जैसा कि लड़की दावा कर रही है, जब उस रात 3 लड़के कमरे के बाहर बैठे थे और लड़की की माँ भी बैठी थी, उसी समय डेढ़ घंटे तक घटना घटी और माँ साथ थी, आयी थी देखने के लिए क्या हो रहा है और उसने कुछ नहीं सुना ! यह कैसे सम्भव है ?

लड़की कमरे के बाहर आयी और माँ से मिली। दोनों साथ गयीं और लड़की के पिता से मिलीं। सभी फार्म के मालिक से मिले, उनके साथ रात को खाना खाया,  सारी रात वे वहीं रूके। सुबह उनके साथ नाश्ता किया। फिर फार्म के मालिक ने (स्टेशन छोड़ने हेतु) कार की व्यवस्था की और तब तक किसी  से कोई भी शिकायत नहीं की गयी।

इन तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है कि पूज्य बापू जी सही हैं और लड़की की कहानी विश्वास करने योग्य नहीं है।

मैं न्यायालय को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि बापू जी को जमानत दी जानी चाहिए ताकि वे आगे के सबूत एकत्र कर सकें कि यह झूठा केस बनाया गया है। हमें कुछ सबूत मिले हैं पर अभी भी कुछ और सबूतों की जरूरत है क्योंकि जब मैं बापू जी के अनुयायियों से मिला तो उन्होंने खबर दी कि एफ आई आर लिखवाने से पहले लड़की और उसके माता-पिता ऐसे कुछ राजनेताओं से मिले थे जो बापू जी से शत्रुता रखते हैं।

यह केस किसी भी तरह से खत्म नहीं हुआ है और अभियुक्त का बचाव विश्वसनीय है। हमको और बापू जी के अनुयायियों को भगवान से अवश्य प्रार्थना करनी चाहिए कि अभियोक्ता इस अभियोग की मूर्खता देख सकें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 20, अंक 251

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खबर और मीडिया की बेताबी – आशुतोष


आईबीएन-7 के  मैनेजिंग एडिटर

पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जिस तरह से आशाराम बापू के मसले  पर स्टूडियो के अंदर तीन-तीन, चार-चार, पाँच-पाँच घंटे और तमाम जटा-जूटधारी बाबाओं, साइकोलोजिस्टों, सेक्सोलोजिस्टों को बुला-बुलाकर जिस तरह से चर्चा की जा रही है, क्या इस देश के अंदर सबसे बड़ी खबर यही है ? क्या सेक्स को बेचने की कोशिश नहीं की जा रही है ? क्या मीडिया, टीवी चैनल इसके लिए अभिशप्त नहीं हैं ? क्या वे भयंकर गलती नहीं कर रहे हैं ? हम मीडियावाले इसको कब तक उचित ठहराते रहेंगे ?

एक आधारहीन खबर कई दिनों तक क्यों छायी रही ? टीवी चैनलों के बारे में तो कहा ही जाता है कि टीआरपी के लिए कुछ भी कर सकते हैं पर अखबारों ने ऐसा क्यों किया ? उन पर तो टीआरपी का दबाव नहीं होता। टीआरपी ही टीवी का सबसे बड़ा रोग है। टीआरपी से ही तय होती है कि चैनल को मिलने वाले विज्ञापन की कीमत। जितनी रेटिंग, उसी अनुपात में पैसा !

कुछ चैनलों ने खबर से तौबा ही कर ली। जितना सनसनीखेज वीडियो उतनी अधिक रेटिंग-ऐसी मान्यता बनी। जो खबर के अलावा भूत-प्रेत दिखाते थे, चैनलों ने जब खबर भी दिखायी तो उसे मदारी का  खेल बना दिया। खबर से ज्यादा खबर का ‘ट्रीटमैंट’ महत्त्वपूर्ण हो गया।

पिछले दिनों टीवी जगत में फिर प्रतिस्पर्धा अचानक बढ़ी। कुछ नये चैनल आगे निकल गये, स्थापित पीछे रह गये। खबरों में फिर भाँग पड़ने लगी। आशाराम बापू की खबर में इसका नमूना फिर दिखा। इस खबर से धर्म जुड़ा था, बाबा के लाखों अनुयायी थे। रेटिंग के भूखे टीवी एडिटर इस खबर पर मानो टूट पड़े। कुछ चैनलों ने तो सारी सीमाएँ लाँघ दीं। कुछ समय बाद बापू की खबर से थकान होने लगी और बिल्ली के भाग्य से (डोंडियाखेड़ा की खबर का) ‘खजाना’ टूट पड़ा। कुछ टीवी चैनल लपके, बाकी ने अनुसरण किया। खबर टीवी पर चली तो अखबार कहाँ पीछे रहते ? इस खबर ने उनका भी पर्दाफाश किया है। पिछले कुछ सालों से टीवी की बहुतायत ने अखबार के पत्रकारों का काम आसान कर दिया। सब कुछ जब टीवी पर उपलब्ध है तो भागदौड़ करने की क्या जरूरत ? ये पत्रकार घर बैठे रिपोर्टिंग करने लगे हैं। हालाँकि अभी भी कुछ अच्छे पत्रकार हैं, जो समाज में दिखते हैं। लेकिन ज्यादातर टीवी का ही अनुसरण करते हैं। फिर जब दस चैनल एक साथ एक खबर को चला रहे हों तो उसे गलत साबित करने की हिम्मत कितनों में होगी ? इसलिए जो कभी टीवी का मजाक उड़ाया करते थे, वे अब टीवी के आभामंडल से अभिभूत हैं। ऐसे में खबरों में फिल्टर कौन लगायेगा (कि कौन-सी सच्ची और कौन-सी झूठी) ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 31, अंक 251

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हम सब एकजुट होकर इस षडयन्त्र का सामना करें – आचार्य बालकृष्ण


हम जानते हैं कि हमारे सामने, बापू जी के सामने एक समस्या विकराल रूप में खड़ी है। निश्चित रूप से जो भारतीय संस्कृति, परम्परा के प्रति रूचि या निष्ठा रखने वाले हैं, वे समझते हैं कि सच्चाई क्या है और बापू जी के विरुद्ध में षडयन्त्र कितना है। तो हमें भी सच्चाई और षडयन्त्र को समझने का प्रयास करना चाहिए। हमारी परम्परा बहुत उदारतापूर्ण रही है और हमारी संस्कृति से जुड़े हुए सामान्य लोगों ने भी कभी किसी को न तो पीड़ा दी, न उनको सताया तो उनके जो मार्गदर्शक हैं, पथप्रदर्शक हैं उनके द्वारा किसी को पीड़ा दिया जाना – ऐसा कैसे हो सकता है ! जो साधु-संत हैं वे तो कभी भी समाज के अहित का नहीं सोचते हैं परंतु जब वे समाज का हित करते हैं तो बहुत सारे ऐसे तत्त्व हैं जिनको वह रास नहीं आता है। हमारे समाज, हिन्दू संस्कृति की परम्पराओं, मूल्यों और आदर्शों का उत्थान होता हुआ शायद वे आसुरी शक्तियाँ देखना नहीं चाहती हैं और ऐसी शक्तियाँ विभिन्न तरह के षडयन्त्र करती हैं। षडयन्त्र करने के लिए वे एक-एक संत को चुन के शरारतपूर्ण हरकतें करती हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम संगठनात्मक रूप से एक हों क्योंकि उस संगठन को भेदने की शक्ति उन दुष्प्रचारकों और आसुरी शक्तियों में कभी भी  नहीं होती। इसलिए आज समय आ गया है कि हम सभी, हमारी सनातन वैदिक हिन्दू परम्परा से जुड़ी जितनी भी संस्थाएँ और संगठन हैं, जितने भी साधु-महात्मा हैं वे सब एकजुट हों और इस तरह के जितने भी षडयन्त्र हैं, उनके विरुद्ध  ललकारने के सामर्थ्य से मैदान में उतरें तथा सुनियोजित ढंग से उनको चुनौती देते हुए दुष्प्रचार की काट करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 20, अंक 251

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