Monthly Archives: June 2014

विश्वप्रेम की जाग्रत मूर्ति हैं सदगुरुदेव – पूज्य बापू जी


 

(गुरु पूर्णिमाः 12 जुलाई 2014)

सदगुरु-महिमा

गुरु के बिना आत्मा-परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है। आत्मा परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ तो मनुष्य पशु जैसा है। खाने-पीने का ज्ञान तो कुत्ते को भी है। कीड़ी को भी पता है कि क्या खाना, क्या नहीं खाना है, किधर रहना, किधर से भाग जाना। किधर पूँछ हिलाना, किधर पूँछ दबाना यह तो कुत्ता भी जानता है लेकिन यह सब शारीरिक जीवन का ज्ञान है। जीवन जहाँ से शुरु होता है और कभी मिटता नहीं, उस जीवन का ज्ञान आत्मज्ञान है।

भगवान शिवजी ने पार्वती जी को वामदेव गुरु से मंत्रदीक्षा दिलायी, काली माता ने प्रकट होकर गदाधर पुजारी को कहा कि ‘तोतापुरी गुरु से ज्ञान लो’ और महाराष्ट्र के नामदेव महाराज को भगवान विट्ठल ने प्रकट होकर कहाः ‘विसोबा खेचर से दीक्षा लो।’ तो गुरु के ज्ञान के बिना, आत्मज्ञान के प्रकाश के बिना जीवन निर्वासनिक, निर्दुःख नहीं होता है।

सोने की लंका पा ली रावण ने लेकिन निर्वासनिक नहीं हुआ, निर्दुःख नहीं हुआ और शबरी भीलन ने केवल मतंग गुरु का सत्संग सुना और गुरुवचनों का आदर किया तो वह निर्वासनिक हो गयी। वासना ने रावण को कहीं का नहीं रखा और निर्वासनिक शबरी, राजा जनक आदि ने पूर्णता पा ली।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।

शबरी भीलन आत्मरस से ऐसी पवित्र हो गयी कि भगवान राम उसके जूठे बेर खाते हैं। मीराबाई का भोग लगता तो श्रीकृष्ण खाते हैं। भगवान की भक्ति और भगवान का ज्ञान सत्संग से जैसा मिलता है, ऐसा सोने की लंका पाने से भी नहीं मिलता। व्यासपूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा कितना दिव्य ज्ञान देती है कि हम भगवान वेदव्यास के ऋणी हैं, सदगुरु के हम आभारी हैं। जिसके जीवन में सदगुरु नहीं हैं उसका कोई सच्चा हितैषी भी नहीं है। बिना गुरु के व्यक्ति मजदूर हैं, संसार का बोझा उठा-उठा के मर जाते हैं।

कालसर्पयोग बड़ा दुःख देता है लेकिन गुरु का मानसिक पूजन व प्रदक्षिणा, गुरुध्यान, गुरुमंत्र के जप और गुरु के आदर से कालसर्पयोग का प्रभाव खत्म हो जाता है।

गुरु किसको बोलते हैं ? जो विश्वप्रेम की जाग्रत मूर्ति हैं। विश्व की किसी भी जाति का आदमी हो, किसी भी मजहब का हो सबके लिए जिनके हृदय में मंगलमय आत्मदृष्टि, अपनत्व है, वे हैं सदगुरु।

गुरुकृपा हि केवलं…..

गुरुकृपा क्या होती है ? जो संत हैं, सदगुरु हैं व मरने वाले शरीर में अनंत का दर्शन करा देंगे। जो मुर्दा शरीर है, शव है, उसमें शिव का साक्षात्कार, जो जड़ है उसमें चेतन का अनुभव करा दे उसको बोलते हैं गुरुकृपा। जैसे चन्द्रमा से चकोर तृप्ति पाता है, पानी से मछली आनंद पाती है और भगवान के दर्शन से भक्त आनंदित होते हैं, ऐसे ही सदगुरु के दर्शन से सत्संगी आनंदित, आह्लादित और ज्ञान सम्पन्न होते हैं। मेरे को अगर गुरु नहीं मिले होते तो मैंने जितनी तपस्या की उससे हजार गुना ज्यादा भी करता तो भी इतना मुझे फायदा नहीं होता जितना गुरुकृपा से हुआ। बिल्कुल सच्ची, पक्की बात है।

मैं अपने बापू जी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) की बात करता हूँ। साँईं से (मन-ही-मन) बातचीत हुई। वे पूछ रहे थेः “छा खपे ?” मतलब क्या चाहिए ? मैंने कहाः “जहिं खे खपे, तहिं खे खपायो।” मतलब जिसको चाहिए उसी को खपा दो। जो अब भी चाहने वाला है तो उसी को खपाओ। बहुत हँसे, आनंदित हो रहे थे।

आध्यात्मिक ज्ञान गुरु-परम्परा से ही मिलता है। नाथ सम्प्रदाय में पुत्र पिता कि परम्परा नहीं होती है, गुरुवंश की परम्परा होती है। गोरखनाथजी मत्स्येन्द्रनाथजी के पुत्र हैं। मत्स्येन्द्रनाथजी अपने गुरु के पुत्र हैं। दैहिक पिता की परम्परा नहीं चलती, आध्यात्मिक पिता की परम्परा चलती है। आशाराम थाऊमल नहीं चलेगा, आशाराम लीलाशाह जी। लीलाशाहजी केशवानंदजी चलेंगे। केशवानंद जी और आगे चलेंगे। ऐसे करते-करते दादू दयालजी तक परम्परा जायेगी और दादू दयाल जी से आगे जायेंगे तो ब्रह्मा जी तक, और आगे जायेंगे तो विष्णु भगवान तक। विष्णु भगवान जहाँ से पैदा हुए उस ब्रह्म तक की हमारी परम्परा है, आपकी भी वही है। देखा जाये तो आपका हमारा मूल ब्रह्म ही है।

ज्ञान की परम्परा से दीये से दीया जलता है। तोतापुरी जी के शिष्य रामकृष्ण परमहंस, रामकृष्ण से ज्ञान मिला विवेकानंदजी को। ऐसे ही अष्टावक्र मुनि हो गये, उनके शिष्य थे राजा जनक और जनक से ज्ञान मिला शुकदेवजी को। उद्दालक से आत्मसाक्षात्कार हुआ श्वेतकेतु को, भगवान सूर्य से याज्ञवल्क्य को और याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी को।

तो यह ज्ञान किताबों से नहीं मिलता, दीये से दीया जलता है। हयात महापुरुषों से ही आत्मसाक्षात्कार होता है, पुस्तक पढ़ के कोई साक्षात्कारी हो यह सम्भव नहीं है। सदगुरु के संग से बुद्धि की ग्रहणशक्ति बढ़ती है, बुराइयाँ कम होती हैं, वर्षों की थकान मिटती है।

‘वह भगवान, यह भगवान, यह मिले, वह मिले….’ अरे ! जो कभी नहीं बिछुड़ता है उस मिले मिलाये में विश्रांति सदगुरु की कृपा से ही होती है।

गुरुमंत्र का माहात्म्य

‘गुरु’ शब्द कैसा होता है पता है ?

गुरु शब्द में जो ‘ग’ कार है वह सिद्धि देने वाला है, ‘र’ कार है वह पाप को हरने वाला है और ‘उ’ कार अव्यक्त नारायण के साथ, हरि के साथ जोड़ देता है केवल गुरु बोलने से। ‘गुरु’ शब्द बहुत प्रभावशाली है और गुरुदर्शन, गुरु आशीष बहुत बहुत कल्याण करता है। भगवान का एक नाम ‘गुरु’ भी है। तो और सब ‘पूर्णिमा’ हैं लेकिन यह आषाढ़ मास की पूर्णिमा ‘गुरुपूर्णिमा’ है अर्थात् पाप, ताप, अज्ञान, अंधकार मिटानेवाली बड़ी पूर्णिमा, भगवान से मिलाने वाले पूर्णिमा और सिद्धि देने वाली पूर्णिमा है। ऐसी है गुरु पूर्णिमा। जैसे गं गं गं  जप करें तो बच्चों की पढ़ाई में सिद्धि होती है। ऐसे ही गुरु गुरु गुरु जपें तो भक्तों का मनोरथ पूरा होता है। भगवान शिवजी कहते हैं-

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धियन्ति नान्यथा।…..

‘जिसके मुख में गुरु मंत्र है उसके सब कर्म सिद्ध होते है, दूसरे के नहीं।’ जिसके जीवन में गुरु नहीं हैं उसका कोई सच्चा हित करने वाला भी नहीं है। जिसके जीवन में गुरु हैं वह चाहे बाहर से शबरी भीलन जैसा गरीब हो फिर भी सोने की लंका वाले रावण से शबरी आगे आ गयी।

गुरुपूर्णिमा का महत्त्व

ब्राह्मणों के लिए श्रावणी पूर्णिमा, क्षत्रियों के लिए दशहरे का त्यौहार, वैश्यों के लिए दीपावली का त्यौहार तथा आम आदमी के लिए होली का त्यौहार…. लेकिन गुरुपूनम का त्यौहार तो सभी मनुष्यों के लिए, देवताओं के लिए, दैत्यों के लिए-सभी के लिए है। भगवान श्रीकृष्ण भी गुरुपूनम का त्यौहार मनाते हैं, अपने गुरु के पास जाते हैं। देवता लोग भी अपने गुरु बृहस्पति का पूजन करते हैं और दैत्य लोग अपने गुरु शुक्राचार्य का पूजन करते हैं और सभी मनुष्यों के लिए गुरुपूर्णिमा का महत्त्व है। इसको व्यासपूर्णिमा भी बोलते हैं। यह मन्वंतर का प्रथम दिन है। महाभारत का सम्पन्न दिवस और विश्व के प्रथम आर्षग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ का आरम्भ दिवस है व्यासपूर्णिमा।

एटलांटिक सभ्यता, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, मिस्र, तिब्बत, चीन, जापान, मेसोपोटामिया आदि में भी गुरु का महत्त्व था, व्यासपूर्णिमा का ज्ञान, प्रचार-प्रसाक का लाभ उन लोगों को भी मिला है।

कितने भी तीर्थ करो, कितने भी देवी-देवताओं को मानो फिर भी किसी की पूजा रह जाती है लेकिन गुरुपूनम के दिन गुरुदेव की मन से पूजा की तो वर्षभऱ की पूर्णिमाएँ करने का व्रतफल मिलता है और सारे देवताओं व भगवानों की पूजा का फल मिल जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 258

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

साधना का खजाना बढ़ाने का सुवर्ण अवसरः चतुर्मास


(8 जुलाई से 4 नवम्बर 2014)

पूज्य बापू जी

चतुर्मास में भगवान नारायण शेषशैया पर योगनिद्रा में विश्रांतियोग करते हैं। इन दिनों में मकान-दुकान बनाना, शादी-विवाह और सकाम मांगलिक कार्य करना वर्जित है। चतुर्मास में पति-पत्नि का सांसारिक व्यवहार न करने का व्रत लें तो आपका बल, बुद्धि, ओज और तबीयत अच्छी रहेगी। ब्रह्मचर्य व संयम से आपकी कांति बढ़ेगी। चरित्र की साधना-सत्य बोलना, हिंसा से बचना, मन और वचन से नीच कर्मों का त्याग करना – इससे आपके चतुर्मास में साधन-भजन में खूब बढ़ोतरी होगी।

संकल्प लें कि मौन रखेंगे, जप करेंगे, ध्यान करेंगे, नीच कर्मों का त्याग करेंगे। छल-कपट, झूठ आदि जिससे भी अंतरात्मा की अधोगति हो, उससे बचेंगे और जिससे भी आत्मोन्नति हो वह करेंगे।

चतुर्मास में बेईमानी के कामों से बचें और क्षमा के सदगुण का विकास करें। इन्द्रियशक्ति बढ़ाने के लिए मन का संयम, कुसंग का त्याग करना और ॐकार की उपासना करके शांतमना होना। गुरुमूर्ति के सामने 15 से 25 मिनट रोज एकटक देखकर ॐ का दीर्घ गुंजन करना। इससे गुरुमूर्ति से गुरु प्रकट हो जायेंगे, बातचीत करेंगे, चाहोगे तो गुरुजी के साथ भगवान भी प्रगट हो जायेंगे।

हृदय को पवित्र करने के लिए परोपकार, दान, नम्रता, श्रद्धा, सर्वात्मभाव और भगवन्नाम सुमिरन है और मानसिक साधना है गीता का स्वाध्याय, रामायण का पाठ, सत्संग, आध्यात्मिक स्थान पर जाना आदि। गुरु से मानसिक वार्तालाप करने से, मानसिक जप करने से, श्वासोच्छवास के साथ जप और आत्मज्ञान का विचार करना। इन सरल साधनों से मन इतनी आसानी से पवित्र होता है कि और बड़ी-बड़ी तपस्याएँ भी इतनी तेजी से मन को पवित्र नहीं कर सकती हैं।

चतुर्मास में अपना दिल दिलबर की भक्ति से भरना यही मुख्य काम है। गाय की सेवा करना, उपयोग करना चतुर्मास में हितकारी है। सत्संग का आश्रय लेना, गुरु, देवता एवं अग्नि का का तर्पण करना तथा दीपदान आदि करना चाहिए। ‘स्कन्द पुराण’ में आता है कि ‘पुण्यात्माओं के लिए गोभक्ति, गोदान, गौसेवा हितकारी हैं, सत्पुरुषों की सेवा हितकारी है।’ चतुर्मास में पलाश की पत्तल में भोजन करना चान्द्रायण व्रत करने से बराबर है।

व्रत और उपवास अपने जीवन में छुपी हुई सुषुप्त शक्तियों को विकसित करते हैं। आरोग्य की साधना के लिए एक तो खानपान सात्त्विक और सुपाच्य हो, रजोतमोगुण वाले पदार्थों का त्याग हो, दूसरा व्रत उपवास, तीसरा आसन व प्राणायाम करे तो चतुर्मास की साधना का लाभ मिलेगा। प्राणशक्ति की साधना करनी हो तो श्वासोच्छवास की गिनती अथवा श्वास भीतर रोककर सवा या डेढ़ मिनट जप करे फिर बाहर रोक के 40-50 सैकेण्ड जप करे। इससे आपकी आरोग्य शक्ति, मानसिक शक्ति व बौद्धिक शक्ति विकसित होगी।

आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ना है तो सूर्योदय से दो घंटे पहले ब्रह्ममुहूर्त शुरु होता है तब उठो या फिर चाहे एक घंटा पहले उठो। उठने के समय भगवान का ध्यान करो कि ‘प्रातःकाल हम उस परमात्मा का ध्यान करते हैं जो अंतरात्मा में, आत्मा से स्फुरित होता है और मन, बुद्धि को चेतना देता है।’ सुबह नींद में से चटाक से मत उठो, पटाक से घड़ी मत देखो। नींद खुल गयी, आँख न खुले, थोड़ी देर पड़े रहो, ‘ॐ शांति….. प्रभु की गोद से बाहर आ रहा हूँ। मेरा मन बाहर आये उससे पहले मैं फिर से मनसहित प्रभु के चरणों में जा रहा हूँ, ॐ शांति, ॐ आनंद….’ ऐसा मन से दोहराओ। आपका हृदय बहुत पवित्र होगा। साधन बहुत सुंदर होगा। दिन में समय मिले तो कीर्तन करो। दैनंदिनी लिखो। जिससे गल्ती और पतन होता है उस बात को काटो और जिससे उन्नति होती है उधर ध्यान दो। इन्द्रियों को वश में करो, बुरी चीज को, बुरे कर्मों को करने से अपने को रोको। मन में दया, स्वभाव में मधुरता, वचनों में नम्रता-ये आपको जगत में प्रिय बना देंगे और यह संसार में जीने की कला है।

धर्म का पालन करें। ‘स्व’ है मेरा आत्मा-सच्चिदानंद, उसमें विश्रांति पायें और दूसरों के हित का काम करें। अपने धर्म के अनुरूप, अपने अधिकार के अनुरूप सेवा कर लें, झूठे झाँसे न आने दें और झूठी अपनी शेखी न बघारें। प्रसन्न रहें। नाक से लम्बा श्वास लें, भगवन्नाम जपें और मुँह से फूँक मारकर श्वास बाहर छोड़ दें, प्रसन्न रहने में सफल हो जाओगे।

भगवत्प्राप्ति जल्दी हो इसके लिए अध्यात्म-शास्त्रों का पठन और अध्यात्म चिन्तन करें, दुःख-सुख में सम रहें। दुःख आये तो ‘मैं दुःखी हूँ’ ऐसा न सोचें। ‘दुःख होता है मन को, बीमारी होती है शरीर को, चिंता होती है चित्त को, मैं तो भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं। ॐ…..ॐ…. इस प्रकार की समझ बढ़ायें।

जिसने चतुर्मास में कोई व्रत-नियम नहीं किया, मानो उसने हाथ में आया हुआ अमृत-कलश ढोलने की बेवकूफी की। जैसे किसान चतुर्मास में खेती से धन लाभ करता है, ऐसे ही आप इस चतुर्मास में भगवत्साधना करके आध्यात्मिक सुख, आध्यात्मिक ज्ञान व आध्यात्मिक सामर्थ्य का लाभ प्राप्त करो।

चतुर्मास में पुण्यदायी स्नान

एक बाल्टी में 2-3 बिल्वपत्र डालकर ‘ॐ नमः शिवाय’ जप करते हुए स्नान करें तो तीर्थों में स्नान करने का फल हो जाता है। इससे वायु प्रकोप दूर होता है, स्वास्थ्य की रक्षा होती है और आदमी दोषमुक्त, पापमुक्त होता है। थोड़े जौ और तिल मिक्सर से पीस के रख दें। इस मिश्रण से शरीर को रगड़कर स्नान करें तो यह पुण्यदायी स्नान माना जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 258

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

नौ लक्षण बनाते हैं गुरु कृपा का अधिकारी


सदगुरु की कृपा पाने के लिए शिष्य में जिन लक्षणों का होना आवश्यक है, उनका वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- “हे उद्धव ! सभी प्रकार के अभिमानों में ज्ञान का अभिमान छोड़ना बहुत कठिन है। जो उस अभिमान को छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है, वह मान-सम्मान की ओर नहीं देखता। सम्मान की इच्छा न रखना ही शिष्य का पहला लक्षण है।

‘समस्त प्राणियों में ईश्वर का वास है’ ऐसी भावना होने के कारण शिष्य के मन में द्वेष आ ही नहीं सकता। जिसने उसकी निंदा की है उसे वह हित चाहने वाली माँ के समान समझता है। यह ‘मत्सररहितता’ ही शिष्य का दूसरा लक्षण है। तीसरा लक्षण है ‘दक्षता’। आलस्य या विलम्ब मन को स्पर्श न करे इसी का नाम है दक्षता। ‘सोsहम’ भावना को दृढ़ बनाकर अहंभाव तथा ममता का त्याग ‘निर्ममता’ ही शिष्य का चौथा लक्षण है।

हे उद्धव ! शिष्य का हित साधने में गुरु ही माता है, गुरु ही पिता हैं। सगे-सम्बन्धी, बंधु और सुहृद भी गुरु ही हैं। गुरु की सेवा ही उसका नित्यकर्म है, सच्चा धर्म है, गुरु ही आत्माराम हैं। सदगुरु को ही अपना हितैषी मानना सत्शिष्य का पाँचवाँ लक्षण है।

शरीर भले ही चंचल हो जाये लेकिन उसका चित्त गुरुचरणों में ही अटल रहता है। गुरु चरणों में जो ऐसी निश्चलात रखता है, वही सच्चा परमार्थी शिष्य है। वही गुरु उपदेश से एक क्षण में परमार्थ का पात्र हो जाता है। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने पर वह भी उसी की तरह हो जाता है, उसी प्रकार निश्चल वृत्ति के साधक को गुरु प्राप्त होते ही वह तत्काल तद्रूप हो जाता है। अंतःकरण की ऐसी निश्चलता ही शिष्य का छठा लक्षण है। इसी से षट्विकारों का  विनाश होता है।

विषय का स्वार्थ छोड़कर पूर्ण तत्त्वार्थ जानने के लिए जो भजन करता है, उसी का नाम है ‘जिज्ञासा’। परमार्थ के प्रति नितांत प्रेम तथा बढ़ती हुई आस्था शिष्य का सातवाँ लक्षण है।

हे उद्धव ! सदगुरु अनेक जनों के लिए शीतल छाँव हैं, शिष्यों की तो माँ ही हैं। उनके प्रति जो ईर्ष्या करेगा उसकी आत्मप्राप्ति तो दूर हुई समझिये। सत्शिष्य का आचरम इस सम्बन्ध में बिल्कुल शुद्ध रहता है। वह अपने को ईर्ष्या का स्पर्श नहीं होने देता। गुरु ने उसे सर्वत्र ब्रह्मभावना करने का जो पाठ पढ़ाया होता है, उस पर सदा ध्यान देते हुए वह सबको समभाव से वंदन करता है। किसी भी प्राणी से छल न करना – ‘अनसूया’ यही शिष्य का आठवाँ लक्षण है। इन आठ महामनकों की माला जिसके हृदयकमल में निरंतर वास करती है, वही सदगुरु का अऩुभव प्राप्त करता है।

सत्य व पवित्र बोलना शिष्य का नौवाँ उत्तम लक्षण है। सदगुरु से वह विनीत भाव और मृदु वाणी से प्रश्न करता है। गुरुवचन सत्य से भी सत्य है इसे वह भक्तिपूर्वक स्वीकार करता है। सदगुरु के सामने व्यर्थ की बातें करना महान पाप है यह जानकर वह व्यर्थ की बकवास और मिथ्यावाद नहीं करता। निंदा के प्रति तो वह मूक ही रहता है। उसकी भाषा में कभी छल-कपट और झूठ नहीं होता। वह सदैव सदगुरु का स्मरण करता रहता है।

शिष्य के ये नौ लक्षण हैं। यह नवरत्नों की सुंदर माला जो सदगुरु के कंठ में पहनायेगा, वह देखते-देखते सायुज्य मुक्ति (परमात्म-स्वरूप से एकाकारता) के सिंहासन पर आसीन होगा। इन नवरत्नों का अभिनव गुलदस्ता जो सदगुरु को भेंटस्वरूप देगा, वह स्वराज्य के मुकुट का महामणि बनकर सुशोभित होगा।”

(श्री एकनाथी भागवत, अध्यायः 10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 258

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ