जैसी होवे पात्रता वैसी होवे गुरुकृपा – पूज्य बापू जी

जैसी होवे पात्रता वैसी होवे गुरुकृपा – पूज्य बापू जी


बारिश वही की वही लेकिन सीपी में बूँद पड़ती है तो मोती हो जाती है और खेत में पड़ती है तो भिन्न-भिन्न अन्न, रस हो जाती है और वही पानी गंगा में पड़ता है तो गंगा माता होकर पूजा जाता है, वही पानी नाली में पड़ता है तो उसकी कद्र नहीं, बेचारा कहीं का कहीं धक्के खाता है। ऐसे ही गुरुओं का ज्ञान यदि नाली जैसे अपवित्र हृदय में, अपवित्र वातावरण में निकल आये तो उसका फिर वही हाल हो जाता है। अर्जुन जैसे पवित्र व्यक्ति के आगे ‘गीता’ निकली है तो आज तक पूजी जाती है। शिशुपाल के सामने ‘गीता’ नहीं निकल सकती, ‘गीता’ निकलने के लिए अर्जुन चाहिए। ‘श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण’ बनने के लिए रामजी चाहिए। कबीरजी का ग्रंथ ‘बीजक’ बनने के लिए शिष्य सलूका और मलूका चाहिए। तो सामने जैसे पात्र होते हैं, जैसी उनकी योग्यता होती है, गुरुओं के दिल से भी उसी प्रकार का ज्ञानोपदेश निकलता है।

कैसी हो हमारी पात्रता ॐ

अपनी श्रद्धा, अपना आचरण ऐसा होना चाहिए कि भगवान भी हम पर भरोसा करें कि यहाँ कुछ देने जैसा है, गुरु को भी भरोसा हो कि यहाँ कुछ देंगे तो टिकेगा। गुरु और भगवान तो देने के लिए उत्सुक हैं, लालायित हैं लेकिन लेनेवाली की तैयारी चाहिए। ईश्वर को भरोसा हो जाये इस उद्देश्य से ऐसा कोई बाह्य व्यवहार नहीं करना है क्योंकि ईश्वर तो हमारा बाहर का व्यवहार नहीं देखते, हमारी गहराई जानते हैं।

ईश्वर तो हम पर बड़े करूणाशील हैं, ईश्वर तो अंतर्यामी हैं। दूसरे को तो हम धोखा दे सकते हैं कि ‘हमारी तुम पर श्रद्धा है, हम तो तुम्हारे बिना मर रहे हैं, हम तो जन्म-जन्म के साथी होंगे….’ ऐसे पति-पत्नी को धोखा दे सकते हैं लेकिन ईश्वर को तो धोखा नहीं दे सकते।

जिनको लगन होती है ईश्वर के लिए वे प्रतिकूल परिस्थितियों को भी सहकर ईश्वर के रास्ते चलते हैं और विपरीत परिस्थिति में भी यदि ईश्वर के लिए धन्यवाद निकले तो ईश्वर और खुश होते हैं, और दे देते हैं।

श्रीकृष्ण के अतिथि बने सुदामा का लौटते समय जब श्रीकृष्ण ने दुशाला भी ले लिया तो सुदामा जी सोचते हैं कि ‘भगवान कितने दयालु हैं ! मैं धन दौलत में, माया में कहीं फँस न जाऊँ, भगवान ने मुझे कुछ नहीं दिया। दुशाला उढ़ाया था, वह भी वापस ले लिया। वाह ! वाह ! कितने दयालु हैं !’ और जब घर पहुँचकर देखते हैं कि धन-धान्य, ऐश्वर्य से सम्पन्न हुई अपनी पत्नी सुशीला महारानी बन गयी है तो कहते हैं कि “वाह भगवान ! तू कितना दयालु है ! मेरा कहीं भजन न छूट जाये, खान-खुराक, रहन-सहन की तकलीफों के कारण शायद मेरा मन उन चीजों के चिंतन में न चला जाय इसलिए तूने रातों-रात इतना सारा दे दिया !” ये भक्त हैं ! विश्वास सम्पादन कर लिया ईश्वर का। उस वक्त तो वे सुख-सम्पत्ति से जिये ही, साथ ही वैष्णव जनों के लिए सदा के लिए दृष्टांत बन गये।

केवल पात्र बनो, गुरुकृपा में देरी नहीं

तुम केवल विश्वासपात्र बनो तो ऐसे ही कृपा, प्रेम, ज्ञान – सब चीजें तुम्हारे पास खिंच के चली आयेंगी। तुम उसके योग्य बनो तो वस्तुओं को खोजना नहीं पड़ेगा, वस्तु माँगनी नहीं पड़ेगी, वह वस्तु तुम्हारे पास आ ही जानी चाहिए। तुम ईश्वर के दर्शन के योग्य बनते हो तो फिर तुमको ईश्वर का दर्शन हो ऐसी इच्छा करने की भी जरूरत नहीं है, ऊपर से डाँट दो कि ‘तेरे दर्शन की कोई जरूरत नहीं है, वही बैठा रह…..’ तो भी तुम्हारी योग्यता होगी तो वह आ ही जायेगा।

दीया जलता है, अपनी बत्ती और तेल खपाता है तो ऑक्सीजन वाली हवाएँ भागकर उसके करीब आ जाती हैं। ऑक्सीजन के लिए दीये को कोई चिल्लाना नहीं पड़ता, वह अपना काम किये जा रहा है। उसको जो चाहिए वे चीजें आ जाती हैं। जब ऐसे जड़ दीये की उस परमात्मा ने व्यवस्था कर रखी है, उसे सुयोग्य व्यवस्था मिल जाती है तो आपको नहीं देगा क्या ! बच्चा माँ के गर्भ में होता है, ज्यों जन्म लेता है त्यों दूध मिल ही जाता है और जब बच्चा अन्न खाने के काबिल हो जाता है तो वह दूध बन्द हो जाता है। प्रकृति में स्वचालित व्यवस्था है। ईश्वर और सदगुरु कोई शिष्टाचार में जरा पीछे पड़े हैं, ऐसे नहीं हैं। देने वाला देने को बैठता है न, तो लेने वाला थकता है, देने वाला नहीं थकता आध्यात्मिक जगत में।

ऐसा जरूरी नहीं है कि जिसके साथ आप अच्छा व्यवहार करते हो, बदले में वह आपका भला करे। भगवान के वे ही दो हाथ नहीं हैं, हजारों-हजारों हाथों से वे लौटा सकते हैं। जिनसे तुमने भलाई की है, उऩ सबने भी भले तुमसे बुराई कर दी फिर तुम खिन्न मत हो, उद्विग्न मत हो, निराश मत हो क्योंकि इतने ही भगवान के हाथ नहीं हैं। मेरे भगवान के तो अनंत हाथ हैं, न जाने किसके द्वारा दे, किसी बाहर के हाथ से नहीं दे तो भीतर से शांति तो मिलती है, भीतर से धन्यवाद तो मिलता है कि ‘हमने भलाई की है, चाहे वह बुराई कर दे तो कोई हरकत नहीं।’

पात्रता का मापदंड रखते हैं सदगुरुदेव

कच्चे घड़े में पानी ठहरता नहीं, कच्चा घड़ा पानी डालने के पात्र नहीं होता है। अब पानी डालना है तो उसे आँवें में (कुम्हार की भट्टी में) डालना पड़ता है। कुम्हार रखता है दुकान पर तो वह भी टकोर करता है, उसका नौकर भी टकोर करता है, ग्राहक लेता है तो वह भी टकोर करता है, घर ले जाता है तो घरवाली भी टकोर करती है।

बह जाने और सूख जाने वाला पानी जिस घड़े में डालते हो, उसको कितना कसौटी पर कसते हो ! तो जो कभी न बहे और कभी न सूखे, ऐसे ब्रह्मज्ञान का अमृत किसी में कोई डालना चाहे तो वह भी तो अपने ढंग की थापी तो रखता ही होगा, सीधी बात है ! हमें दिखें चाहे न दिखें, उनके पास होती हैं वे कसौटियाँ।

माँ बाप बच्चे को डाँटते या मारते हैं तो उनकी डाँट, मार या प्यार के पीछे बच्चे का हित और करूणा ही तो होती है, और क्या होता है ! ऐसे ही परमात्मा हमको किसी भी परिस्थिति से गुजारता है तो उसकी बड़ी करूणा है, कृपा है। लेकिन यदि हमारे भीतर से धन्यवाद नहीं निकलता और कुछ प्रतिक्रिया निकलती है तो हमारे कषाय अपरिपक्व हैं। सुदामा की नाईं जब धन्यवाद निकलने लगे तो समझो कि कषाय परिपक्व हो रहे हैं।

साधक जब ध्यान भजन में होता है, परमात्मा के चिंतन में होता है तो उसे देखकर सदगुरु के चित्त से कृपा बहती है, आशीर्वाद निकलता है। और जब गपशप में, इधर उधर में होता है और गुरु देखते हैं तो गुरु के दिल से निकलता है कि ‘ये क्या करेंगे !….’ तो बहुत आदमी फिर नीची अवस्था में हो जाते हैं। लगन व उत्साह से पढ़ने वाले विद्यार्थी को देखकर शिक्षक का उत्साह बढ़ता है और लापरवाह व टालमटोल करने वाले विद्यार्थी को देखकर शिक्षक का उत्साह भंग हो जाता है। अपने ही आचरण का फल विद्यार्थी को प्राप्त होता है। इससे भी बहुत ज्यादा असर सदगुरुओं के चित्त का पड़ता है शिष्य के ऊपर।

गुरु का हृदय तो शुद्ध होता है न, इसीलिए हमारा व्यवहार, हमारी भक्ति सब बढ़िया-बढ़िया देखते-देखते वे हमारे लिए बढ़िया बोलने लगते हैं, बढ़िया सोचने भी लगते हैं तो हम बढ़िया हो भी जाते हैं। और हमारा घटिया आचरण देखकर, बेवफाई का आचरण देखकर वे विश्वास खोते जाते हैं तो हम भी ऐसे ही होते जाते हैं। और सदगुरु को तो केवल तुम्हारे बाहर के व्यवहार से भरोस नहीं होगा, वे तो तुम्हारे भीतर की सोच को भी जान लेंगे। इसीलिए हमारी निष्ठा व प्रीति ऐसी हो कि भगवान और गुरु को हमारे प्रति भरोसा हो जाय बस, कि ‘ये  मेरा सत्पात्र है।’ भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटिनां यज्ञव्रततपः क्रियाः।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।

हमारे करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, जप-तप आदि उसी दिन सफल हो गये जिस दिन गुरुजी हमारे आचरण से, हमारी ईमानदारी से, हमारी वफादारी से संतुष्ट हो गये। गुरु को लगे कि पात्र है, तब गुरु के हृदय से कृपा छलकती है और शिष्य को हजम होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2014, पृष्ठ संख्या 16-18, अंक 258

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