जीव को शिव बनाते हैं सदगुरु – पूज्य बापू जी

जीव को शिव बनाते हैं सदगुरु – पूज्य बापू जी


एक बालक था मुकुंद। जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो गुरु महाराज की खोज के लिए इधर-उधर घूमा। हम भी घूमे थे इधर-उधर गुरु महाराज की खोज के लिए। तो गुरु की खोज में घूमते-घामते मुकुंद को मिल गये एक महापुरुष, गुरु महाराज युक्तेश्वर।

मुकुंद ने उनसे प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! मुझे दूसरा कुछ नहीं चाहिए, मेरा जो अंतरात्मा-परमात्मा है उसका साक्षात्कार करना है। सुना है कि भगवान हैं लेकिन भगवान का जब तक साक्षात्कार नहीं होता, तब तक दुःख, चिंता नहीं मिटती, अहं नहीं मिटता और अहं को ही मान-अपमान की ठोकर लगती है, अहं ही भागता भगाता है। तो मेरा अहं ले लो और मेरे को भगवान का दर्शन करा दो।”

युक्तेश्वर महाराज बोलेः “मेरी शर्त यह है कि जो मैं बोलूँ वही करना पड़ेगा। आज्ञा का पालन करेगा तो वासना मिटेगी और आज्ञा को ठुकरायेगा तो तू ठुकराया जायेगा। है ताकत ?”

“गुरु महाराज ! आपकी दया से होगा।”

“तो अच्छा ! अब जाओ कलकत्ता और महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ।”

मुकुंद सोचने लगा कि ‘यह तो मेरी इच्छा के विरूद्ध है। मैं तो सब छोड़ के गुरु महाराज के पास आया और गुरु महाराज बोलते हैं कि ‘जाओ, महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ।’ अब गुरु की आज्ञा कैसे टालूँ ?’ मन तो नहीं था जाने का लेकिन वह गया।

गुरु ने कहा था कि “जाओ, महाविद्यालय में भर्ती हो जाओ और बीच बीच में तुम मेरे पास आते रहोगे।” जो गुरु ने कहा था वही हुआ। बीच-बीच में जब भी मौका मिलता, छुट्टियों में वह गुरु जी के पास आता रहा। गुरु जी ने उसे बहुत परखा। श्रीरामपुर आश्रम में उसे अलग अलग सेवाएँ दी गयीं।

गुरु के यहाँ गुप्त (शाश्वत) धन लेना हो तो अपनी वासना, अहंकार और पकड़ – ये छोड़ना पड़ता है। सोने में से गहने तभी बनते हैं जब उनको आग में तपाया जायेगा। पुराना घाट छोड़ें तब नया घाट आये। ठोको, पीटो, तपाओ फिर बने गहना। ऐसे ही भगवान को पाने वाले को गुरुमुख बनने के लिए गुरु जी की कसौटी में, गुरु जी की आज्ञा में उत्तीर्ण होना पड़ता है।

एक दिन मुकुंद से मिलने उसके पिता आये और मन ही मन सोचने लगे कि ‘मेरा बेटा जवानी में समर्पित हुआ है, बड़ा होशियार है। बचपन में ही भगवान से बातें करता था ! अब गुरु महाराज के पास रह रहा है तो वे बहुत खुश होंगे।’ लेकिन गुरुजी ने एकदम उलटा सुनाया कि “तेरा बेटा है कि गधा है ! मेरा तो सिर खपा गया…..” ऐसी बातें सुनायीं कि वह बाप तो रोने लग गया और मुकुंद को फटकारा कि “गुरु महाराज तो तेरे पर इतने नाराज हैं ! तू ऊँधा काम करता है। सब छोड़ के इधर आया और तू तो भ्रष्ट हो गया। हम तो समझे थे गुरु महाराज के पास कुछ पायेगा लेकिन वे तो बोल रहे हैं कि ऐसा है, ऐसा है…… तू किसी काम का नहीं रहा।”

मुकुंद मन से एकदम टूट गया लेकिन बाद में सामान्य हो गया।

एक बार मुकुंद के मन में हुआ कि ‘हिमालय में जा के समाधि करूँगा……’

ऐसा सोचकर वह गुरु जी से बोलाः “मेरे को हिमालय जाने की आज्ञा दो। कृपा करो ! मेरा मन कहता है कि मैं भाग जाऊँ लेकिन भाग जाने से तो मेरा सर्वनाश हो जायेगा।”

गुरु जी ने मुकुंद को समझाया और मौन हो गये।

मुकुंद ने मन में सोचा कि ‘उधर ही बैठूँगा, ध्यान करूँगा, समाधि करूँगा, भगवान को पाऊँगा।’

उसने योगिराज रामगोपाल का नाम सुना था कि ‘वे बड़े योगी हैं। उन्होंने 20 साल तो एक जगह पर ध्यान समाधि में बिताये थे। 18 घंटा रोज ध्यान करते थे 20 साल तक। फिर 25 साल दूसरी जगह बिताये। 45 साल की समाधि !’

वह उनके पास गया और बोलाः “गुरु महाराज ! मेरे को ध्यान समाधि सिखाओ। हिमालय के एकांत में आपकी शरण आया हूँ।”

“अरे, तू तो भटक रहा है। युक्तेश्वर महाराज को छोड़ के तू मेरे पास आया ! मैंने 45 साल झख मारी तो मेरे को कुछ नहीं मिला तो तेरे को क्या मिल जायेगा ! समाधि में सुन्न-मुन्न होते हैं। इन जड़ पत्थरों में, हिमालय में अगर भगवान होते तो हिमालय में बहुत लोग रह रहे हैं तो क्या सबको भगवान मिल गये ! गुरु की अवज्ञा करके, गुरु की इच्छा नहीं हुई तब भी तू इधर भटकता है ! अब मैं तेरे को क्या सिखाऊँगा ? तू क्या सीख लेगा ?

गुरु महाराज तो व्यवहार में, उतार में, चढ़ाव में, हर तरीके से अहंकार व वासना को मिटाते हैं। प्रशंसा करके तो कोई भी उल्लू बना देगा लेकिन तुम्हारे गुरु तो सच्चे संत हैं। वे तुम्हारी वाहवाही करेंगे क्या ? कैसा पागल आदमी है ! जो उन गुरु से, ऐसे युक्तेश्वर महाराज से नहीं सीखा, नहीं पाया तो मेरे पास क्या सीखेगा-पायेगा तू ?”

गया तो था बड़े उत्साह से लेकिन उसके दिमाग से हवा निकल गयी कि ‘जड़ पहाड़ क्या दे देगा ? जो मिलेगा वह चेतन गुरु की हाजिरी में, ज्ञान में, सत्संग में, घड़ाई में….’

जैसे माई चावल बीनती है न, तो कंकड़-पत्थर, जीव-जंतु एक-एक को चुन-चुन के निकालती है, ऐसे ही छुपे हुए संस्कारों में क्या-क्या पड़ा है, भरा हुआ है, वह तो आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष ही जानते हैं कि कैसे घड़ाई होती है।

योगिराज रामगोपाल ने कहाः “जा, युक्तेश्वर महाराज के पास।”

कुछ दिनों के बाद मुकुंद वापस आ गया और सोचने लगा कि ‘गुरु महाराज की आज्ञा नहीं थी और गया था और उन बड़े संत ने भी डाँट दिया। अब गुरु जी तो फटकारेंगे…..’

गया और गुरु महाराज के आगे लम्बा पड़ने लगा तो गुरुजी ने पकड़ लिया, नीचे नहीं गिरने दिया और बोलेः “चल मुकुंद ! झाड़ू उठा, उधर सफाई करनी है। फिर थोड़ा खाना है, अपन खा के फिर गंगा किनारे चलते हैं।”

मुकुंद तो सोचता ही रह गया कि ‘मेरे को डाँटना-फटकारना कुछ भी नहीं ! चरणों पर गिर रहा था माफी माँगने के लिए लेकिन गिरने भी नहीं दिया, बाहर से तो इतने कठोर लेकिन अंदर से कितने दयालु मेरे गुरु ! कितने उदार हैं !’

ज्यों-ज्यों वर्ष बीतते गये, त्यों-त्यों उसे पता चला कि ‘अरे, गुरु महाराज दुश्मन जैसे लगते हैं लेकिन इनके जैसा कोई मित्र नहीं है, कोई तारणहार नहीं है। संसार की मिठाइयाँ भी इनकी कृपा के आगे फीकी हैं।’

फिर तो ‘गुरु महाराज जो भी करते हैं, भलाई के लिए करते हैं’ ऐसा उसे एक आश्रय मिल गया। फिर कभी भी वे डाँटते तो उसे अंदर में प्रसन्नता होती कि ‘भीतर तरल थे बाहर कठोरा…’

एक दिन गुरु जी मुकुंद को बुलायाः “क्या कर रहा है ?”

“गुरु जी ! ध्यान कर रहा हूँ।”

“ध्यान में तो कर्तापन है, ध्यान क्या करता है ! इधर आ।”

वह गया। तब युक्तेश्वर महाराज ने स्नेह से समझाते हुए कहाः “ध्यान करूँ, ईश्वर मिल जाय…. जो नहीं करते हैं उनके लिए तो ध्यान ठीक है लेकिन गुरु जी मिल गये फिर जो गुरु जी बोलें वही किया करो।”

“जी महाराज !”

गुरु ने जरा-सा थपथपा दिया। मुकुंद को हुआ कि ‘मैं तो मर गया और जिसको खोजता था वही रह गया।’ गुरु जी ने ऐसा थपथपाया, ऐसा कुछ ध्यान लग गया, ऐसा कुछ हुआ कि अरे, जिसके लिए बड़े-बड़े लोग 60-60 हजार वर्ष तपस्या करते हैं, झख मारते हैं तो भी नहीं मिलता, वह तो अपना आत्मा है, वही हरि है, हाजरा-हजूर है, उसका अनुभव गुरुकृपा से होने लगा।

जो दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं पराया नहीं वह तो अपना आत्मा है।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे ना शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान।…..

‘इच्छा नहीं लवलेश…..‘ जगत की इच्छा मिटाने के लिए भगवान को पाने की इच्छा ती लेकिन जब भगवान को खोजा तो वह तो अपना आत्मा ही है।

गुरु महाराज ने क्या पता कैसी कृपा की ! पर्दा हट गया तो लगा कि भगवान को क्या खोजना ! भगवान तो अपना आत्मा ही है। मुकुंद को पता चल गया कि गुरुकृपा ही केवलं…..

मैं युक्तेश्वर बाबा को तो प्रणाम करूँगा हृदय से लेकिन उनकी इतनी कड़क, कठोर घुटाई-पिटाई सहने वाला मुकुंद, जो परमहंस योगानंद बन गये, उनके लिए भी मेरे हृदय में बहुत स्नेह है।

इसलिए बोलते हैं कि हजार बार गंगा नहा लो, हजार एकादशी कर लो, अच्छा है, पुण्य होता है लेकिन सदगुरु के सत्संग के आगे वह सब छोटा हो जाता है, गुरु की कृपा, गुरु का संग सर्वोपरि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 8-10, अंक 259

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