सदगुरु पकड़ाते ज्ञान की डोरी, करते भव से पार – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती

सदगुरु पकड़ाते ज्ञान की डोरी, करते भव से पार – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती


साधकों के पथ-प्रदर्शन हेतु सदगुरु के रूप में भगवान स्वयं पधारते हैं। ईश्वरकृपा ही गुरु के रूप में प्रकट होती है। यही कारण है कि सदगुरु-दर्शन को भगवददर्शन की संज्ञा दी जाती है। गुरु भगवत्स्वरूप होते हैं, उनकी उपस्थिति सबको पवित्र करती है।

ब्रह्मस्वरूप सदगुरु ही मानव के सच्चे सहायक

मानव को मानव द्वारा ही शिक्षा दी जा सकती है इसलिए भगवान भी मानव-शरीर के द्वारा ही शिक्षा देते हैं। मानवीय आदर्श की पूर्णता गुरु में ही हो सकती है। उन्हीं के आदर्शों के साँचे में अपने-आपको ढालकर आपका मन स्वतः ही स्वीकार करेगा कि यही महान व्यक्ति पूजा-अर्चना के योग्यतम अधिकारी हैं।

सदगुरु तो स्वयं ब्रह्म ही हैं। वे आनंद, ज्ञान तथा करूणा के सागर हैं, आत्मारूपी जहाज के नायक हैं। वे भवसागर में डूबने से बचाकर ज्ञान की डोरी से तुम्हें बाहर  निकालते हैं। सभी बाधाएँ तथा चिंताएँ नष्ट करके दिव्यता की ओर तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। तुम्हारी हीन, तामसिक प्रवृत्तियों को रूपांतरित करने में केवल सदगुरु ही समर्थ हैं। अज्ञान के आवरण को हटाकर वे ही तुम्हें दिव्य तथा अमर बना देते हैं। उनको मनुष्य नहीं मानना चाहिए, यदि कहीं ऐसा सझते रहे तो आप पशुवत ही रहेंगे। अपने गुरु की सदैव पूजा तथा आदर-सत्कार करिये, भावना से ओतप्रोत रहिये। गुरु ही ईश्वर हैं, उनके वाक्य को भगवदवाक्य मानिये। वे भले ही शिक्षा न दें, उनकी उपस्थिति ही प्रेरणा-स्रोत होने के कारण प्रगति-पथ की ओर प्रेरित करती है। उनके सत्संग से आत्मप्रकाश की प्राप्ति होती है। उनके सान्निध्य में रहने से ही आध्यात्मिक विद्या आ जाती है। यद्यपि सदगुरुदेव मोक्ष का द्वार हैं, इन्द्रियातीत सत् तथा चित् के दाता हैं परंतु उसमें प्रवेश करने का उद्यम तो शिष्य को स्वयं ही करना होगा। गुरु सहायता देंगे किन्तु साधना करने का उत्तरदायित्व शिष्य पर ही रहेगा।

सदगुरु में अनन्य निष्ठा

जलप्राप्ति के लिए अनेक उथले गड्ढे खोदने का विफल प्रयास नहीं करिये, वे तो शीघ्र ही सूख जायेंगे। एक ही स्थान पर यथाशक्ति परिश्रम केन्द्रित कर पर्याप्त गहरा गड्ढा खोदिये, आपको पर्याप्त स्वच्छ तथा शुद्ध जल मिलेगा जो शीघ्र समाप्त नहीं होगा। ठीक इसी प्रकार एक ही गुरु द्वारा ज्ञानामृत का पान करिये, उन्हीं के चरणों में निष्ठापूर्वक जीवनपर्यन्त वास करिये। श्रद्धारहित होकर एक संत से दूसरे के पास कौतूहलवश भागते रहने से कोई लाभ नहीं। वेश्या की नाईं मन को बदलते न रहिये, एक ही सदगुरु के निर्देशों का सप्रीति पालन कीजिये। एक चिकित्सक से तो उपचारार्थ नुस्खा मिलता है। दो चिकित्सकों से परामर्श लिया जा सकता है परंतु तीन चिकित्सकों से तो हम अपनी मृत्यु स्वयं निमंत्रित करते हैं। ऐसे ही अऩेक गुरुओं के चक्कर में पड़कर अनेक विधियाँ अपनाने से हम स्वयं भ्रमित हो जायेंगे। अतः एक सदगुरु की शरण लेकर उन्हीं में अनन्य निष्ठा रख के उनके उपदेशों का, आदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन कीजिये। श्रद्धा सबमें रख सकते हैं पर निष्ठा तथा अनन्यता एक के प्रति ही हो सकती है इसलिए आदर सबका करिये किंतु अनुसरण करिये एक सदगुरु के ही आदेशों का, तभी आपकी प्रगति सुपथ पर होती जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 24, अंक 259

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