Monthly Archives: July 2014

संकल्प की दुनिया – पूज्य बापू जी


जितना कोई अच्छा काम करता है, उतना करने वाले का हृदय अच्छा होकर उसके भाग्य की रेखाएँ बदलती हैं, बुद्धि में परमात्मा के ज्ञान की और प्रेरणा की धारा विकसित होती है। बुरा कर्म करने से बुद्धि गलत निर्णय करने वाली बनती है। अच्छा कर्म करने वाले की बुद्धि भगवान ऊँची बना देते हैं। ऐसा नहीं कि उधर सातवें अरस में बैठकर कोई तुम्हारा खाता लिखता है।

सब अपने संकल्पों से, विचारों से तुच्छ होते हैं या महान होते हैं। हलके विचार हलके कर्म कराके आदमी को तुच्छ बना देते हैं। ऊँचे विचार ऊँचे कर्म कराके आदमी को ऊँचा बना देते हैं। और यदि कर्म ईश्वरप्राप्ति के लिए करें तो ईश्वर मिल जाता है।

जेहि कें जेहि पर सत्य स्नेहू।

सो तेहि मिलन न कछु संदेहू।। श्री रामचरित.बा.कां.258.3)

जिसको जिस पर सत्य स्नेह होता है, वह उसको मिल जाता है, वह स्थिति मिल जाती है।

गांधी जी ने राजा हरिश्चन्द्र का नाटक देखकर संकल्प किया कि ‘मैं सत्य बोलूँगा और परहितकारी जीवन जीऊँगा।’ गांधी जी के एक ऊँचे संकल्प ने 40 करोड़ हिन्दुस्तानियों को आजाद करा दिया और वे ‘महात्मा गांधी’ बन गये।

हमारा संकल्प था कि हम ईश्वर को पायेंगे तो हमारे द्वारा भी भगवान करोड़ों लोगों को सत्संग दिलाते हैं। एक छोटा-सा संकल्प कितना कल्याण कर सकता है ! इसलिए अच्छे विचार करने वाला आदमी खुद तो ऊँचाई को छूता है, दूसरों को भी ऊँचा उठाता है और हलके विचार करने वाला खुद तो डूब मरता है, दूसरों को भी गिराता है। रावण का हलका सकंल्प, खुद को परेशान किया, पूरी लंका नाश कर दी। राम जी का ऊँच संकल्प, खुद भी ब्रह्मसुख में और अयोध्यावासियों को भी वैकुण्ठ के सुख में पहुँचा दिया। श्रीकृष्ण का मधुमय संकल्प, खुद तो मधुमय बंसी बजाते रहे, दूसरों को भी आनंद देते रहे। कंस का अहंकार वाला संकल्प, खुद जरा-जरा बात में डरा और दूसरों को भी डराया और अंत में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसलिए अच्छे संकल्प, अच्छे कर्म अपना और दूसरों का भला करते हैं तथा बुरे संकल्प, बुरे कर्म अपना और दूसरों का नुक्सान करते हैं।

मन से जैसे संकल्प उठते हैं, वैसा भविष्य में होता जाता है। झूठ-मूठ में भी किये गये शुभ संकल्प धीरे-धीरे पक्के होते जाते हैं और सत्य होने लगते हैं। इसलिए हमेशा मन से शुभ संकल्प ही करने चाहिए।

आपके मन में अथाह सामर्थ्य है। आप जैसा संकल्प करते हो, समय पाकर वैसा ही वातावरण निर्मित हो जाता है। अब उठो…. कमर कसो ! जैसा बनना है, वैसा अभी से संकल्प करो और बनने-बिगड़ने से बचना है तो अपने आत्मस्वभाव को जानने का संकल्प करो।

शुभ संकल्प करे और उसमें लगा रहे तो देर-सवेर वह सफलता के सिंहासन पर पहुँच जाता है और यदि परमात्मा को पाने का संकल्प करे तो अपने परमात्मप्राप्तिरूपी लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है। वह अविनाशी पद को पाकर मुक्त हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 4, अंक 259

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साकार और निराकार की बात – पूज्य बापू जी


संत लाल जी महाराज के प्रेम, भक्ति का भी कुछ प्रसाद लोगों को मिले इस हेतु मैंने एक बार नारेश्वर के अपने शिविर का उदघाटन उनके हाथों करवाया। इस प्रसंग पर उन्होंने कहाः “लोग निराकार की बातें करते हैं, ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, ‘मैं ब्रह्म हूँ, तुम ब्रह्म हो’ – ऐसा ब्रह्मज्ञान का उपदेश सबको देने लगते हैं। स्वयं पूरा दिन साकार में रहते हैं, शरीर साकार है, खाते हैं साकार में और बातें निराकार की करते हैं। तो क्या साकार के बिना उनका काम चल सकता है ?”

मैं समझ गया कि उऩकी कैंची मेरी ओर है। उनके हृदय में मेरे लिए तो बहुत प्रेम था परंतु उनकी दृष्टि में तो ज्ञान-ज्ञान क्या ? हकीकत में उऩ्होंने जिस भक्तिमार्ग से यात्रा की थी, उसी मार्ग के लिए उऩ्हें इतनी आत्मीयता हो गयी थी कि दूसरे ज्ञानादि मार्ग उन्हें अधिक पसंद नहीं थे।

लाल जी महाराज ने अव्यक्त की बात काट डाली। इसलिए दूसरे दिन जब वे शिविर में आकर बैठे तब मैंने कहाः “कल उदघाटन में मेरे मित्रसंत ने कहा कि “पूरा दिन साकार में रहते हैं और बातें  निराकार की करते हैं, परंतु साकार के बिना छुटकारा नहीं है।” तो मैं अर्ज करूँगा कि साकार के बिना छुटकारा नहीं है या निराकार के बिना छुटकारा नहीं है ? – इस बात को जरा हमें समझना पड़ेगा। पूरा दिन तो हम सब साकार में जीते हैं लेकिन झख मारकर रात को साकार और शरीर निराकार से मिलता है कि नहीं ? और साकार शरीर निराकार से मिलता है कि नहीं ? और साकार को सँभालने की शक्ति भी निराकार में डूबते हैं तभी आती है कि नहीं ? गन्ने का रस मीठा और पानी फीका। तो भी गन्ने का रस पीने से प्यास नहीं बुझती। यद्यपि गन्ने के रस में भी तो पानी ही आधारस्वरूप है। वैसे ही साकार मीठा लगता है, निराकार प्रारम्भ में फीका लगता है परंतु साकार को सत्ता भी निराकार से ही मिलती है। अखा भगत की बात सुनने जैसी हैः

सजीवाए निर्जीवाने घड्यो अने पछी कहे मने कंई दे।

अखो तमने ई पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?

‘सजीव ने निर्जीव (मूर्ति, प्रतिमा) को बनाया, फिर वही उससे माँगने लगता है कि मुझे कुछ दो। तो अखा भगत तुमसे यह पूछते हैं कि तुम्हारी एक आँख फूट गयी है या दोनों ?’

जो साकार है उसके गर्भ में निराकार ही है। तुम्हारे मूल में देखो अथवा परमात्मा के मूल में देखो कि वह निराकार है या नहीं ? अव्यक्त ही व्यक्त होकर भासित होता है। व्यक्त असत्य है, अव्यक्त ही सत्य है।”

मेरी बातें सुनकर वे मेरे सामने देखने लगे और फिर हम दोनों हँस पड़े। वास्तव में हम दोनों की ऐसी जोड़ी थी कि ऐसी जोड़ी तुमने कहीं और नहीं देखी होगी। हम दोनों के बीच अनोखा प्रेम था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 19 अंक 259

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सदगुरु पकड़ाते ज्ञान की डोरी, करते भव से पार – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती


साधकों के पथ-प्रदर्शन हेतु सदगुरु के रूप में भगवान स्वयं पधारते हैं। ईश्वरकृपा ही गुरु के रूप में प्रकट होती है। यही कारण है कि सदगुरु-दर्शन को भगवददर्शन की संज्ञा दी जाती है। गुरु भगवत्स्वरूप होते हैं, उनकी उपस्थिति सबको पवित्र करती है।

ब्रह्मस्वरूप सदगुरु ही मानव के सच्चे सहायक

मानव को मानव द्वारा ही शिक्षा दी जा सकती है इसलिए भगवान भी मानव-शरीर के द्वारा ही शिक्षा देते हैं। मानवीय आदर्श की पूर्णता गुरु में ही हो सकती है। उन्हीं के आदर्शों के साँचे में अपने-आपको ढालकर आपका मन स्वतः ही स्वीकार करेगा कि यही महान व्यक्ति पूजा-अर्चना के योग्यतम अधिकारी हैं।

सदगुरु तो स्वयं ब्रह्म ही हैं। वे आनंद, ज्ञान तथा करूणा के सागर हैं, आत्मारूपी जहाज के नायक हैं। वे भवसागर में डूबने से बचाकर ज्ञान की डोरी से तुम्हें बाहर  निकालते हैं। सभी बाधाएँ तथा चिंताएँ नष्ट करके दिव्यता की ओर तुम्हारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। तुम्हारी हीन, तामसिक प्रवृत्तियों को रूपांतरित करने में केवल सदगुरु ही समर्थ हैं। अज्ञान के आवरण को हटाकर वे ही तुम्हें दिव्य तथा अमर बना देते हैं। उनको मनुष्य नहीं मानना चाहिए, यदि कहीं ऐसा सझते रहे तो आप पशुवत ही रहेंगे। अपने गुरु की सदैव पूजा तथा आदर-सत्कार करिये, भावना से ओतप्रोत रहिये। गुरु ही ईश्वर हैं, उनके वाक्य को भगवदवाक्य मानिये। वे भले ही शिक्षा न दें, उनकी उपस्थिति ही प्रेरणा-स्रोत होने के कारण प्रगति-पथ की ओर प्रेरित करती है। उनके सत्संग से आत्मप्रकाश की प्राप्ति होती है। उनके सान्निध्य में रहने से ही आध्यात्मिक विद्या आ जाती है। यद्यपि सदगुरुदेव मोक्ष का द्वार हैं, इन्द्रियातीत सत् तथा चित् के दाता हैं परंतु उसमें प्रवेश करने का उद्यम तो शिष्य को स्वयं ही करना होगा। गुरु सहायता देंगे किन्तु साधना करने का उत्तरदायित्व शिष्य पर ही रहेगा।

सदगुरु में अनन्य निष्ठा

जलप्राप्ति के लिए अनेक उथले गड्ढे खोदने का विफल प्रयास नहीं करिये, वे तो शीघ्र ही सूख जायेंगे। एक ही स्थान पर यथाशक्ति परिश्रम केन्द्रित कर पर्याप्त गहरा गड्ढा खोदिये, आपको पर्याप्त स्वच्छ तथा शुद्ध जल मिलेगा जो शीघ्र समाप्त नहीं होगा। ठीक इसी प्रकार एक ही गुरु द्वारा ज्ञानामृत का पान करिये, उन्हीं के चरणों में निष्ठापूर्वक जीवनपर्यन्त वास करिये। श्रद्धारहित होकर एक संत से दूसरे के पास कौतूहलवश भागते रहने से कोई लाभ नहीं। वेश्या की नाईं मन को बदलते न रहिये, एक ही सदगुरु के निर्देशों का सप्रीति पालन कीजिये। एक चिकित्सक से तो उपचारार्थ नुस्खा मिलता है। दो चिकित्सकों से परामर्श लिया जा सकता है परंतु तीन चिकित्सकों से तो हम अपनी मृत्यु स्वयं निमंत्रित करते हैं। ऐसे ही अऩेक गुरुओं के चक्कर में पड़कर अनेक विधियाँ अपनाने से हम स्वयं भ्रमित हो जायेंगे। अतः एक सदगुरु की शरण लेकर उन्हीं में अनन्य निष्ठा रख के उनके उपदेशों का, आदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन कीजिये। श्रद्धा सबमें रख सकते हैं पर निष्ठा तथा अनन्यता एक के प्रति ही हो सकती है इसलिए आदर सबका करिये किंतु अनुसरण करिये एक सदगुरु के ही आदेशों का, तभी आपकी प्रगति सुपथ पर होती जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2014, पृष्ठ संख्या 24, अंक 259

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