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दुनिया में आकर तुमने क्या किया ?


भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज महानिर्वाण दिवसः 1 नवम्बर 2014

परमात्मारूपी मंजिल को तय करने के लिए योग मार्गदर्शन देने वाले ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं की महिमा अवर्णनीय है। वे महापुरुष केवल दिशा ही नहीं बताते बल्कि सरल युक्तियों से उस मार्ग पर ले भी चलते हैं। ऐसे ही सदगुरु थे श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज। वे इस संसाररूपी अरण्य में भूले भटके राहियों को परमात्मारूपी मंजिल की ओर ले चलने के लिए भिन्न-भिन्न रोचक दृष्टांतों से ऊँची समझ देते थे। जैसे-

अकबर के साले  मीर खुसरो का बीरबल से बहुत वैरभाव था। एक बार वही ईरान से तीन कठपुतलियाँ लाया जो नाप-तौल व शक्ल में एक जैसी थीं। उन्हें राजदरबार में ले जाकर अकबर से कहने लगाः बादशाह सलामत ! इन तीन कठपुतलियों में से एक का मूल्य 10 रूपये, दूसरी का 100 रूपये और तीसरी का 1000 रूपये है। यदि बीरबल इसका अर्थ समझाये तो मैं अपनी हार स्वीकार कर लूँगा तथा बीरबल को बुद्धिमान मानूँगा।

उन्हें देखकर बीरबल आश्चर्य में पड़ गया। वह 2 दिन का समय लेकर उन कठपुतलियों को अपने घर ले आया और अपनी बेटी को सारी बात बतायी। उसकी बेटी बहुत अक्लमंद थी। उसने लोहे का तार एक कठपुतली के कान में डाला तो वह तार दूसरे कान से निकल गया। फिर दूसरी के कान में डाला तो उसके मुँह से निकल आया, तीसरी के कान में डाला तो उसके अंदर गायब हो गया। तब उसने कहाः “पिता जी ! इनका मूल्य बिल्कुल सही है। क्योंकि इन कठपुतलियों की भाँति इस संसार में 3 प्रकार के लोग हैं। एक पहली कठपुतली की भाँति हैं, जो एक कान से बात सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं, सुना-अनसुना कर देते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो कोई भी बात सुनकर उसे याद करके दूसरों को सुनाते हैं तथा तीसरे वे लोग हैं जो उत्तम बात सुनकर उसे हृदय में धारण करके उस अऩुसार व्यवहार करते हैं, ये उत्तम प्रकार के लोग होते हैं।

बेटी का उत्तर सुनकर बीरबर प्रसन्न हुआ। दूसरे दिन राजदरबार में जाकर उसने वह बात बतायी। बादशाह बहुत प्रसन्न  हुआ तथा बीरबल को इनाम दिया।

कथाएँ-कीर्तन सिर्फ सुनने के लिए नहीं हैं, न ही मन बहलाने के लिए हैं। एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे तो उससे बहुत थोड़ा लाभ होगा। या सुनकर उस पर मनन न करेंगे, दूसरों को सुनायेंगे तो विशेष लाभ नहीं होगा। यदि मनन व निदिध्यासन नहीं किया अर्थात् आचरण में लाकर उसके अनुसार अनुगमन नहीं किया तो हमारा जीवन ही व्यर्थ है। सिर्फ दवाई की ओर देखेंगे या उसकी तारीफ करेंगे, उसे पीयेंगे नहीं तो फिर फायदा कैसे होगा ?

सभी कार्य किये परंतु अपने आत्मस्वरूप की पहचान नहीं की तो फिर दुनिया में आकर क्या किया ?

क्यों जंहिं परे, गुरगम पट अंदर जो

सामी तंहि जे घर में, अखंड जोत बरे…..

सामी साहब कहते हैं कि ‘जिसने गुरुकृपा से अपने अंदर का आवरण हटा लिया, उसके घर (हृदय) में अखण्ड ज्योति जलती रहती है। वह महबूब (परमात्मा) के स्वरूप का चिंतन करके रात-दिन आनंदित रहता है। वह भवसागर से तर जाता है, लहरें उसे डुबा नहीं पातीं।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 19, अंक 262

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तुलसी महिमा


(तुलसी विवाह प्रारम्भः 3 नवम्बर 2014)

तुलसी के निकट जिस मंत्र-स्तोत्र आदि का जप-पाठ किया जाता है, वह सब अनंत गुना फल देने वाला होता है।

प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, भूत, दैत्य आदि सब तुलसी के पौधे से दूर भागते हैं।

ब्रह्महत्या आदि पाप तथा पाप और खोटे विचारों से उत्पन्न होने वाले रोग तुलसी के सामीप्य एवं सेवन से नष्ट हो जाते हैं।

तुलसी का पूजन, रोपण व धारण पाप को जलाता है और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदायक है।

श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य देने वाला है।

जो चोटि में तुलसी स्थापित करके प्राणों का परित्याग करता है, वह पापराशि से मुक्त हो जाता है।

तुलसी के नाम-उच्चारण से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

तुलसी ग्रहण करके मनुष्य पातकों से मुक्त हो जाता है।

तुलसी पत्ते से टपकता हुआ जल जो अपने सिर पर धारण करता है, उसे गंगास्नान और 10 गोदान का फल प्राप्त होता है।

पद्म पुराण से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 30, अंक 262

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जीव-सृष्टि से ही दुःख निकला


अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश – ‘योगदर्शन’ के अनुसार ये दुःख के कारण हैं। योगी कहते हैं कि अविद्या के इस परिवार का नाश कर दो विवेक-ख्याति से। वह होगी चित्तवृत्तियों के निरोध से। समाधि में जब द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित होगा, तब व्युत्थान-दशा में जान जायेगा कि संसार की किसी वस्तु से मेरा संबंध नहीं है। वह वस्तु फिर आये या जाय। योगदर्शन कहता है कि दुःख-क्लेश आविद्यक (अविद्या से उत्पन्न) हैं। अतः अविद्या की निवृत्ति यदि कर दो तो तुम्हारा क्लेश मिट जायेगा किंतु संसार प्राकृत है अतः संसार ज्यों का त्यों बना रहेगा। प्राकृत संसार न सुख देता है न दुःख।

वेदांत दर्शन कहता है कि सृष्टि दो प्रकार की है – एक जीव-सृष्टि और दूसरी ईश्वर सृष्टि। पृथ्वी, जलादि पंचभूत, शब्द स्पर्शादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अंतःकरण तथा स्त्री, पुरुष आदि प्राणी इत्यादि ईश्वर-सृष्टि हैं। ईश्वर सृष्टि दुःखद नहीं है। किंतु ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’, ‘यह मैं नहीं हूँ और यह मेरा नहीं है’ – यह जीव की बनायी हुई सृष्टि है, जो दुःखद है। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ का कहना है कि आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। अर्थात् आनन्द से ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं। तो ईश्वर की सृष्टि का उपादान तो आनंद है। सृष्टि आनन्द से निकली है, आनंद में स्थित है, आनंद में ही लीन हो जायेगी, अतः सृष्टि आनंदरूप है। हुआ यह कि ‘इतना मेरा, इतना तेरा’ – यह जो जीव ने मान लिया, इस जीव सृष्टि से ही दुःख निकल पड़ा। मनुष्य ने कभी विचार नहीं किया। यह विचार न करना ही अविद्या है, अज्ञान है।

मूल आत्म-परमात्म तत्व का विचार न करना तथा बुद्धि के राग-द्वेष में, मन के विकारी आकर्षण में और झूठ की आपाधापी में सत् बुद्धि करके उलझना दुःखों और जन्म मरण का मूल है।

पूज्य बापू जी कहते हैं कि “अपना सहज स्वभाव, शाश्वत स्वभाव जो जाग्रत को जानता है, वही स्वप्न को जानता है, वही गहरी नींद का अनुभव करता है, वही तुरीय तत्व अपना-आपा है। जिसको हम छोड़ नहीं सकते वह परब्रह्म-परमात्मा है। जिसको हम रख नहीं सकते वह संसार है, जीव की कल्पना का जगत है। सत्- जो सदा रहे। शरीर के पहले हम थे, बाद में हम रहेंगे, हम ‘सत्’ हैं। शरीर मिथ्या है, सुख-दुःख मिथ्या है। चिद्-हम ज्ञानस्वरूप हैं। हाथ को पता नहीं कि ‘मैं हाथ हूँ’, हमको पता है। मन-बुद्धि का भी हमको पता है। हम चिदरूप हैं। हाथ पैर, मन-बुद्धि को सुख नहीं हैं। हमारे सुखस्वभाव, आनंदस्वभाव से ही ये सुखी होते हैं। जिनको गुरुकृपा पच जाती है उनका यह कहना युक्तियुक्त हैः

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारो मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

ऐहिक संसार तो क्या, स्वर्ग और ब्रह्मलोक भी उस महापुरुष को आकर्षित नहीं कर सकते !

धन्या माता पिता धन्यो….. उसके माता पिता धन्य हैं। गोत्रं धन्यं कुलोद् भवः। उसका कुल गोत्र धन्य है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 14, अंक 262

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