Monthly Archives: November 2014

सर्दियों के लिए बल व पुष्टि का खजाना


रात को भिगोई हुई 1 चम्मच उड़द की दाल सुबह महीन पीसकर उसमें 2 चम्मच शुद्ध शहद मिला के चाटें। 1,1.30 घंटे बाद मिश्रीयुक्त दूध पियें। पूरी सर्दी यह प्रयोग करने से शरीर बलिष्ठ और सुडौल बनता है तथा वीर्य की वृद्धि होती है।

दूध के साथ शतावरी का 2-3 ग्राम चूर्ण लेने से दुबले पतले व्यक्ति, विशेषतः महिलाएँ कुछ ही दिनों में पुष्ट हो जाती हैं। यह चूर्ण स्नायू संस्थान को भी शक्ति देता है।

रात को भिगोई हुई 5-7 खजूर सुबह खाकर दूध पीना या सिंघाड़े का देशी घी में बना हलवा खाना शरीर के लिए पुष्टिकारक है।

रोज रात को सोते समय भुनी हुई सौंफ खाकर पानी पीने से दिमाग तथा आँखों की कमजोरी में लाभ होता है।

आँवला चूर्ण, घी तथा शहद समान मात्रा में मिलाकर रख लें। रोज सुबह एक चम्मच खाने से शरीर के बल, नेत्रज्योति, वीर्य तथा कांति में वृद्धि होती है। हड्डियाँ मजबूत बनती हैं।

100 ग्राम अश्वगंधा चूर्ण को 20 ग्राम घी में मिलाकर मिट्टी के पात्र में रख दें। सुबह 3 ग्राम चूर्ण दूध के साथ नियमित लेने से कुछ ही दिनों में बल वीर्य की वृद्धि होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट बनता है।

शक्तिवर्धक खीरः

3 चम्मच गेहूँ का दलिया व 2 चम्मच खसखस रात को पानी में भिगो दें। प्रातः इसमें दूध और मिश्री डालकर पकायें। आवश्यकतानुसार मात्रा घटा—बढ़ा सकते हैं। यह खीर शक्तिवर्धक है।

हड्डी जोड़ने वाला हलवाः गेहूँ के आटे में गुड़ व 5 ग्राम बला चूर्ण डाल के बनाया गया हलवा (शीरा) खाने से टूटी हुई हड्डी शीघ्र जुड़ जाती है। दर्द में भी आराम होता है।

अपनायें आरोग्यरक्षक शक्तिवर्धक उपाय

सर्दियों में हरी अथवा सूखी मेथी का सेवन करने से 80 प्रकार के वायु रोगों में लाभ होता है।

सब प्रकार के उदर रोगों में मट्ठे और देशी गाय के मूत्र का सेवन अति लाभदायक है।

(गोमूत्र न मिल पाये तो गोझरण अर्क का उपयोग कर सकते हैं।)

भयंकर कमरदर्द और स्लिप्ड डिस्क का अनुभूत प्रयोग

ग्वारपाठे (घृतकुमारी) का छिलका उतारकर गूदे को कुचल के बारीक पीस लें। आवश्यकतानुसार आटा लेकर उसे देशी घी में गुलाबी होने तक सेंक लें। फिर उसमें ग्वारपाठे का गूदा मिलाकर सेंकें। जब घी छूटने लगे तब उसमें पिसी मिश्री मिला के 20-20 ग्राम के लड्डू बना लें। आवश्यकतानुसार तीन-चार सप्ताह तका रोज सुबह खाली पेट एक लड्डू खाते रहने से भयंकर कमरदर्द समाप्त हो जाता है।

सावधानीः देशी ग्वारपाठे का ही उपयोग करें, हाइब्रिड नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 28, अंक 263

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समत्वयोग की शक्ति व जीते जी मुक्ति की युक्ति देती है ‘गीता’ – पूज्य बापू जी


गीता जयन्ती – 2 दिसम्बर 2014

हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ।

सदगुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहिं ग्रंथ।।

सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसकी ‘श्रीमद् भगवदगीता’ के समान जयंती मनायी जाती हो। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कुरुक्षेत्र के मैदान में रणभेरियों के बीच योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर मनुष्यमात्र को गीता के द्वारा परम सुख, परम शान्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। गीता का ज्ञान जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति देने वाला है। गीता जयंती मोक्षदा एकादशी के दिन मनायी जाती है।

इस छोटे से ग्रंथ में जीवन की गहराइयों में छिपे हुए रत्नों को पाने की ऐसी कला है जिसे प्राप्त कर मनुष्य की हताशा-निराशा एवं दुःख-चिंताएँ मिट जाती है। गीता का अदभुत ज्ञान मानव को मुसीबतों के सिर पर पैर रख के उसके अपने परम वैभव को, परम साक्षी स्वभाव को, आत्मवैभव को प्राप्त कराने की ताकत रखता है। यह बीते हुए का शोक मिटा देता है। भविष्य का भय और वर्तमान की आसक्ति ज्ञान प्रकाश से छू हो जाती है। आत्मरस, आत्मसुख सहज प्राप्त हो जाता है। हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप ! यह दिव्य अनुभव, अपने दिव्य स्वभाव को जगाने वाली गीता है। ॐॐ… पा लो इस प्रसाद को, हो जाओ भय, चिंता, दुःख से पार !

गीता भगवान के अनुभव की पोथी है। वह भगवान का हृदय है। गीता के ज्ञान से विमुख होने के कारण ही आज का मानव दुःखी एवं अशांत है। दुःख एवं शोक से व्याकुल व्यक्ति भी गीता के दिव्य ज्ञान का अमृत पी के शांतिमय, आनंदमय जीवन जीकर मुक्तात्मा, महानात्मा स्वभाव को जान लेता है, जो वह वास्तव में है ही, गीता केवल जता देती है।

ज्ञान प्राप्ति की परम्परा तो यह है कि जिज्ञासु किसी शांत-एकांत व धार्मिक स्थान में जाकर रहे परंतु गीता ने तो गजब कर दिया ! युद्ध के मैदान में अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति करा दी। अरण्य की गुफा में धारणा, ध्यान, समाधि करने पर एकांत में ध्यानयोग प्रकट होता है परंतु गीता ने युद्ध के मैदान में ज्ञानयोग प्रकट कर दिया ! भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से अरण्य की विद्या को रणभूमि में प्रकट कर दिया, उनकी कितनी करूणा है !

आज के चिंताग्रस्त, अशांत मानव को गीता के ज्ञान की अत्यंत आवश्यकता है। भोग-विलास के आकर्षण व कूड़-कपट से प्रभावित होकर पतन की खाई में गिर रहे समाज को गीता ज्ञान सही दिशा में दिखाता है। उसे मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति, जीते जी ईश्वरीय शांति एवं अलौकिक आनंद की प्राप्ति तक सहजता से पहुँचा सकता है। अतः मानवता का कल्याण चाहने वाले पवित्रात्माओं को गीता-ज्ञान घर-घर तक पहुँचाने में लगना चाहिए।

वेदों की दुर्लभ एवं अथाह ज्ञानराशि को सर्वसुलभ बनाकर अपने में सँजोने वाला गीता ग्रंथ बड़ा अदभुत है ! मनुष्य के पास 3 ईश्वरीय शक्तियाँ मुख्य रूप से होती हैं। पहली करने की शक्ति, दूसरी मानने की शक्ति तथा तीसरी जानने की शक्ति। अलग-अलग मनुष्यों में इन शक्तियों का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। किसी के पास कर्म करने का उत्साह है, किसी के हृदय में भावों की प्रधानता है तो किसी को कुछ जानने की जिज्ञासा अधिक है। जब ऐसे तीनों प्रकार के व्यक्ति मनुष्य जन्म के वास्तविक लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो उन्हें उनकी योग्यता के अनुकूल साधना की आवश्यकता पड़ती है। श्रीमद भगवदगीता एक ऐसा अदभुत ग्रंथ है जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग तीनों की साधनाओं का समावेश है।

लोकमान्य तिलक एवं गाँधीजी ने गीता से कर्मयोग को लिया, रामानुजाचार्य एवं मध्वाचार्य आदि ने इसमें भक्तिरस को देखा तथा श्री उड़िया बाबा जैसे श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ताओं ने इसके ज्ञान का प्रकाश फैलाया। संत ज्ञानेश्वर महाराज, साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज एवं अन्य कुछ महापुरुषों ने गीता में सभी मार्गों की पूर्णता को देखा।

गीता किसी मत मजहब को चलाने वाले के द्वारा नहीं कही गयी है अपितु जहाँ से सारे मत मजहब उपजते हैं और जिसमें लीन हो जाते हैं उस आदि सत्ता ने मानवमात्र के कल्याण के लिए गीता सुनायी है। गीता के किसी भी श्लोक में किसी भी मत मजहब की निंदा-स्तुति नहीं है।

गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शांति, धर्म आदि दैवी गुण सहज ही विकसित हो उठते हैं। अधर्म, अन्याय एवं शोषकों का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है। निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करने वाला, भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला यह गीता ग्रंथ पूरे विश्व में अद्वितिय है। अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है। यह मानवमात्र का मंगलकर्ता ग्रंथ है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 263

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सत्य कभी पराजित नहीं होता


संत महापुरुषों का हमेशा ही समाज को संगठित करके राष्ट्र को समृद्ध व शक्तिशाली बनाने का उद्देश्य रहा है। परंतु तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए दिग्भ्रमित हुए लोग अपने पदों का दुरुपयोग कर संतों-महापुरुषों व उनकी संस्थाओं पर अमानुषिक अत्याचार करते आये हैं।

समाजसेवा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपना एक आदर्श स्थान है। एक समय था जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकरजी थे। उनका जन्म 19 फरवरी 1906 को नागपुर में हुआ था। उनका जीवन पिता श्री सदाशिवराव और माता श्रीमती लक्ष्मीबाई से प्राप्त सदगुणों से सुसम्पन्न था। उन्होंने एक संत से भगवन्नाम की दीक्षा लेकर आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की। साधनामय जीवन से उनके मन में वैराग्य का सागर उमड़ने लगा इसलिए उऩ्हें आज्ञा दी कि “समाजसेवा में हिमालय का दर्शन करो”।  गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके वे संघ से जुड़ कर समाजसेवा में तत्परता से लग गये। वे सदैव स्वयंसेवकों में धैर्य, उत्साह, साहस का संचार करते थे। गुरुनिष्ठा, गुरुआज्ञा-पालन, देशप्रेम जैसे सदगुणों के कारण विपरीत परिस्थितियों में भी वे कभी विचलित नहीं हुए।

गुरु गोलवलकरजी की गिरफ्तारी

सदियों से यह परम्परा चली आयी है कि राष्ट्रहित में कार्य करने वालों को अग्निपरीक्षा तो देनी ही पड़ती है। रा.स्व.संघ को भी इस कसौटी से गुजरना पड़ा। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या हुई। स्वार्थी तत्तवों को अपनी स्वार्थपूर्ति का एक अच्छा अवसर मिल गया। वे संघ का कुप्रचार और गांधी जी की हत्या का संबंध संघ से जोड़कर स्वयंसेवकों पर अत्याचार करने लगे।

1 फरवरी 1948 को वारंट जारी कर रात्रि 12 बजे गोलवलकरजी को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने स्वयं सेवकों से कहाः “घबराने की कोई बात नहीं है। हम लोग निष्कलंक बाहर आयेंगे। तब तक हम पर अनेकों अत्याचार होंगे पर हमें उन्हें धैर्य और शांति के साथ सहना है।”

अत्याचार का ताँता यहाँ खत्म नहीं हुआ। 4 फरवरी 1948 को सरकार ने संघ को अवैध घोषित कर दिया। लगभग 20000 स्वयंसेवकों को बिना किसी जाँच-पड़ताल के जेल में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद ही सरकार को गोलवलकरजी पर से गांधी जी की हत्या का अभियोग वापस लेना पड़ा।

जब सरकार और संघ के बीच विचार-विनिमय के सभी प्रयास असफल हो गये तो गोलवलकरजी को पुनः नागपुर जेल में डाल दिया गया। धर्म और अधर्म के इस युद्ध में धर्म के पलड़े को हलका होते देख गोलवलकरजी से सहा न गया और उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन का राष्ट्रव्यापी आह्वान कर दिया। इस आह्वान पर देशप्रेमी स्वयंसेवकों तथा आम जनता ने संघ प लगा प्रतिबंध हटाने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन किया। परंतु अत्याचारियों ने अत्याचार की सीमा पार कर सत्याग्रहियों की एकता और उत्साह को तोड़ने के लिए लगभग 80 हजार स्वयं सेवकों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दीं।

जनता की माँग व सत्याग्रह में सत्य का पक्ष लेने वालों की लाखों की संख्या को देखकर और लगाये गये इल्जामों का कोई ठोस सबूत नहीं मिलने के कारण सरकार ने संघ पर से प्रतिबंध हटा दिया और गोलवलकरजी को जेल से बाइज्जत रिहा कर दिया । दो वर्ष भ्रामक दुष्प्रचार के बावजूद संघ और गोलवलकरजी जनता के शिरोभूषण बन गये। उनके लिए स्वागत सभाओं का आयोजन किया गया, जिनमें लाखों लोग आये।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गोलवलकरजी की सच्चाई जनमानस तक पहुँची। जिनके हृदय में परहित की भावना है और जो सत्य के रास्ते चलते हैं, उनके आगे कितनी भी दुःख-मुसीबतों की आँधियाँ आयें फिर भी वे उन्हें डिगा नहीं सकतीं। सत्यमेव जयते। जीत देर-सवेर सत्य की ही होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 16-17, अंक 263

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