भगवान के लिए असहनीय क्या है ?

भगवान के लिए असहनीय क्या है ?


भारतीय सत्शास्त्र-श्रृंखला की रसमय पुष्पमाला का एक मनोहर पुष्प है ‘श्री आनंद रामायण !’ वाल्मीकि एवं तुलसी कृत रामायणों की तरह यह भी अति रोचक, ज्ञानप्रद एवं रसमय शास्त्र है। आइये, भर लें एक घूँट इस सत्शास्त्र-अमृत का…

द्वापर युग की बात है। एक दिन अर्जुन समुद्र तट पर घूम रहे थे, तभी उन्होंने एक पर्वत पर एक साधारण सा वानर देखा, जो रामनाम जप रहा था। अर्जुन ने पूछाः “हे वानर ! तुम कौन हो ?”

वह बोलाः “जिसके प्रताप से रामजी ने समुद्र पर सौ योजन लम्बा सेतु बनाया था, मैं वही वायुपुत्र हनुमान हूँ।”

इस तरह के वचन सुनकर अर्जुन भी गर्व से बोलेः “राम जी ने व्यर्थ ही इतना कष्ट उठाया। बाणों का सेतु क्यों नहीं बना लिया ?”

“हम जैसे बड़े-बड़े वानरों के बोझ से वह बाणों का सेतु टूट जाता, यही सोचकर उन्होंने ऐसा नहीं किया।”

“यदि वानरों के बोझ से सेतु के टूट जाने का भय हो तो धनुर्धारी की विद्या की क्या विशेषता ! मैं अभी अपने कौशल से बाणों का सेतु बनाता हूँ, तुम  उस पर आनंद से नाचो-कूदो।”

“यदि मेरे पैर के अँगूठे के बोझ से ही आपका बनाया सेतु टूट जाये तो ?”

“यदि तुम्हारे भार से सेतु टूट जायेगा तो मैं चिता जलाकर अपने प्राण त्याग दूँगा। अब तुम भी कोई शर्त लगाओ।”

“यदि मैं अँगूठे के भार से तुम्हारे सेतु को न तोड़ सका तो तुम्हारे रथ की ध्वजा के पास बैठकर जीवनभर तुम्हारी सहायता करूँगा।”

तब अर्जुन ने अपने बाणों से एक मजबूत सेतु बना दिया। हनुमान जी ने उनके सामने ही अपने पैर के अँगूठे से उसे तोड़ दिया। खिन्न होकर अर्जुन ने वहीं चिता बनायी और हनुमान जी के रोकने पर भी उसमें कूदने को तैयार हो गये। तभी भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी का रूप धरकर आये और अर्जुन से चिता में कूदने का कारण पूछा। अर्जुन ने सारी बात बता दी।

ब्रह्मचारीः “तुम लोगों ने जो शर्त लगायी थी उसका कोई साक्षी नहीं था, अतः वह निःसार थी। अब मैं साक्षी हूँ, तुम दोनों का मैं निर्णय करूँगा।”

अर्जुन ने पुनः सेतु की रचना की। हनुमान जी सेतु को पूर्ववत् अँगूठे से दबाने लगे लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने पूरी शक्ति लगा दी पर सेतु तिलभर भी नहीं हिला। हनुमान जी समझ गये कि ये साधारण ब्रह्मचारी नहीं हैं। हनुमानजी ने प्रणाम करके पूछाः “प्रभु ! आप कौन हैं ?” ब्रह्मचारी भगवान कृष्णरूप में आ गये और हनुमान जी को हृदय से लगा लिया।

भगवानः “हनुमान ! त्रेता में मैंने तुम्हें वरदान दिया था कि द्वापर के अंत में मैं तुम्हें कृष्णरूप में दर्शन दूँगा। इस सेतु के बहाने मैंने अपना वरदान आज पूरा कर दिया। मैंने ही सेतु के नीचे अपना सुदर्शन चक्र लगा दिया था, जिससे यह नहीं टूटा। तुम्हें अपने बल का गर्व हो गया था, इस कारण तुम पराजित हुए हो। इसी तरह अर्जुन को अपनी विद्या का अहंकार हो गया था इसलिए तुमने अर्जुन की धनुर्विद्या व्यर्थ कर दी। अब तुम दोनों का गर्व नष्ट हो गया है। हनुमान जी ! तुम अपनी शर्त के अनुसार अर्जुन के रथ की ध्वजा में प्रतीक के रूप में रहोगे। आज से अर्जुन ‘कपिध्वज’ के नाम से जाने जायेंगे।”

श्री हनुमानजी, अर्जुन एवं भगवान श्रीकृष्ण ने इस लीला के द्वारा हमें यह संदेश दिया है कि भगवान सब कुछ सहन कर लेते हैं पर अपने भक्त का अहंकार नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 20, अंक 264

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