Monthly Archives: December 2014

भगवान के लिए असहनीय क्या है ?


भारतीय सत्शास्त्र-श्रृंखला की रसमय पुष्पमाला का एक मनोहर पुष्प है ‘श्री आनंद रामायण !’ वाल्मीकि एवं तुलसी कृत रामायणों की तरह यह भी अति रोचक, ज्ञानप्रद एवं रसमय शास्त्र है। आइये, भर लें एक घूँट इस सत्शास्त्र-अमृत का…

द्वापर युग की बात है। एक दिन अर्जुन समुद्र तट पर घूम रहे थे, तभी उन्होंने एक पर्वत पर एक साधारण सा वानर देखा, जो रामनाम जप रहा था। अर्जुन ने पूछाः “हे वानर ! तुम कौन हो ?”

वह बोलाः “जिसके प्रताप से रामजी ने समुद्र पर सौ योजन लम्बा सेतु बनाया था, मैं वही वायुपुत्र हनुमान हूँ।”

इस तरह के वचन सुनकर अर्जुन भी गर्व से बोलेः “राम जी ने व्यर्थ ही इतना कष्ट उठाया। बाणों का सेतु क्यों नहीं बना लिया ?”

“हम जैसे बड़े-बड़े वानरों के बोझ से वह बाणों का सेतु टूट जाता, यही सोचकर उन्होंने ऐसा नहीं किया।”

“यदि वानरों के बोझ से सेतु के टूट जाने का भय हो तो धनुर्धारी की विद्या की क्या विशेषता ! मैं अभी अपने कौशल से बाणों का सेतु बनाता हूँ, तुम  उस पर आनंद से नाचो-कूदो।”

“यदि मेरे पैर के अँगूठे के बोझ से ही आपका बनाया सेतु टूट जाये तो ?”

“यदि तुम्हारे भार से सेतु टूट जायेगा तो मैं चिता जलाकर अपने प्राण त्याग दूँगा। अब तुम भी कोई शर्त लगाओ।”

“यदि मैं अँगूठे के भार से तुम्हारे सेतु को न तोड़ सका तो तुम्हारे रथ की ध्वजा के पास बैठकर जीवनभर तुम्हारी सहायता करूँगा।”

तब अर्जुन ने अपने बाणों से एक मजबूत सेतु बना दिया। हनुमान जी ने उनके सामने ही अपने पैर के अँगूठे से उसे तोड़ दिया। खिन्न होकर अर्जुन ने वहीं चिता बनायी और हनुमान जी के रोकने पर भी उसमें कूदने को तैयार हो गये। तभी भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मचारी का रूप धरकर आये और अर्जुन से चिता में कूदने का कारण पूछा। अर्जुन ने सारी बात बता दी।

ब्रह्मचारीः “तुम लोगों ने जो शर्त लगायी थी उसका कोई साक्षी नहीं था, अतः वह निःसार थी। अब मैं साक्षी हूँ, तुम दोनों का मैं निर्णय करूँगा।”

अर्जुन ने पुनः सेतु की रचना की। हनुमान जी सेतु को पूर्ववत् अँगूठे से दबाने लगे लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने पूरी शक्ति लगा दी पर सेतु तिलभर भी नहीं हिला। हनुमान जी समझ गये कि ये साधारण ब्रह्मचारी नहीं हैं। हनुमानजी ने प्रणाम करके पूछाः “प्रभु ! आप कौन हैं ?” ब्रह्मचारी भगवान कृष्णरूप में आ गये और हनुमान जी को हृदय से लगा लिया।

भगवानः “हनुमान ! त्रेता में मैंने तुम्हें वरदान दिया था कि द्वापर के अंत में मैं तुम्हें कृष्णरूप में दर्शन दूँगा। इस सेतु के बहाने मैंने अपना वरदान आज पूरा कर दिया। मैंने ही सेतु के नीचे अपना सुदर्शन चक्र लगा दिया था, जिससे यह नहीं टूटा। तुम्हें अपने बल का गर्व हो गया था, इस कारण तुम पराजित हुए हो। इसी तरह अर्जुन को अपनी विद्या का अहंकार हो गया था इसलिए तुमने अर्जुन की धनुर्विद्या व्यर्थ कर दी। अब तुम दोनों का गर्व नष्ट हो गया है। हनुमान जी ! तुम अपनी शर्त के अनुसार अर्जुन के रथ की ध्वजा में प्रतीक के रूप में रहोगे। आज से अर्जुन ‘कपिध्वज’ के नाम से जाने जायेंगे।”

श्री हनुमानजी, अर्जुन एवं भगवान श्रीकृष्ण ने इस लीला के द्वारा हमें यह संदेश दिया है कि भगवान सब कुछ सहन कर लेते हैं पर अपने भक्त का अहंकार नहीं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 20, अंक 264

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ज्ञानी हैं महादानी – पूज्य बापू जी


आठ प्रकार के दान होते हैं। अऩ्नदान, भूमिदान, कन्यादान, गोदान, गोरसदान, सुवर्ण दान, विद्यादान और आठवाँ है अभयदान। लेकिन भगवद्-प्रसाद दान सर्वोपरि दान है जो तीन प्रकार का होता है। उसमें जो क्रियाजन्य दान है – रूपया पैसा, सेवा…. वह देश, काल पात्र देखकर किया जाता है। दूसरा जो भक्तिजन्य दान है, उसमें पात्र-अपात्र कुछ नहीं, भगवान के नाते भक्तिदान करो, उसे शांति मिले, प्रीति मिले, भगवान की प्यास जगे। प्यास और तृप्ति, प्यास और तृप्ति… करते करते वह परम तृप्त अवस्ता को पहुँच जायेगा, यह भक्तिदान है। भक्तिदान में पात्रता के सोच-विचार की आवश्यकता नहीं रहती। सभी पात्र हैं, सभी भगवान के हैं, अल्लाह के हैं। तीसरा होता है ज्ञानदान। ज्ञान तीन प्रकार का है, इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान और इन दोनों को प्रकाशित करने वाला वास्तविक ज्ञान। उस वास्तविक ज्ञान-ब्रह्मज्ञान का दान दिया जाता है। इन्द्रियाँ दिखाती हैं कुछ, जैसे आकाश कड़ाही जैसा दिखता है, मरूभूमि में पानी दिखता है। इन्द्रियगत ज्ञान भ्रामक है, सीमित भी है, आकर्षण भी पैदा कर देता है और हल्की बात इन्द्रियाँ तुरंत खींच लेती हैं। पान-मसाला एक बार खाया तो चस्का लग  जायेगा लेकिन भगवान की तरफ एक बार चले तो हमेशा के लिए चलता रहेगा ऐसा कोई जरूरी नहीं है। इन्द्रियाँ विकारों की तरफ जल्दी खिसकती हैं और अच्छाई की तरफ तो सात दिन अभ्यास करो तब उस तरफ चलने की आदत पड़ती है। तो इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान – ये दोनों जिस शुद्ध ज्ञान, आत्मज्ञान से प्रकाशित होते है, उस ज्ञान का दान सर्वोपरि है। उस ज्ञान का दान करने वाले को ऐसा भी नहीं लगता की मैं यह दान कर रहा हूँ और ये लोग हमसे दान ले रहे हैं। वे महादानी तो आत्मभाव से, आत्मदृष्टि से सबको देखते हैं।

आठ प्रकार के दानों में आखिरी दान है भगवद्भक्ति या ज्ञानदान, सत्संगदान। सत्संगदान में तीन विभाग हुए कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग।

कर्मयोग में तो पात्रता के अनुसार जैसे ड्राइवर है उसको ड्राइवर की सेवा देंगे। भक्ति योग में पात्र कुपात्र नहीं देखा जाता। भक्ति का, भगवद्भाव का ज्ञान तो सबको दिया जाता है। जो आज्ञापालन में तत्पर हैं उनको तो ज्ञानदान ऐसा पच जाता है, जैसे सूरज होते ही प्रकाश दिखे। ज्ञानदान में भी एक ऐसी पराकाष्ठा है गुरुकृपा की और वेद भगवान की आप जप करो, योग करो, तप करो सब अच्छा है लेकिन भक्ति मार्ग में ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’- यह दृढ़ निष्ठा जप-अनुष्ठान व मालाओं से भी कई गुना ज्यादा फायदा करती है। जप-अनुष्ठान में यही निष्ठा रखें।

ऐसे ही ज्ञानमार्ग में है। ‘स्थूल शरीर से क्रिया होती है, यह जगत दिखता है और व्यवहार होता है। सूक्ष्म शरीर में सपने आते हैं, कारण शरीर में नींद आती है। ‘मैं’ इन सबको जानने वाला विभु, व्यापक, अबदल आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ’ – ऐसा जो निश्चय कर लेता है, उसकी सभी साधनाओं की पराकाष्ठा जल्दी हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 21, अंक 264

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

इस संस्कृति की सुरक्षा विश्वमानव की सेवा है


महापुरुषों के चरणों में असंख्य लोग जाते हैं। उनको सुख-शांति मिलती है, ज्ञान मिलता है, प्रेरणा मिलती है, आरोग्यता मिलती है…. न जाने कितना कुछ मिलता है रुषों के चरणों में असंख्य लोग जाते हैं। उनको सुख-शांति मिलती है, ज्ञान मिलता है, प्रेरणा मिलती है, आरोग्यता मिलती है…. न जाने कितना कुछ मिलता है। बदले में लोग कुछ दें तो महापुरुष फिर वे चीजें भी समाज की उन्नति के लिए लगा देते हैं। ऐसे संतों के लिए भी कुछ का कुछ कुप्रचार करने वाले और षडयंत्र रचने वाले लोग अनादिकाल से चले आ रहे हैं।

गुरुनानक देव जी ने क्या लिया? रूखी सूखी रोटी ली, कभी कणा प्रसाद खाया होगा। यात्रा के लिए कभी पैदल तो कभी रथ में बैठे होंगे। इतनी सारी मुसीबतें सही जिन महापुरुष ने, उनको भी नालायक लोगों ने बाबर की जेल में धकेल दिया, दुनिया जानती है। ऐसे ही सुकरात को दुष्ट लोगों ने ऐसे चक्कर में ला दिया कि उनको सरकारी तौर से मृत्युदण्ड घोषित हो गया। हम मंसूर को खूब-खूब स्नेह करते हैं, प्रणाम भी करते हैं ऐसे महापुरुष को ! मजहबवादियों ने राजा को उकसाया और आखिर मंसूर के सिर पर फटकार दी गयी शूली की सजा। क्या नानकजी को कमी थी कि इधर से उधर दौड़ धूप करते थे ? नहीं। भवसागर से पार कराने वाली नाव में आप जैसों को बैठाने के लिए वे महापुरुष तकलीफें सहते थे।

श्री रामकृष्ण परमहंस कहो, स्वामी विवेकानंद कहो, स्वामी रामतीर्थ कहो, भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी कहो, ये जो भी विमल विवेक के पाये हुए महापुरुष हैं, वे कुछ न कुछ खूँटा लगा के रखते हैं ताकि वे लोगों के बीच उठने बैठने के काबिल रहें। नहीं तो बैठे, बंद हो गयी आँखें, समाधि हो गयी।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

फिर भी इच्छा रखते हैं कि ‘अच्छा भाई ! शांत रहो, शोर मत करो, ऐसे करो…..’ यह क्यों करते कराते हैं ? उनको क्या लेना देना है ! लेकिन व्यवहार में आपके जैसा ही व्यवहार करेंगे। यह एक खूँटी लगा दी।

ऐसे महापुरुष जब हयात होते हैं, तब उनके साथ बड़ा अन्याय होता है। फिर भी वे महापुरुष सब सह लेते हैं। पाँच पचीस मूर्खों के कारण करोड़ों लोगों से यह नाव छीन लूँ क्या मैं ? नहीं, नहीं। कितना सहा होगा उन महापुरुषों ने ! फिर भी तुम्हारे बीच टिके रहे, डटे रहे। तुम क्या दे सकते हो उनको ? तुम्हारे पास देने को है भी क्या ? आत्मधन से तो तुम कंगले हो और नश्वर धन को तो वे लात मारकर महापुरुष हुए हैं।

कबीर जी ने क्या बिगाड़ा था ? काशीनरेश मत्था टेकते हैं और बाद में वे ही काशी नरेश कबीर जी को मुजरिम बनाकर अपने न्यायालय में खड़ा कर देते हैं। हालाँकि उन महापुरुषों का कोई दुश्मन नहीं होता लेकिन अभी भी देखते हैं कि समाज का कहीं शोषण होता है या लोग देश को खंड खंड करने का षडयंत्र कर रहे हैं तो हम लोगों को भी सच्चाई बोलनी पड़ती है और फिर उनकी नजर में हम लोग दुश्मन जैसे लगते हैं। वे लोग भी हमारा कुप्रचार खूब करते हैं। जिनके धंधे खराब होंगे या जिनकी दुष्ट मुरादें नाकामयाब होंगी, वे दुष्ट लोग कुछ-न-कुछ तो हमारे लिए भी बकेंगे, करेंगे। सीधी बात है ! वह सब सहन करके भी तुमको जगाने के पीछे लगे हैं, उनका दिल कितना तुम्हारे लिए उदार है !

कबीर जी की निंदा होने लगी, अफवाहें होने लगीं। क्या के क्या आरोप लगने लगे ! आखिर कुछ लोग बिखर गये। कुछ लोग श्रद्धालु थे, बोलेः “संतों के खिलाफ तो ये नालायक लोग षडयंत्र करते रहते हैं।” भगवान राम के गुरु थे वसिष्ठजी महाराज, उन पर भी लोग आरोप करते थे। हमारे लिए भी कुछ लोग बोलते हैं- ‘बापू ने फलाने को यह कर दिया…..।’ ऐसा-ऐसा बकते हैं, ऐसे-ऐसे पर्चे छपवाते हैं, बाँटते हैं ! नारायण (पूज्य बापू जी के सुपुत्र) के लिए कुछ-का-कुछ छपवाते हैं, बाँटते हैं। कैसे-कैसे षडयन्त्र ! कैसी-कैसी अफवाहें ! क्या-क्या बातें बनाते हैं ! यह अभी से नहीं, पिछले 30 सालों से चल रहा है।

ऐसे लोग मेरे गुरु जी के पास जातेः “बापू ने हमारे को यह कर दिया, वह कर दिया…..।” गुरु जी बोलेः “खबरदार ! इसकी शादी हुई, सुंदर पत्नी और परिवार को छोड़ के मेरे पास रहा है। इस लड़के को मैं जानता हूँ।”

मोटेरा आश्रम जो साबरमती तट पर बना है, उसके चारों तरफ खाइयाँ थीं। आधा-एक-बीघा समतल जमीन थी बस, बाकी अपन लोगों ने भरकर समतल की। चारों तरफ दारू की 40-40 भट्ठियाँ चलती थीं। पुलिस आ जाय तो पुलिस की पिटाई करके उनको वापस भेज देते। ऐसी जगह पर जब आश्रम बनाया होगा तो कितने विघ्न आये होंगे, जरा सोचो ! अभी तीर्थधाम बन गया है। दारू की 40 भट्ठियाँ बन्द हुईं तो उनके मालिक और भट्टी चलाने वाले हो जो लोग होंगे, उनको कैसा लगा होगा ? लेकिन अब वे सन्मार्ग में लगे और उनकी आजीविका अच्छी चल गयी तो अभी वे खुश हैं। यहाँ मत्था टेकते हैं बेचारे। लेकिन पहले तो उन्होंने भी खूब सुनायी। उस समय अफवाह और कुप्रचार करने वालों की एक चैनल बनी थी (गुट बना था)। कुछ अखबार तो पैसे लेकर ऐसा-ऐसा लिखते कि महाराज ! आप पढ़ो तो आपको लगे कि ये बाबा नहीं हैं…..।

हम कोई ऐसे ही बापू जी होकर पूजे जा रहे हैं क्या ? तुम्हारी उन्नति के लिए हम सब कुछ सह रहे हैं और इससे 10 गुना सहने की हमारी तैयारी है। हम किसी का बुरा नहीं सोचते हैं, न करते हैं लेकिन हमारी बुराई के लिए कोई करता है तो हम यही कहते हैं-

जिसने दिया दर्दे दिल उसका प्रभु भला करे।….

हम सचमुच में भाग्यशाली है ! ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत भारत में ही मिल पाते हैं। भगवान के अवतार भारत में होते हैं और यहीं का प्रसाद देश-विदेश में प्रसारित होता है। कुंडलिनी शक्ति जागृत करने का सामर्थ्य भी भारत के संतों ने विदेश में फैलाया और विदेश के लोग वह सीखकर अपना व्यापार-भाव से प्रचार कर रहे हैं। सारा विश्व मंगलमय हो ! हमारा किसी जाति, सम्प्रदाय, पंथ से कोई विरोध नहीं है परंतु जिस संस्कृति में हम जन्में हैं उसकी रक्षा करना हमारा दायित्व है। अतः हम उदार बन जायें, ठीक है लेकिन हम मूर्ख न बनें कि हमारी संस्कृति की जड़ें कटती जायें, हम आपस में ही लड़ते रहें।

हिन्दू ही हिन्दू संतों की अवहेलना कर लेते हैं, मुकद्दमेबाजी करवाते हैं। दूसरे मजहबवाले तो अपने फकीरों के लिए ऐसा नहीं सोचते, करते। ‘अपने ही लोगों के पैर काटो।’ कितने शर्म की बात है ! कितनी नासमझी की बात है ! परमात्मा का साक्षात्कार इसी जन्म में कर सकते हैं, इतनी ऊँचाइयाँ हमारी वैदिक संस्कृति में, हमारे महापुरुषों के पास अभी भी हैं और ऐसे वे महापुरुष धरती पर अभी भी मिल रहे हैं कि जो पराकाष्ठा तक पहुँचाने में सक्षम हैं। अतः इस संस्कृति की सुरक्षा करना, इस संस्कृति में आपस में संगठित रहना, यह मानव-जाति की, विश्वमानव की सेवा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 264

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ