Monthly Archives: March 2015

राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत भारतीय कालगणना


चैत्री नूतन वर्ष वि.सं. 2072 प्रारम्भः 21 मार्च
विक्रम संवत् भारतीय शौर्य, पराक्रम और अस्मिता का प्रतीक है। चैत्री नूतन वर्ष आने से पहले ही वृक्ष पल्लवित-पुष्पित, फलित होकर भूमंडल को सुसज्जित करने लगते हैं। यह बदलाव हमें नवीन परिवर्तन का आभास देने लगता है।
भारतीय कालगणना का महत्त्व
ग्रेगेरियन (अंग्रेजी) कैलेंडर की कालगणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है जबकि भारतीय कालगणना अति प्राचीन है। संवत्सर का उल्लेख ब्रह्माण्ड के सबसे प्राचीन ग्रन्थों में से एक यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र 45 व 15 में किया गया है।
भारतीय कालगणना मन-कल्पित नहीं है, यह खगोल सिद्धान्त व ब्रह्माण्ड के ग्रहों-नक्षत्रों की गति पर आधारित है। आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमशः बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण भी इसी आधार पर किया गया। विक्रम संवत में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों व दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह प्रकृति पर आधारित ऋषि-विज्ञान द्वारा किया गया है।
इस वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य कालगणना के अनुसरण के बावजूद सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, विवाह, मुण्डन आदि संस्कार एवं श्राद्ध, तर्पण आदि कर्मकाण्ड तथा महापुरुषों की जयंतियाँ व निर्वाण दिवस आदि आज भी भारतीय पंचांग-पद्धति के अनुसार ही मनाये जाते हैं।
विक्रम संवत् के स्मरणमात्र से राजा विक्रमादित्य और उनके विजय एवं स्वाभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का सर गर्व से ऊँचा होता है जबकि अंग्रेजी नववर्ष का अपने देश की संस्कृति से कोई नाता नहीं है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा थाः “यदि हमे गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अंतर्मन में राष्ट्रभक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाये रखने वाले परकीयों के दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म-गौरव खो बैठता है।”
महात्मा गाँधी ने अपनी हरिजन पत्रिका में लिखा थाः “स्वराज्य का अर्थ है – स्व-संस्कृति, स्वधर्म एवं स्व-परम्पराओं का हृदय से निर्वहन करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है, न आस्थावान।”
पूज्य बापू जी कहते हैं- “आप भारतीय संस्कृति के अनुसार भगवदभक्ति के गीत से ‘चैत्री नूतन वर्ष’ मनायें। आप सब अपने बच्चों तथा आसपास के वातावरण को भारतीय संस्कृति में मजबूत रखें। यह भी एक प्रकार की देशसेवा होगी, मानवता की सेवा होगी।”
इस दिन सामूहिक भजन संकीर्तन व प्रभातफेरी का आयोजन करें। भारतीय संस्कृति तथा गुरु ज्ञान से, महापुरुषों के ज्ञान से सभी का जीवन उन्नत हो। इस प्रकार एक दूसरे की बधाई संदेश देकर नववर्ष का स्वागत करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 10 अंक 267
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भवसिंधु पार उतारणहारः भगवन्नाम


ऋगवेद (4.1.1) में आता हैः
अमर्त्यं यजत मर्त्येषु।
‘हे विद्वान लोगो ! मरणधर्मवालों में मरणधर्म से रहित परमात्मा की पूजा करो।’
मरने वाले मनुष्य-शरीर के प्रस्थान की कोई निश्चित घड़ी, क्षण नहीं है। उसके समुद्धार के लिए कलियुग में भगवन्नाम ही एकमात्र उत्तम आधार है।
नामु सप्रेम जपत अनायासा।
यह सप्रेम नाम-जप इस कलियुग में अनायास साधन है। इसकी साधना में कोई विशेष आडम्बर, विधि-विधान या साधनों की आवश्यकता नहीं है। यह ऐसा रस है कि जितना चखो उतना ही दिव्य व मधुर लगता है। यह नाम-प्रेम ऐसा है कि पीने से तृप्ति नहीं होती, प्यास और बढ़ती है। पीने से आनंद होता है और अधिकाधिक पीने की लालसा उत्कट होती जाती है। ऐसा कौन पुण्यात्मा बुद्धिमान होगा जो ऐसे द्विगुण नाम-रस को छोड़ कर संसार के रस, जो कि इसकी तुलना में सदैव फीके हैं एवं उनके चखने से ही शक्ति का क्षय, रोग, पराधीनता और जड़ता अवश्यंभावी है, ऐसे नश्वर भोगसुख, वासना विकारों में लिप्त होगा ?
भगवन्नाम-कीर्तन, भगवत्स्मृति, भगवद्शांति, भगवद्-आनंद से भक्त और भगवान दोनों एक हो जाते हैं, भक्त ब्रह्ममय हो जाता है। भगवान कहते हैं कि ‘त्रिभुवन की लक्ष्मी, भोग, मान, यश आदि सुखों को नीरस गिनने वाले जो भक्त मेरा कीर्तन करते हुए नृत्य करते हैं उनके द्वारा मैं खरीदा गया हूँ।’
भगवान देवर्षि नारद जी से कहते हैं-
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। (पद्म पुराण, उ. खंड. 94.23)
हे नारद ! मैं कभी वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ परन्तु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं, वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।
ऐसे भगवान को वश में करने वाले ईश्वर-प्रेमी भगवदगुण-नाम कीर्तन करके भगवान में अखण्ड स्थिति प्राप्त कर लेते हैं। भगवान गुण, रूप, माधुर्य, तेज, सुख, दया, करुणा, सौहार्द, क्षमा और प्रेम के सागर हैं। जगत में कहीं भी, इनमें से किसी भी गुण का कोई भी अंश दिखने में आता है तो वह सारा का सारा परमेश्वर के उस अनंत भण्डार में से ही आता है। भगवन्नाम-कीर्तन करने वाले भक्त अनंत सुखराशि, आनंदघन भगवान के हृदय के साथ अपना ताल मिला लेते हैं, भगवान के हृदय के साथ अपना हृदय मिला लेते हैं। दुनियावी लोगों के लिए जो दुःखालय है, वही संसार भगवान के प्यारे के लिए भगवान की लीलाकृतिस्वरूप सुखालय बन जाता है। उसकी हर एक रचना भक्त को भगवान की स्मृति कराती है। स्वर और व्यञ्जन उसके शब्दब्रह्म बन जाते है। उसे दृश्यमात्र में भगवान की अलौकिक आभा, ज्योतिपुंज दिखाई देता है।
धन्य है ऐसे भक्त, जिन्होंने भक्ति के साथ संयम और तत्परता से भुवनों को पावन कर दिया और अपने ब्रह्म स्वभाव में, ‘सोऽहम्’ स्वभाव में सजग हो गये !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 21 अंक 267
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान श्रीराम की गुणग्राही दृष्टि


(श्रीराम नवमीः 28 मार्च)
जब हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराते हैं, तब सुग्रीव अपना दुःख, अपनी असमर्थता, अपने हृदय की हर बात भगवान के सामने निष्कपट भाव से रख देता है। सुग्रीव की निखालिसता से प्रभु गदगद हो जाते हैं। तब सुग्रीव को धीरज बँधाते हुए भगवान श्रीराम प्रतिज्ञा करते हैं-
सुनु सुग्रीव मारिहुँ बालिहि एकहिं बान।…. (श्रीरामचरित. कि.कां. 6)
“सुग्रीव ! मैं एक ही बाण से बालि का वध करूँगा। तुम किष्किन्धापुरी जाकर बालि को चुनौती दो।” सुग्रीव आश्चर्य से भगवान का मुँह देखने लगे, बोलेः “प्रभो ! बालि को आप मारेंगे या मैं ?”
भगवान बोलेः) “मैं मारूँगा।”
“तो फिर मुझे क्यों भेज रहे हैं ?”
“लड़ोगे तुम और मारूँगा मैं।”
भगवान का संकेत है कि ‘पुरुषार्थ तो जीव को करना है परंतु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है।’
लक्ष्मणजी ने भगवान श्रीराम से पूछाः “प्रभो ! सुग्रीव की सारी कथा सुनकर तो यही लगता है कि भागना ही उसका चरित्र है। आपने क्या सोचकर उससे मित्रता की है ?”
रामजी हँसकर बोलेः “लक्ष्मण ! उसके दूसरे पक्ष को भी तो देखो। तुम्हें लगता है कि सुग्रीव दुर्बल है और बालि बलवान है पर जब सुग्रीव भागा और बालि ने उसका पीछा किया तो वह सुग्रीव को नहीं पकड़ सका। भागने की ऐसी कला कि अभिमानरूपी बालि हमें बन्दी न बना सके। और सुग्रीप पता लगाने की कला में भी कितना निपुण और विलक्षण है ! उसने पता लगा लिया कि बालि अन्य सभी जगह जा सकता है परन्तु ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जा सकता। सीता जी का पता लगाने के लिए इससे बढ़कर उपयुक्त पात्र दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।”
जब सुग्रीव बालि से हारकर आया तो भगवान राम ने उसे माला पहनायी। लक्ष्मण जी ने भगवान श्रीराम से कहाः “आपने तो सृष्टि का नियम ही बदल दिया। जीतने वाले को माला पहनाते तो देखा है पर हारने वाले को माला…..!” प्रभु मुस्कराये और बोलेः “संसार में तो जीतने वालों को ही सम्मान दिया जाता है परंतु मेरे यहाँ जो हार जाता है, उसे ही मैं माला पहनाता हूँ।” भगवान राम का अभिप्राय यह है कि सुग्रीव को अपनी असमर्थताओं का भलीभाँति बोध है। कुछ लोग असमर्थता की अनुभूति के बाद अपने जीवन से हतोत्साहित हो जाते हैं पर जो लोग स्वयं को असमर्थ जानकर सर्वसमर्थ भगवान व सदगुरु की सम्पूर्ण शरणागति स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें जीवन की चरम सार्थकता की उपलब्धि हो जाती है।
लक्ष्मणजी पूछते हैं- “महाराज ! नवधा भक्ति में कौन-कौन सी भक्ति आपको सुग्रीव में दिखाई दे रही है।” प्रभु ने कहाः “प्रथम भी दिखाई दे रही है और नौवीं भी – प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा। हनुमान जी जैसे संत इन्हें प्राप्त हैं। नवम सरल सब सन छलहीना। अंतःकरण में सरलता और निश्छलता है। अपनी आत्मकथा सुनाते समय सुग्रीव ने अपने भागने को, अपनी पराजय को, अपनी दुर्बलता को कहीं भी छिपाने की चेष्टा नहीं की।”
सुग्रीव के चरित्र का एक अन्य श्रेष्ठ पक्ष है ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना। वहाँ ऋषि लोग मूक (मौन) होकर निवास करते थे। ऋष्यमूक पर्वत पर बालि नहीं आ सकता था। सुग्रीव जब उस पर्वत से नीचे उतर आता है तो उसे बालि का डर बना रहता था। यहाँ पर संकेत है कि जब तक हम महापुरुषों के सत्संगरूपी ऋष्यमूक पर्वत पर बैठते हैं, सत्संग से प्राप्त ज्ञान का आदर करते हैं, तब तक सब ठीक रहता है परंतु ज्यों ही सत्संग के उच्च विचारों से मन नीचे आता है तो फिर से अभिमानरूपी बालि का भय बना रहता है।
हनुमानजी ने बालि का नहीं सुग्रीव का साथ दिया। हनुमानजी शंकरजी के अंशावतार हैं और भगवान शंकर मूर्तिमान विश्वास हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन में चाहे सब चला जाय पर विश्वास न जाने पाये। जिसने विश्वास खो दिया, निष्ठा खो दी उसने सब कुछ खो दिया। सब खोने के बाद भी जिसने भगवान और सदगुरु के प्रति विश्वास को साथ ले लिया, उसका सब कुछ सँजोया हुआ है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 267
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ