चार प्रकार के मानव

चार प्रकार के मानव


पूज्य बापू जी
अनादिकाल से यह संसार चलता आ रहा है और चलता रहेगा। इस संसार में करोड़ों व्यक्ति पैदा होते हैं और चले जाते हैं। इन सबमें मुख्य रूप से 4 प्रकार के लोग होते हैं-
एक होते हैं प्रवाही- जैसे नदी का प्रवाह बह रहा हो और उसमें तिनका गिरे तो वह प्रवाह के साथ बह जाता है, ऐसे ही जो चित्त के विकारों के बहाव में बह जाता है। काम आये तो काम में बह जाय और लोभ आये तो लोभ में बहकर लोभी बन जाय, ऐसे लोगों को प्रवाही बोलते हैं।
दूसरे होते हैं कर्मी- वे प्रवाह में बहते तो हैं पर थोड़ा विचार भी करते हैं कि ‘आखिर क्या ? काम, क्रोध, लोभ, मोह में कब तक बहते रहना ?’ वे थोड़ा व्रत-नियम ले लेते हैं, कुछ सत्कर्म कर लेते हैं और अपने को बहने से रोक लेते हैं। रुकने का मौका मिला तो रुक गये और प्रवाह का धक्का लगा तो किनारा छूट जाता है। जैसे, कोई पेड़ के तने सहारे रहकर अपने को बचाते हुए किनारे लग जाता है, वैसे ही धर्म-कर्मरूपी तने के सहारे किनारे लगते हैं किंतु जोरों का धक्का लगने पर पुनः बहने लगते हैं। इनमें जिन साधकों और भक्तों का समावेश होता है उन्हें कर्मी कहते हैं।
तीसरे होते हैं जिज्ञासु- कुछ विशेष दृढ़तावाले होते हैं जो दृढ़ विवेक-वैराग्य का सहारा लेकर उस प्रवाह से बच निकलते हैं और किनारे लगे रहने की कोशिश करते हैं, वे जिज्ञासु हैं। फिर प्रवाही लोग उनको खींचते हैं कि ‘हम बहे जा रहे हैं और आप क्यों किनारे लटके हो ? देखो, हम कैसे मजे से बह रहे हैं ! मजा आयेगा…. आप भी आ जाओ…. चलो, वैसे तो हम भी किनारे आना चाहते हैं। जब आयेंगे तब आयेंगे लेकिन अभी तो आप आ जाओ।’
अगर जिज्ञासु उनके चक्कर में आ जाता है तो वह कर्मियों की पंक्ति में आ जाता है और सावधान नहीं रहा तो प्रवाही भी हो सकता है। अगर वह अडिग रहता है तो वही जिज्ञासु मुमुक्षु बनकर फिर मुक्त हो जाता है, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है।
ब्रह्मज्ञानी है चौथा प्रकार- ऐसे ज्ञानी महापुरुष पहले तीन प्रकार के लोगों – प्रवाही, कर्मी, जिज्ञासु को जानते हैं और सबको अपने-अपने ढंग से किनारे लगाने में लगे रहते हैं। यदि सब मिलकर उनसे कहें कि ‘आप भी हमारे साथ चलो’ तो वे सब की बात टालेंगे नहीं वरन् कहेंगे कि ‘हाँ, हाँ, आयेंगे लेकिन पहले तुम किनारे लग जाओ, फिर हम देखेंगे कि आना है कि नहीं आना है।’ उन्हें बोलते हैं आत्मज्ञानी महापुरुष। ऐसे ज्ञानी तो कभी-कभी, कहीं-कहीं मिलते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आता है-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
‘बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।’ (गीता- 7-11)
वे महापुरुष एकांत में अपने ब्रह्मानंद की मस्ती छोड़कर आपके बीच आते हैं, आपके हजार-हजार प्रश्न सुनते हैं, जवाब देते हैं। प्रसाद लेते-देते हैं। क्यों ? इसीलिए कि शायद आप उस बहते प्रवाह की धारा में से थोड़ा किनारे लग जाओ। नहीं तो उन्हें ऐसी मजदूरी करने की क्या जरूरत ? ऐसे संत-महापुरुष दिन रात दूसरों के कल्याण हेतु परिश्रम करते रहते हैं फिर भी उनके लिए तो यह सब सहज स्वाभाविक एवं विनोदमात्र होता है।
विनोद मात्र व्यवहार जेनो ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।
‘मेरे गुरुदेव ने अगर ऐसा नहीं किया होता तो शायद मेरी जिज्ञासा पूरी नहीं होती’ ऐसा समझकर ही अब ब्रह्मवेता लोग आपके लिए यह सब कर रहे हैं। अतः आप कृपा करके मेरे गुरुदेव का दिखाया हुआ ज्ञानरूपी तना पकड़कर संसार प्रवाह से बचकर किनारे लग जाना। नियम-निष्ठारूपी आधार लेकर अपने उद्देश्य को याद करके किनारे की ओर आगे बढ़ते रहना। आपका उद्देश्य आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाना है, न कि संसार के प्रवाह में बहना, बार-बार जन्मना और मरना। इस बात की स्मृति बनाये रखना। आप जिस देश में रहो, जिस देश में रहो, हमें उससे कोई हर्ज नहीं है लेकिन जहाँ भी रहो, अपने आत्मा-परमात्मा में रहना, अपने सत्यस्वरूप की स्मृति बनाये रखना।
परमात्मा के नाते आपका और हमारा संबंध है। वह परमात्मा ही सबका आधार है। परमात्मा को जान लेना ही सर्व का सार है। जितना चलना चाहिए उतना चलना होगा, जितना चल सकते हो उतना नहीं। प्रभु के आशिक नींद में ग्रस्त नहीं होते, व्याकुल हृदय से तड़पते हुए प्रतीक्षा करते हैं। वे सदा जाग्रत रहते हैं, सदा सजग रहते हैं, विकारों में फिसलने से बचने हेतु जगते रहते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2015, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 272
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