Monthly Archives: September 2015

2 साल से क्यों हैं बापू जी जेल में ?


पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू अथक मेहनत करके देश को, देशवासियों को उन्नत करक रहे हैं। बापू जी सच्चाई से मानवता व संस्कृति की सेवा कर रहे हैं। यही कारण है कि बापू जी के विरूद्ध ईसाई मिशनरियाँ तथा विदेशी ताकतें मीडिया को मोहरा बनाकर षड्यंत्र करती रहती हैं। थोड़ा विस्तार से जानते हैं-
पूज्य बापू जी सबको मंत्र-चिकित्सा, ध्यान, प्राणायाम, सादा रहन-सहन, स्वदेशी वस्तुएँ एवं स्वदेशी आयुर्वेदिक चिकित्सा को अपनाने की सीख देते हैं, फूँकने-थूकने वाले ‘हैप्पी बर्थ-डे’ की जगह भारतीय पद्धति से जन्मदिवस मनाने की प्रेरणा देते हैं। इससे विदेशी कम्पनियों का प्रतिवर्ष कई हजार करोड़ का नुकसान हो रहा है।
बापू जी के सत्संग से लोगों में सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था बढ़ने से देशविरोधी तत्त्वों को तकलीफ होती है।
बापू जी धर्मांतरण वालों के लिए भारी रुकावट हैं इसलिए वे लोग सत्ता की सहायता से बापू जी और हिन्दू संतों को हर प्रकार से झूठे इल्जामों में फँसा रहे हैं। बापू जी आदिवासियों में अन्न, वस्त्र, बर्तन, गर्म भोजन के डिब्बे, कम्बल, दवाएँ, तेल आदि जीवनोपयोगी सामग्रियाँ बाँटते रहे हैं। इससे धर्मांतरण करने वालों का बोरिया-बिस्तर बँध जाता है।
कई मीडिया वाले पैसों के लिए तो कई टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए कुछ-का-कुछ दिखाते रहते हैं।
बापू जी की प्रेरणा से चल रहे ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ तथा गुरुकुलों व बाल संस्कार केन्द्रों के असाधारण प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थियों द्वारा ओजस्वी-तेजस्वी भारत का निर्माण हो रहा है।
बापू जी के सत्संग एवं उनकी प्रेरणा से चल रहे ‘व्यसनमुक्ति अभियान’ से करोड़ों लोगों की शराब, सिगरेट, गुटका आदि व्यसन छूटते हैं। साथ ही लोग अश्लील सामग्रियों से भी बचते हैं। इससे विदेशी कम्पनियों का खरबों रूपये का नुकसान होता है।
इनके अलावा और भी कई कारण हैं जिनसे कभी ईसाई मिशनरियाँ, कभी विदेशी कम्पनियाँ तो कभी कोई और, मीडिया को मोहरा बनाकर हिन्दू संस्कृति व बापू जी जैसे संतों के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते हैं। – श्री. दैवमत्तु, सम्पादक, ‘हिन्दू वॉइस’ मासिक पत्रिका
हिन्दू धर्म को मिटाने के लिए खुला षड्यंत्र
– सूझ बूझ के धनी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्थापक, अखिल विश्व गायत्री परिवार
“भारत में पादरियों का धर्म-प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षड्यंत्र है, जो कि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है। हिन्दुओं का तो यह धार्मिक कर्तव्य है कि वे ईसाइयों के षड्यंत्र से आत्मरक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दें और आज जो हिन्दुओं को लपेटती हुई ईसाइयत की लपट परोक्ष रूप से उनकी ओर बढ़ रही है, उसे यहीं पर बुझा दें। ऐसा करने से ही भारत में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बंधुत्व तथा सच्चे लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी अन्यथा आजादी को पुनः खतरे की सम्भावना हो सकती है।” (संदर्भः ‘अखंड ज्योति’ पत्रिका, जनवरी 1967)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 27, अंक 273
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जीव और शिव में क्या फर्क ?


एक कोई गृहस्थ वेदांती थे। उन्हें ‘संत’ कह देंगे क्योंकि उनके मन की वासनाएँ शाँत हो गयी थीं अथवा ‘चाचा’ भी कह दो। वे चाचा सब्जी लेने गये थे। पीछे से कोई जिज्ञासु एक प्रश्न पूछने उनके घर पहुँचा। ‘ज्ञानी और अज्ञानी में क्या फर्क होता है ?’ – यह पूछना था उसको। वह जिज्ञासु पलंग पर टाँग-पर-टाँग चढ़ाकर सेठ हो के बैठा था।
जब वे चाचा घर आये तो उनसे पूछता हैः “टोपनदास ! आप मुझे बताओ कि ईश्वर में और जीव में क्या फर्क है ? ज्ञानी में और अज्ञानी में क्या फासला है ? ब्रह्मवेत्ता और जगत वेत्ता में क्या फासला है ?”
उस ज्ञानी ने सीधा जवाब न देते हुए देखा कि यह भाषा ऐसी बोलता है कि बड़ा विद्वान है ! अब इससे विद्वता से काम नहीं चलेगा, प्रयोग करके दिखाने में काम चलेगा।’ उन्होंने सीधा जवाब न देते हुए अपने नौकर को खूब डाँटा। महाराज…. जब नौकर को डाँटा तो उसकी पैंट गीली हो गयी। जीव का स्वभाव होता है भय। जो पलंग पर बैठा था न, वह आदमी उतरकर नीचे हाथ जोड़ के बैठ गया और सिकुड़ गया। टोपनदास सिंहासन पर बैठ के बोलते हैं- “(अपनी और इशारा करके) इसका नाम है ‘ब्रह्म’ और (उस आदमी की ओर इशारा करते हुए) उसका नाम है ‘जीव’। इसका नाम है ‘शिव’ और उसका नाम है ‘जीव’।”
उस आदमी ने घबराकर पूछाः ”यह कैसे ? जैसे आपके हाथ पैर हैं, ऐसे हमारे हैं…”
बोलेः “यह ठीक है लेकिन परिस्थितियों से जो भयभीत हो जाय वह जीव है और परिस्थितियों में जो अडिग रहे उसका नाम शिव है।”
धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति।।
‘स्थितप्रज्ञ (धीर पुरुष) न संसार के प्रति द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। हर्ष और शोक से मुक्त वह न तो मृत है, न जीवित।’ (अष्टावक्र गीताः 18.83)
तुम्हारे मारने से वह मरता नहीं और तुम्हारे जिलाने से वह जीता नहीं, तुम्हारी प्रशंसा करने से वह बढ़ता नहीं और तुम्हारे द्वारा निंदा से वह उतरता नहीं। उसका नाम है ‘ब्रह्मवेत्ता।’
न दिल में द्वेष धारे थो, न कंहिं सां रीस आ उन जी.
( न दिल में द्वेष धरते हैं, न किसी से बराबरी करते हैं)
न कंहिं दुनिया जी हालत जी,
करे फरियाद थो ज्ञानी.
( न किसी दुनिया की हालत की फरियाद करते हैं।)
छो गूंगो आहे ? न न. बोड़ो आहे ? न.
चरियो आहे ? ज़रा बि न. पोइ छो ?
(क्यों गूँगे हैं ? ना। बहरे हैं ? ना। पागल हैं ? ज़रा भी नहीं। फिर क्यों ?)
बहारी बाग़ जे वांगुर रहे दिलशाद थो ज्ञानी.
रही लोदनि में लोदनी खां रहे आज़ाद थो ज्ञानी.
(बहारों के बाग़ की तरह ज्ञानी दिलशाद रहते हैं, झंझावात में रहते हुए भी उनसे आजाद रहते हैं अर्थात् उतार-चढ़ाव में दोलायमान नहीं होते।)
झूलों में रहते हुए, संसार के आघात और प्रत्याघातों में रहते हुए भी उनके चित्त में कभी भी क्षोभ नहीं होता क्योंकि वे समझते हैं-
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।
‘इस जगत में जो कुछ मन से सोचा, वाणी से कहा, आँखों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान है, सपने की तरह मन का विलास है। इसलिए मायामात्र है, मिथ्या है, ऐसा समझ लो।’
(श्रीमद्भागवतः 11.7.7)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 11, अंक 273
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इनका ऋण नहीं चुका सकते – पूज्य बापू जी


एक ऐसी चीज है जिसका जितना उपकार मानें उतना कम है। वह बड़े-में-बड़ी चीज है दुःख, विघ्न और बाधा। इनका बड़ा उपकार है। हम इन विघ्न-बाधाओं का ऋण नहीं चुका सकते। भगवान की और दुःख की बड़ी कृपा है। माँ बाप की कृपा है तो माँ-बाप का हम श्राद्ध करते हैं, तर्पण करते हैं लेकिन इस बेचारे दुःख देवता का तो हम श्राद्ध भी नहीं करते, तर्पण भी नहीं करते क्योंकि यह बेचारा आता है, मर जाता है, रहता नहीं है। माँ-बाप का तो आत्मा मरने के बाद भी रहता है। यह बेचारा मरता है तो फिर रहता ही नहीं। इसका तो श्राद्ध भी नहीं करते।
ये दुःख आ-आकर मिटते हैं बेचारे ! हमें सीख दे जाते हैं, संयम दे जाते हैं। दुःख, विघ्न, बाधाएँ हमारा इतना भला करते हैं, जितना माँ-बाप भी नहीं कर सकते। जो लोग दुःखों से डरते हैं, वे जीना नहीं जानते। दुःख डराने के लिए नहीं आते हैं, आपके विकास के लिए आते हैं और सुख विकारी बनाने के लिए नहीं आते, आपको उदार बनाने के लिए आते हैं।
ऐसा कोई महापुरुष या प्रसिद्ध व्यक्ति दिखा दो, जिसके जीवन में दुःख या विघ्न-बाधा न आये हों और महान बन गया हो। इनका तो बहुत उपकार मानना चाहिए लेकिन हम क्या करते हैं, विघ्न-बाधाओं को ही कोसते हैं। जो हमारे हितैषी हैं उनको कोसते हैं इसलिए हम कोसे जाते हैं। क्रांतिकारी वचन हैं, बात माननी पड़ेगी।
दुःख का उपकार मानना चाहिए क्योंकि यह नई सूझबूझ देता है। मौत आयी तो नया चोला देगी। हम क्या करते हैं, दुःख से भी डरते हैं, मौत से भी डरते हैं तो दुःख और मौत बरकरार रहते हैं। अगर हम इनका उपयोग करें तो दुःख और मौत सदा के लिए भाग जायेंगे। मेरे पास कई दुःख भेजे जाते हैं, कई आते हैं लेकिन टिकते ही नहीं बेचारे। जो दुःख और मौत से प्रभावित होते हैं उनके पास ये बार-बार आते हैं। सुख का सदुपयोग करें तो सुख भाग जायेगा और परमानंद प्रकट हो जायेगा। जिसके ऊपर लाख-लाख सुख न्योछावर कर दें ऐसा आत्मा-परमात्मा का आनंद प्रकट होगा। जो सुख का लालच करता है वह दुःख को बुलाता है और जो दुःख से डरता है वह दुःख को स्थायी करता है। दुःख से डरो नहीं, सुख का लालच न करो। सुख और दुःख का उपयोग करने वाले हो जाओ तो आपको परमात्मप्राप्ति सुलभ हो जायेगी।
सुख भी एक पायदान है, दुःख भी पायदान है, वे तो पसार होते हैं। हवाई अड्डे पर जो सीढ़ियाँ होती हैं वे अपने-आप चलती हैं, उन पर आप भी चलो और सीढ़ियाँ भी चलें तो आपको जल्दी पहुँचा देती हैं। ऐसे ही ये सुख-दुःख आकर आपको यात्रा कराते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।
‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’ (गीताः 6.32)
सुखद अवस्था आये तो चिपके नहीं। आयी है तो चली जायेगी। दुःखद अवस्था आयी है, उसे सच्चा न मानें, सावधानीपूर्वक उसका फायदा लें।
सुख बाँटने की चीज है। मान और सुख को भोगने की चीज बना देती है बेवकूफी। मान का भोगी बनेगा तो अपमान उसे दुःख देगा। सुख का भोगी बनेगा तो दुःख बिना बुलाये आयेगा। सुख को भोगो मत, उपयोग करो। जो एक दूसरे के शरीर को भोगते हैं वे मित्र के रूप में एक दूसरे के गहरे शत्रु हैं।
हमको तो दुःख का आदर करना चाहिए। दुःख का उपकार मानना चाहिए। बचपन में जब माँ-बाप जबरदस्ती विद्यालय ले जाते हैं, तब बालक दुःखी होता है लेकिन वह दुःख नहीं सहे तो बाद में वह विद्वान भी नहीं हो सकता। ऐसा कोई मनुष्य धरती पर नहीं जिसका दुःख के बिना विकास हुआ हो। दुःख का तो खूब-खूब धन्यवाद करना चाहिए और यह दुःख दिखता दुःख है लेकिन अंदर से सावधानी, सुख और विवेक से भरा है।
मन की कल्पना है परेशानी
भगवान ने कितने अनुदान दिये, आ हा !… जरा सोचते हैं तो मन विश्रांति में चला जाता है। जरा सा कुछ होता है तो लोग बोलते हैं, ‘मैं तो दुःखी हूँ, मैं तो परेशान हूँ।’ वह मूर्ख है, निगुरा है, अभागा है। गुरु को मानते हुए भी गुरु का अपमान कर रहा है। तेरा गुरु है और तू बोलता है, ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ तो तू गुरु का अपमान करता है, मानवता का अपमान करता है। जो भी बोलता है, ‘मैं परेशान हूँ, मैं तो बहुत दुःखी हूँ’ समझ लेना उसके भाग्य का वह शत्रु है। यह अभागे लोग सोचते हैं, समझदार लोग ऐसा कभी नहीं सोचते हैं। जो ऐसा सोचता है उसका मन परेशानी बनाता रहेगा और परेशानी में गहरा उतरता जायेगा। जैसे हाथी दलदल में फँसता है और ज्यों ही निकलना चाहता है त्यों और गहरा उतरता जाता है। ऐसे ही दुःख या परेशानी आयी और ‘मैं दुःखी हूँ, परेशान हूँ’ ऐसा सोचा तो समझो दुःख और परेशानी की दलदल में गहरा जा रहा है। वह अभागा है जो अपने भाग्य को कोसता है। ‘मैं दुःखी नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ। दुःखी है तो मन है, परेशानी है तो मन को है। वास्तव में मन की कल्पना है परेशानी।’ – ऐसा सोचो, यह तो विकास का मूल है, वाह प्रभु ! वाह !! मेरे दाता !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 25, अंक 273
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