(दूरदर्शन पर पूर्व प्रसारित पूज्य बापू जी का पावन संदेश)
प्रश्नः गृहस्थियों के लिए मनुष्य-जीवन एक दलदल के समान हो गया है, एक चक्रव्यूह है और अध्यात्मवाद का संबंध हम संन्यास से जोड़ते हैं यानी यह सिर्फ संन्यासियों के लिए है। तो आध्यात्मिकता से हम अपने गृहस्थ-जीवन को कैसे सुधार सकते हैं ?
पूज्य बापू जीः सुंदर प्रश्न है आपका। अध्यात्मवाद केवल साधु-संन्यासियों के लिए ही है, ऐसी बात नहीं है। वास्तव में जहाँ से सुख-शांति और जीवन की धाराएँ प्रकट होती हैं उस आत्मा को पहचानने की समझ का नाम है ‘अध्यात्मवाद’। जो आदमी जितना ज्यादा बीमार है, उसे औषधि की उतनी ही ज्यादा जरूरत है। साधु-संन्यासी तो ज्यादा प्रवृत्ति में नहीं हैं, वे तो एकांत में हैं इसलिए उनके लिए थोड़ा अध्यात्मवाद भी बहुत सारा हो गया। जो संसार की दलदल में, तनाव में पड़े हैं उन लोगों को अध्यात्मवाद की ज्यादा जरूरत है। तो अब इस अध्यात्मवाद का फायदा लेकर गृहस्थ जीवन सुंदर ढंग से कैसे बितायें ?
तनाव क्यों होता है ? जब आदमी इस देह को ‘मैं’ मानकर इसके द्वारा अधिक से अधिक भोग भोगे और किसी का ख्याल न रखे, तब तनाव पैदा होता है। यह व्यक्ति का व्यक्तिगत दोष और समाज का सामाजिक दोष है कि सब लोग सुख को भोगना चाहते हैं। सब चाहते हैं कि ‘मेरी चले’ लेकिन अध्यात्मवाद कहता है कि भाई ! तुम्हारी चलेगी तो कभी पत्नी की भी चलने दो, कभी बेटे की तो कभी बाप की चलने दो। कभी किसी की न चली तो पड़ोसी की चले, तब भी खुश रहो कि ‘उसमें मेरा ही परमात्मा है।’ इससे तनाव अपने-आप शांत हो जायेगा। अगर पड़ोसी की और तुम्हारी नहीं चली तो वह देव, जो सृष्टिकर्ता है, वह हमारा शत्रु नहीं है। जब हमारे पास विघ्न-बाधाएँ आती हैं तो समझ लो कि हमारे अहंकार को, विलासिता को लगाम लगाने के लिए उस सृष्टिकर्ता की व्यवस्था है।
हाथी जब गलत रास्ते जाता है तो महावत उसे अंकुश मारता है, ऐसे ही जब-जब संसार में विघ्न-बाधा और समस्या आयें तो समझना चाहिए कि हमारा मनरूपी हाथी जरा गड़बड़ चल रहा है तो उसको प्रकृति ने, ईश्वर ने अंकुश दिया है। अगर कभी समस्या आये तो परमात्मा की कृपा समझकर धन्यवाद दे के उस समस्या का रास्ता तो निकालें लेकिन ‘समस्या इसने की, उसने की…..’ ऐसे करके तनाव न बढ़ायें।
पत्नी चाहती है पति सुख दे, पति चाहता है पत्नी सुख दे, बाप चाहता है बेटा सुख दे, बेटा चाहता है बाप सुख दे… सब सुख और मान दूसरों से चाहते हैं।
मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये।
चाह उसी की राखता, सो भी अति दुःख पाये।।
अब मैं चाहूँ कि आप लोग मुझे मान दो और इसके लिए मैं दाँव-पेच (छल-कपट), आडम्बर, यह-वह, ढोंग करूँ तो मेरे अंदर में शांति नहीं रहेगी। बाहर से आपने मान दे भी दिया लेकिन अंदर से आपके दिल में मेरे प्रति इतना मान नहीं रहेगा।
हकीकत में सुख और मान लेने की चीज नहीं हैं, बाँटने की चीज हैं। आप सुख और मान देते जायेंगे तो आप सुख व मान के दाता हो गये।
जो सुख का दाता हो गया, वह दुःखी नहीं हो सकता। जो मान का दाता होता है उसको मान की भीख माँगनी नहीं पड़ती है। यह अध्यात्मवाद का अंश अगर घर, कुटुम्ब, समाज में आ जाय तो आनंद आ जायेगा, मंगल हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 18, अंक 274
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