आप किसको महत्त्व देते हैं ? – पूज्य बापू जी

आप किसको महत्त्व देते हैं ? – पूज्य बापू जी


वे लोग झगड़ते रहते हैं, अशांत रहते हैं जो सुख को महत्त्व देते हैं, सेवा को महत्त्व नहीं देते हैं, प्रभुप्रेम को, जप-तप को, अंतरात्मा के रस को महत्त्व नहीं देते हैं। जो बाहर से सुखी होना चाहते हैं, वे बाहर भी परेशान, अंदर भी परेशान !
सेवा के बिना कोई भौतिक उन्नति टिक नहीं सकती तथा वास्तविक विकास नहीं होता और प्रभु प्रेम के बिना वास्तविक रस नहीं मिलता। दुःखी (दरिद्र) आदमी में त्याग का बल जब त नहीं आयेगा, तब तक उसका दुःख नहीं मिटेगा और सुखी आदमी में सेवा का बल जब तक नहीं आयेगा, तब तक उसका सुख आनंद में नहीं बदलेगा, सुख स्थिर नहीं होगा। जो दूसरे को दुःखी करके सुखी होना चाहता है, उसको बड़े भारी दुःख में कुदरत घसीट लेती है। यह ब्रह्माजी भी करें तो भी… चक्रवर्ती राजा करे या कोई भी करे।
जो अपने सुख के लिए किसी को तकलीफ में डाल देते हैं वे खबरदार ! जब तकलीफ में डाल देते हैं वे खबरदार ! जब तकलीफ आये तब मत रोना। अभी किसी को तकलीफ में डालकर सुखी होना चाहते हो तो अभी रोओ कि ‘मैं बड़े भारी दुःख को बुला रहा हूँ।’ चाहे पत्नी को, पति को, पड़ोसी को, नौकर को – किसी को भी आप तकलीफ में डालकर सुखी होना चाहते हैं, उसी समय सिर पीटो कि ‘मैं बड़े भारी दुःख में, खाई में गिरने का रास्ता बना रहा हूँ।’ अगर आप अपने को कष्ट देकर भी किसी का दुःख मिटा रहे तो नाचो कि ‘मेरा भविष्य उज्जवल है। दुःखहारी भगवान की कृपा है, मुझे सेवा मिल गयी !’ स्वयं सेवक जो लगते हैं सेवा में – ऋषि प्रसाद के, लोक कल्याण सेतु के, आश्रम के सेवाधारी, उनको मैं तो शाबाशी भी नहीं दे पाता हूँ, कितने सारे सेवाधारियों को दूँगा ! लेकिन जो ईमानदारी से सेवा करते हैं, उनमें गुरु-तत्त्व का बल, बुद्धि, प्रसन्नता आ जाती है। सेवा में सफल होते हैं तो उसकी खुशी, धन्यवाद अंतरात्मारूप से गुरु जी दे देते हैं।
जो कष्ट सहकर दूसरे का दुःख मिटाता है, भगवान के रास्ते आता है, धर्म में अडिग रहता है, उसको उसी समय खुशी मनानी चाहिए कि ‘भगवान उज्ज्वल भविष्य की तरफ ले जा रहे हैं।’
ॐऽऽऽऽऽ….. ऐसा गुंजन करके हलके संकल्प काटना, कीर्तन से ऊँचे संकल्प उभारना फिर ऊँचे संकल्प में दृढ़ होना और आखिरी है ईश्वरप्राप्ति। ऊँचे संकल्प में शांत हो जाना बस, ईश्वरप्राप्ति हो जायेगी, सामर्थ्य की प्राप्ति हो जायेगी। दुष्ट संकल्पों को काटना, ऊँचे संकल्पों को स्वीकारना, फिर उनको दृढ़ करना, फिर निःसंकल्प….! इससे सामर्थ्य की प्राप्ति होगी। जैसे सेवा से सूझबूझ बढ़ती है, पुण्य बढ़ता है और सफलता कदम-कदम पर आती है, वैसे ही स्वार्थ से सूझबूझ मारी जाती है और सफलता दूर भागती है। जितना स्वार्थी आदमी होगा उतना उससे ज्यादा बात करने की रूचि नहीं होगी। बच्चा निःस्वार्थी है तो प्यारा लगता है, संत निःस्वार्थी हैं तो प्यारे लगते हैं, भक्त निःस्वार्थी हैं तो प्यारे लगते हैं और स्वार्थी लोगों को तो देखकर जान छुड़ाने की रूचि होती है। अतः जीवन में निःस्वार्थ सेवा, निःस्वार्थ भगवान के नाम का जप ले आओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 13, अंक 275
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