Monthly Archives: January 2016

दोष-दर्शन नहीं देव-दर्शन


पूज्य बापू जी

एक माई ने अपने बेटे की निन्दा की एवं बहन ने अपने भाई की निन्दा की उसकी धर्मपत्नी के सामने, जो अभी-अभी शादी करके आयी थी। बहन बोलीः “मेरे भाई का नाम तो तेजबहादुर है। बड़ा तेज है, बात-बात में अड़ जाता है, माँ से पूछो…..”

माँ ने कहाः “इसको पता चलेगा, अभी तो शादी हुए दूसरा दिन हुआ है। अभी तेरे से पंगा होगा, तेरी खबर लेगा बहुरानी ! मेरा बेटा है, मेरा जाया हुआ है, मैं जानती हूँ। अभी तो 2-3 दिन मिठाइयों और गहनों का मजा ले ले, फिर देख कैसा है तेजबहादुर ! तेज है !”

बहुरानी थोड़ी गम्भीर दिखी।

दोनों ने बोलाः “तू कुछ बोलती नहीं ! इतनी देर से हम तेरे पति की निन्दा कर रहे हैं।”

बहू तो सत्संगी थी, वह बोलीः “मैं क्या बोलूँ ? आप तो उनकी माता जी हो, मैं आपको नहीं बोल सकती और आप उनकी बहन हो…”

“तो क्यों नहीं पूछती है कि क्या वे सचमुच में ऐसे हैं ? तेज स्वभाव वाले हैं ?”

“माता जी ! माफ करना। आप तो अभी वृद्ध हो, भगवान के धाम जाओगी, और ननद जी ! आप शादी में आयी हो, अपनी ससुराल जाओगी। मेरे को तो इनके साथ जिन्दगी गुजारनी है। मैं इनमें दोष देखकर अपना जीवन जहरी क्यों बनाऊँ ? कैसे भी हैं, ये तो मेरे भर्ता हैं, पतिदेव हैं। देखा जायेगा…. हरि ॐ…. हरि ॐ… निंदा सुनकर, मान के मैं काहे को सिकुड़ूँ, काहे को परेशान हो जाऊँ !”

कैसी ऊँची समझ रही सत्संगी बहुरानी की ! सत्संग जीवन जीने की कला सिखा देता है। दुःख की दलदल में भी समता और ज्ञान के कमल खिला देता है।

प्रेम और विश्वास कैसे बढ़े ?

प्रेम का बाप है विश्वास और विश्वास का बाप है सच्चाई। पति-पत्नी को एक दूसरे से सच्चाई से पेश आना चाहिए। पत्नी एक बार झूठ बोलेगी, दो बार, पाँच बार, दस बार तो आखिर पति भी तो रोटी खाता है, उसे पता चल जायेगा। पति भी दस बार झूठ बोलेगा तो आखिर पत्नी भी तो रोटी खाती है, पति की भी पोल खुल जायेगी। इसलिए एक-दूसरे को झाँसा देकर पटा के नहीं जीना चाहिए। सच्चाई से बोल दो कि ‘देखो, तुमको सुनकर अच्छा तो नहीं लगेगा लेकिन मेरे से ऐसा हो गया… मैं सत्य बोलता हूँ।’ घुमा फिराकर आप जितना दूसरों के सामने अच्छा दिखने का दिखावा करोगे, उतनी ही आपकी उस ‘अच्छाई’ की पोल खुल जायेगी। लेकिन सच्चाई से जितने तुम अच्छे दिखोगे, उतना ही तुम्हारे प्रति दूसरों में विश्वास बढ़ेगा।

मैं आपको सच बताता हूँ कि और लोग तो चन्द्रमा को अर्घ्य देते हैं लेकिन मेरे बेटे की माँ व्रत खोलती है तो मुझे अर्घ्य देकर फिर खाना खाती है, विश्वास की बात है।

बेटा पिता पर विश्वास करे कि मेरे पिता जी जो करते हैं, मेरी भलाई के लिए करते हैं।’ आप गृहस्थ जीवन जियो तो बेटे का सद्भाव सम्पादन करो। बेटा बाप के प्रति सद्भाव रखे, पति पत्नी के प्रति रखे। फिर चाहे रूखी रोटी हो चाहे चुपड़ी हो, चाहे खूब यश हो चाहे अपयश की आँधी चले, कोई फर्क नहीं पड़ता। सङ्गच्छध्वं स वदध्वं…. कंधे-से-कंधा मिलाकर सजातीय विचार रख के जीना चाहिए। गृहस्थ जीवन का यही सार है।

एक दूसरे के प्रति शक विदेश में बहुत है। पत्नी का बैंक खाता अलग, पति का खाता अलग, पति पत्नी से छुपाये, पत्नी पति से छुपाये, उसके बॉय फ्रेंड अलग, उसकी गर्ल फ्रेंड अलग…. बड़ा जहरी जीवन है। लेकिन यह गंदगी हमारे भारत में न बढ़े इसलिए मैं इस उम्र में भी खूब दौड़ धूप कर रहा हूँ। मेरा उद्देश्य यही है कि भारतीय संस्कृति की गरिमा का फायदा भारतवासियों को तो मिले, साथ ही विश्व के लोगों को भी मिले। और देर सवेर भारत विश्वगुरु होगा, मेरे इस संकल्प को कोई तोड़ नहीं सकता, रोक नहीं सकता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या18,25 अंक 277

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काम और प्रेम में अन्तर


पूज्य बापू जी

प्रेम हर प्राणी के स्वतः सिद्ध स्वभाव में है लेकिन वह प्रेम जिस चीज में लगता है, वही रूप हो जाता है। प्रेम पैसों की तरफ जाता है तो लोभ बन जाता है, प्रेम परिवार के इर्द-गिर्द मंडराता है तो मोह बन जाता है, प्रेम शरीर या पद की तरफ जाता है तो अहंकार बन जाता है, प्रेम बहुजनहिताय की तरफ जाता है तो कर्मयोग बन जाता है, प्रेम प्रभु की तरफ जाता है तो भक्तियोग बन जाता है और प्रेम पूर्णता की तरफ जाता है तो पूर्ण प्रेम पूर्ण ही बना देता है।

सभी का ईश्वर के साथ स्वतः सिद्ध अपनत्व है, स्वतः सिद्ध प्रेम है, स्वतः सिद्ध अविनाशी नाता है। शरीर का और आपका नाता विनाशी है। पति-पत्नी का प्रेम काम की प्रधानता से है, सेठ और नौकर का प्रेम रूपये और कार्य की प्रधानता से है। दुनियावी प्रेम जो है, इन्द्रियों, मन और भोग की प्रधानता से है लेकिन जीवात्मा का परमात्मा से प्रेम स्वतः सिद्ध है।

सोचा मैं न कहीं जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा।

जिसको गरज होगी आयेगा, सृष्टिकर्ता खुद लायेगा।।***

*** आत्मसाक्षात्कार के बाद एक बार पूज्य बापू जी परमात्म-मस्ती में विचरण करते हुए घने जंगल में मीलों अंदर जा के ध्यान में बैठ गये। अगले दिन सुबह भूख लगी तो पूज्य श्री ने हठ कर ली। तभी वहाँ दो किसान दूध व फल लेकर हाजिर हो गये !

यह प्रेम की परिभाषा है, अहं की भाषा होती तो भूखे मर जाते। यह स्वतः सिद्ध प्रेम की भाषा है। कानूनी प्रेम की भाषा, पति-पत्नी के प्रेम की भाषा होती तो भूखे मरते।

ज्यूँ ही मन विचार वे लाये, त्यूँ ही दो किसान वहाँ आये।

और किसान क्या बोलते हैं ? “रात को सपने में मार्ग देखा।” मेरे को तो सुबह विचार आया लेकिन मेरा प्रेमास्पद (परमात्मा) पहले ही सोचता है कि ‘इसे सुबह विचार आयेगा’ तो रात को स्वप्न में दिखा देता है किसानों को रास्ता !

बच्चे को माँ दुत्कार देती है, फिर भी बच्चा खिंच-खिंचकर माँ की तरफ आता है और कभी माँ का बच्चा मुक्के मार के रूठ के चला जाता है तो माँ- “बेटा ! खा ले, खा ले।….” कह के मनाने की कोशिश करती है।

बेटाः “नहीं खाना, मैं तुम्हारे घर में नहीं आऊँगा।” पैर पटकता-पटकता विद्यालय जाता है। कक्षा में बैठा है। दोपहर की छुट्टी होने के पहले माँ पहुँच जाती है।

माँ- “मास्टर साहब !….”

मास्टर साहबः “अरे माई ! रुको, रुको।….”

“अरे मेरा बेटा बिना खाये निकला है।”

माँ बुलाती हैः “बेटा !”

बेटा बोलता हैः “नहीं खाना है !”

“बेटा ! तू नहीं खायेगा तो मैं कैसे खाऊँगी ?”

माँ का प्रेम बेटे को खिलाये बिना नहीं रहता है और बेटा भी माँ को देखते-देखते फिर गले लग जाता है। प्रेम स्वतः सिद्ध है। स्वतः सिद्ध प्रेम को अगर पहचान लें तो नीरसता चली जायेगी और निर्दुःखता स्वाभाविक आ जायेगी।

जीव प्रेमस्वरूप परमात्मा का अभिन्न अंग है, जैसे तरंग समुद्र अथवा पानी का अभिन्न अंग है। कोई भी तरंग समुद्र अथवा पानी का अभिन्न अंग है। कोई भी तरंग आपको सड़क पर दौड़ती हुई मिले तो मुझे बताना। मैं आपका चेला बन जाऊँगा। जब भी तरंग दौड़ेगी तो पानी पर ही दौड़ेगी, सड़क पर नहीं दौड़ेगी। ऐसे ही जो फुरना होता है, जो विचार आते हैं, संकल्प-विकल्प होते हैं वे चैतन्यस्वरूप, प्रेमस्वरूप आत्मचैतन्य से ही उठते हैं। लेकिन वह प्रेम जब देखना, सूँघना, सुनना, चखना, स्पर्श करना – इन पाँच विकारों में भटकता है अथवा मान बढ़ाई, शारीरिक आराम या तामसी आराम में भटकता है तो यह प्रेम तबाही की तरफ ले जाता है।

भगवान राम के गुरुदेव वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! तीन पदार्थ बड़े अनर्थ हैं और परम सार के कारण हैं – एक तो लक्ष्मी (सम्पदा), दूसरा आरोग्य और तीसरा यौवन अवस्था।”

अगर इनका सदुपयोग प्रेमास्पद (ईश्वर) के लिये किया जाये तो परमात्मप्राप्ति शीघ्र होती है। अगर इनके द्वारा संसार के सुखों का उपभोग किया जाये तो जीव दुःखों की खाई में जा गिरता है, जन्म से जन्मांतर के चक्र में पहुँच जाता है। राजा नृग बड़ा प्रसिद्ध था लेकिन मरने के बाद गिरगिट हो गया क्योंकि प्रेम शरीर में था, भोगों में था। राजा अज मरने के बाद साँप हो गया।

प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो शीश दिये ले जाय।। अहं दिये ले जाये।

प्रेम और वासना में क्या फर्क है ? वासना को कितना भी दो, तृप्ति नहीं होगी और प्रेम लेकर तृप्त नहीं होता है, देकर तृप्त होता है।

प्रेम जब संसार में लगता है अर्थात सरकने वाले गलियारों में जाता है तो वह विकार बनता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार बनता है, हमें यश का गुलाम बनाता है, आराम का पिट्ठू बनाता है। ऐसा करके जीव को नीच गतियों में ले जाता है। ऐसे प्रेम को काम कहेंगे। काम जीव को भीतर से बाहर ले आता है और प्रेम बाहर से भीतर ले जाता है आत्मिक शांति में। कामनाएँ अशांति की तरफ ले जाती है और प्रेम परमात्म-शांति की तरफ ले जाता है। कामनाएँ  परिणाम में दुःख देती हैं और प्रेम परिणाम में आनंदस्वरूप ईश्वर के साथ एकाकार करता है। कामनाएँ विकारी हैं और प्रेम निर्विकारी है। कामनाएँ नाशवान हैं, ‘अभी यह खाऊँ, वह खाऊँ….यह देखूँ, वह देखूँ… यहाँ जाऊँ, वहाँ जाऊँ…’ उसके बाद दूसरी कामनाएँ पैदा हो जाती है और प्रेम अविनाशी की तरफ ले जाता है। कामना जड़ता की तरफ ले जाकर जीव को फँसाती है और प्रेम उसे चैतन्यस्वरूप की तरफ ले आता है। कामनाएँ वासना विकारों को बढ़ाती रहती हैं और भगवद्भक्ति व प्रेम इच्छाओं या कामनाओं को शांत करके भगवत्सुख, भगवत्शांति, भगवन्माधुर्य देते रहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 277

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शास्त्रों का बोझा पटको, जीवंत महापुरुष की शरण लो


 

केसरी कुमार नाम के एक प्राध्यापक, जो स्वामी शरणानंद जी के भक्त थे, उन्होंने अपने जीवन की एक घटित घटना का जिक्र करते हुए लिखा कि मैं स्वामी श्री शरणानंद जी महाराज के पास बैठा हुआ था कि गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयंदकाजी एकाएक आ गये। थोड़ी देर बैठने के पश्चात बोलेः “महाराज ! मैं वेद और उपनिषद चाट गया। शास्त्र-पुराण सब पढ़ लिये। अनेक ग्रंथ कंठाग्र हैं। वर्षों से कल्याण पत्रिका में असंख्य जिज्ञासुओं के प्रश्नों के उत्तर देता रहा हूँ। किंतु महाराज ! मुझे कुछ हाथ नहीं लगा। मैं कोरा का कोरा हूँ।”
और वे अत्यन्त द्रवित हो गये। उन्हें अश्रुपात होने लगा।
मैंने एकांत में स्वामी जी से पूछाः “महाराज ! जब इन महानुभाव की यह दशा है, तब हम जैसों की आपके मार्ग में क्या गति होगी ?”
स्वामी जी एक क्षण चुप रहकर बोलेः “गोयंदकाजी के आँसुओं के रूप में धुआँ निकल रहा है भाई ! जो इस बात का लक्षण है कि लकड़ी में आग लग चुकी है। अध्ययन ईंधन है न, जले तो और न जले तो बंधन !”
मुझे चुप देखकर वे फिर ठहाका मारते हुए बोलेः “निराश न हो। तुम्हारे लिए भी एक नुस्खा है। भारी बोझ लेकर चलने वाले को देर होती ही है। गोयंदकाजी ने अपने माथे पर वेद-पुराणों का भारी गठ्ठर लाद रखा था, सो उन्हें पहुँचने में देर हो रही है। तुम्हारे माथे पर हलका बोझ है, जल्दी पहुँच जाओगे। बोझा पटक दो तो और जल्दी होगी। कार्तिकेय जी पृथ्वी परिक्रमा करते ही रहे और गणेश जी माता-पिता के चारों और घूमकर अव्वल हो गये।” (संदर्भः प्राकृत भारती अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित ‘तरुतले’ भाग-1)
प्राध्यापक केसरी कुमार के जीवन में घटी यह घटना एक बड़े रहस्य की ओर इंगित करती है।
स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- “हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढ़ते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं। यह आध्यात्मिकता नहीं है क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, सिद्धान्तों में अथवा दर्शनों में निवास नहीं करती। यह विद्वता और तर्क में नहीं वरन् वास्तविक अंतःविकास में होती है। मैंने सब धर्मग्रंथ पढ़े हैं, वे अदभुत हैं पर जीवंत शक्ति तुमको पुस्तकों में नहीं मिल सकती। वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवंत प्रकाशवान महान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है जो समय-समय पर हमारे बीच में प्रकट होते रहते हैं।”
पूज्य बापू जी जैसे आत्मानुभव से प्रकाशवान जीवंत महापुरुष के मार्गदर्शन में उनके द्वारा बताये गये शास्त्रों का अध्ययन करना ठीक है लेकिन मनमानी पुस्तकों को पढ़ने वाले लोग प्रायः उलझ जाते हैं।
आद्य शंकराचार्य जी ने ‘विवेक चूड़ामणि’ में कहा हैः शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्। सदगुरु के बिना यह चित्त को भटकाने का हेतु बन जाता है। अतः मनमुखी साधक सावधान ! व्यर्थ के वाणी-व्यय व मनमानी पुस्तकों में उलझने से बचो, औरों को बचाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2016, पृष्ठ संख्या 9, अंक 277
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