सामर्थ्य का उदगम स्थानः अंतरात्मा – पूज्य बापू जी

सामर्थ्य का उदगम स्थानः अंतरात्मा – पूज्य बापू जी


 

(योगी गोरखनाथ जी जयंतीः 20 फरवरी)

गोरखनाथ जी नेपाल से वापस जा रहे थे। नीलकंठ की यात्रा करके लौटे हुए नेपालियों को पता चला कि गोरखनाथ जी यहाँ हैं तो उनको दर्शन करने की उत्सुकता हुई।
उस समय नेपाल नरेश महेन्द्र देव इतना धर्मांध हो गया था कि सनातन धर्म को अपनी मति के अनुसार तुच्छ मानने लगा और अत्याचार करने लगा था। वह मत्स्येन्द्रनाथ जी के शिष्यों पर बड़ा जुल्म करता था।

शिष्यों ने गोरखनाथ जी को अपनी पीड़ा, व्यथा और उसके अत्याचार के कुछ प्रसंग सुनाये। योगी गोरखनाथ ने कहाः “अच्छा, चलो।”

पाटन नगर के समीप भोगवती नदी के किनारे गोरखनाथ जी आसन जमाकर बैठ गये। बोलेः “मैं आसन लगाकर बैठा हूँ। जब तक मैं बैठा रहूँगा, पूरे नेपाल में वर्षा नहीं होगी और बिना कारण मैं उठूँगा नहीं।”

राजकोष खाली होने लगा। प्रजा त्राहिमाम पुकारने लगी। महेन्द्र के प्रति प्रजा का रोष बढ़ने लगा। महेन्द्र भी चिंतित होने लगा। उसने राजज्योतिषियों को बुलाया, मंत्रियों को बुलाया।

ज्योतिषी ने विचार करके कहाः “महाराज ! आप योगी मत्स्येन्द्रनाथजी के शिष्यों पर जुल्म करना बन्द कर दीजिये। उनके शिष्य गोरखनाथ जी भोगवती नदी के तट पर आसन जमाये बैठे हैं। जब तक वे बैठे रहेंगे, तब तक वर्षा नहीं होगी और वे धाक-धमकी से उठें, यह तो सम्भव ही नहीं है।
“मानो कि हमने अत्याचार बंद कर दिया, फिर भी उनको उठाने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा !”
“आप उनके गुरुदेव की मूर्ति बनवाइये और रथ में बड़े आलीशान ढंग से उनकी शोभायात्रा निकलवाइये। वह रथ वहाँ से गुजरे जहाँ गोरखनाथ जी बैठे हैं।” यह बात राजा को पसंद आ गयी। रथ में मत्स्येन्द्रनाथ जी की मूर्ति सजायी और लगा दिये जयघोष करने वाले आदमी। सवारी जब गोरखनाथ जी के करीब पहुँची तो जयघोष ने और जोर पकड़ाः ‘योगसम्राट मत्स्येन्द्रनाथ भगवान की जय हो ! जय हो !…..’
अपने गुरु का जयघोष सुनकर कौन शिष्य चुप बैठेगा ! गोरखनाथ जी ने देखा कि ‘गुरुदेव की शोभायात्रा इतनी धूम-धाम से !’ वे भूल ही गये कि ‘मेरे को बैठे रहना है।’ उठे, नजदीक गये और साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया।

उनका आसन से उठना हुआ कि मेघ छा गये। मूसलाधार वर्षा हुई। महेन्द्र को अपने कृत्यों पर बड़ी लज्जा आयी और वह गोरखनाथ जी के चरणों में गिर पड़ा कि “महाराज ! मैंने गलती की। अब से गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी के शिष्यों और आपके शिष्यों पर अत्याचार नहीं होगा, मैं वचन देता हूँ।”

गोरखनाथ जी चल दिये। फिर नेपाल के पर्वत की खोह (गुफा) में 12 साल वहाँ रहे।
खूब बरसात हुई। कोष फिर से भर गया। नेपाल नरेश को धन का मद हो गया तो उसने मत्स्येन्द्रनाथ जी शिष्यों को पुनः सताना चालू कर दिया। जब यह समाचार गोरखनाथ जी को मिला तो उन्हें नेपाल नरेश पर बड़ा क्रोध आया। उस समय उनकी सेवा में एक वृद्धा माई अपने पुत्र के साथ रहती थी। बेटे का नाम था बलवंत । गोरखनाथ जी ने कहाः “अच्छा ! यह वचन देकर भी ऐसा करता है ! बलवंत ! इस तालाब की चिकनी मिट्टी लेकर तू हजारों की संख्या में पुतले तैयार कर। मैं तुझे राजा बनाना चाहता हूँ।”

बलवंत लगा पुतले बनाने में। उसने हजारों की संख्या में पुतले बनाये। गोरखनाथ जी ने उन पुतलों में संजीवनी विद्या से प्राण प्रतिष्ठित कर दिये और पुतलों की सेना तैयार हो गयी। भभूत अभिमंत्रित करके बलवंत के ललाट पर उसका लेप कर दिया। बलवंत का शरीर भी दिव्य हो गया, राजकुमार जैसा शोभनीय हो गया। गोरखनाथ जी बोलेः “हे वत्स ! अब नेपाल नरेश पर चढ़ाई कर। यह तेरी सेना है। अब देर मत कर और तेरी विजय होगी, इसमें संदेह मत करना।”

बलवंत ने एकाएक धावा बोल दिया। हालाँकि नेपाल-नरेश के पास बहुत सेना थी लेकिन यहाँ गोरखनाथ जी का संकल्प भी काम कर रहा था। देखते ही देखते महेन्द्र की सेना परास्त हो गयी और वह घबराया। उसने मंत्रियों से पूछाः “अब क्या होगा ?”
बोलेः “आपने उनको वचन दिया कि नहीं सताऊँगा। फिर भी मत्स्येन्द्रनाथ जी के शिष्यों पर जुल्म बढ़ गये तो वे नाराज हो गये। अब तो उन्हीं की शरण है, और क्या !”
आया भागता-भागताः “त्राहिमाम्…. मैं आपका दास, आपकी शरण हूँ, मुझे माफ करो।”
बोलेः “बार-बार तू गलती करता रहे और बार-बार हम माफी देते रहें, यह सम्भव नहीं है। प्रजा का पालन करना है कि प्रजा का उत्पीड़न करना है ?”
“महाराज ! अब मैं ठीक से पालन करूँगा, मतभेद नहीं रखूँगा। मेरे ऊपर कृपा करो। मेरे राज्य में आपके बलवंत की सेना ने डेरा डाल दिया है। आप ही आज्ञा करेंगे तब सेना हटेगी।”
“हम आज्ञा नहीं करते। वही राज्य करेगा।”
“महाराज ! कृपा करो। मैं भी आपका बालक हूँ, दास हूँ। अब बुढ़ापे में कहाँ जाऊँगा ? मेरे को तो कोई संतान भी नहीं है। अब दर-दर की ठोकर खाऊँगा।”
वह रोया, गिड़गिड़ाया। संत तो दयालु होते हैं। बोलेः “मैं तो बलवंत को वचन दे चुका हूँ कि तू नेपाल का राजा बनेगा।”
“महाराज ! ऐसा कोई उपाय निकालिये कि आपका वचन भी भंग न हो और मेरा राज्य भी न जाय।”
“उपाय यह है कि इसको तुम गोद (दत्तक) ले लो। तुम्हारे बाद यह उत्तराधिकारी बन जाय।”
“महाराज ! यह तो बढ़िया बात है।”
राजा ने बलवंत को गोद ले लिया। थोड़े दिन में राजा मर गया। बलवंत आ गया गुरु के चरणों में- “गुरुदेव क्या आज्ञा है ?”
“देख बलवंत ! गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी का जयघोष करते हुए तेरी सेना गयी तो विजयी हो गयी। जा ! जब तक तेरे कुल में, तेरे राज्य वंश में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी की पूजा होती रहेगी, गुरु और संतों का आदर-पूजन होता रहेगा तब तक तेरा वंश नेपाल में राज्य करेगा।”

गुरुओं का तो एक वचन काफी हो जाता है। बलवंत ने कहा कि “गुरुदेव ! आज से मेरे कुल का नाम आपके नाम से ही होगा। और हमारे कुल में जो भी होंगे वे ‘गोरखा’ के नाम से जाने जायेंगे।” बलवंत के बाद गोरखा जाति चली। फिर गोरखनाथ जी देशाटन करने लगे।

जिनकी वृत्ति भगवान में टिकी है, एकाग्र हुई है, ऐसे योगियों का संग किया तो बलवंत राजा बन गया। ऐसे योगी यदि किसी को योग-सामर्थ्य पाने का रास्ता बता दें और वह वैसा करे तो योगी भी बन जाय।

तात्पर्य यह है कि जैसे गोरखनाथ जी हैं, ऐसे दूसरे नौ नाथ और उनके पहले भी कई योगी हो गये, उनके बाद भी हो गये, अभी भी कहीं होंगे। सबके सामर्थ्य का उदगम स्थान तो अंतरात्मा-परमात्मा है। धर्म से वृत्ति सात्विक होती है, भक्ति से वृत्ति भगवदाकार होती है, योग से वृत्ति (आत्मदेव में) ठहरती है, इसलिए सामर्थ्य आता है और ज्ञान से समर्थ तत्व का बोध हो जाता है तो वृत्ति सर्वव्यापक ब्रह्म में प्रतिष्ठित हो जाती है। फिर वृत्ति से निवृत्त होकर वह परब्रह्म-परमात्मा में लीन हो जाता है, मुक्त हो जाता है, जीवन्मुक्त हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 265
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