साधना में चार चाँद लगाती मानस-पूजा

साधना में चार चाँद लगाती मानस-पूजा


 

(गुरु पूर्णिमाः 31 जुलाई पर विशेष)

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एक ऐतिहासिक घटित घटना हैः जगन्नाथ मंदिर के दर्शन करके चैतन्य महाप्रभु कुछ दिन जगन्नाथपुरी में ही रहे थे। उस समय उत्कल (ओड़िशा) के बुद्धिमान राजा प्रतापरूद्र उनके दर्शन करना चाहते थे लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने उनकी बात ठुकरा दी। राजा ने खूब प्रयत्न किये परंतु चैतन्य महाप्रभु नहीं माने। आखिर राजा ने ठान लिया कि ‘कुछ भी हो, मैं इन महापुरुष की कृपा को पाकर ही रहूँगा।’

राजा की तीव्र इच्छा और दृढ़ता देखकर चैतन्य महाप्रभु के एक शिष्य ने कहाः “राजन् ! परसों जगन्नाथ जी की रथयात्रा है। चैतन्य महाप्रभु रथ को खींचेंगे तब यात्रा शुरु होगी। फिर दोपहर में वे अमुक बगीचे में विश्राम करेंगे। आप सेवक के वेश में जाकर वहाँ सेवा-टहल करना। यदि आपकी सेवा स्वीकार हो जायेगी तो आपका काम बन जायेगा। जिसकी जिह्वा पर भगवान का निर्मल यशोगान होगा, चैतन्य महाप्रभु निश्चय ही उसे अपने हृदय से लगा लेंगे।”

प्रतापरुद्र ने वैसा ही किया। बगीचे में जमीन पर लेटे चैतन्य महाप्रभु के चरण सहलाने लगे। चरण सहलाते-सहलाते ‘श्रीमद्भागवत’ का ‘गोपीगीत’ मधुर स्वर से गुनगुनाने लगे। जिसे सुनकर चैतन्य महाप्रभु पुलकित हो उठे। उन्होंने कहाः “फिर-फिर, आगे कहो…..।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।

श्रवणमंङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः।।

‘हे प्रभु ! तुम्हारी कथा अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिए तो यह जीवन-संजीवनी है, जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्माओं, भक्त-कवियों ने उसका गान किया है। यह सारे पापों को तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्र से परम मंगल, परम कल्याण का दान भी करती है। यह परम सुंदर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी इस लीला, कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।’ (10.31.9)

यह श्लोक सुन चैतन्य महाप्रभु का हृदय छलका और उठकर राजा को गले लगा लियाः “तू कौन है ? कहाँ से आया है ?”

राजाः “यहीं का हूँ, उत्कल प्रांत का, आपके दासों का दास हूँ।”

“अरे भैया ! तुमने तो आज मुझे ऋणी बना दिया ! कितनी शांति दी ! भगवान की याद दिलाने वाला गोपीगीत तुमने कितना सुंदर गाया ! तुम क्या चाहते हो ?”

“महाराज ! आपकी कृपा चाहता हूँ।”

ऐसे करते-करते सदगुरु की कृपा पायी राजा प्रतापरुद्र ने।

कितने वर्षों की मेहनत के बाद आत्मा में विश्रांति पाये व्यासरूप गुरु मिलते हैं ! ऐसे गुरुओं का आदर-पूजन यह अपने आत्मा का ही आदर-पूजन है।

व्यास जी की स्मृति में आषाढ़ी पूनम मनाने वाले साधकों को देवताओं ने अमिट पुण्य की प्राप्ति का वरदान दिया। इस दिन सुबह संकल्प करना चाहिए कि ‘आज व्यासपूर्णिमा को मैं अपने गुरुदेव का आदर-सत्कार, पूजन करूँगा। गुरु के सिद्धान्त, मार्गदर्शन और कृपा का आवाहन करूँगा।’

इस प्रकार गुरुभाव करते-करते अपने हृदय को पावन करना चाहिए। शिवाजी महाराज जैसे गुरु को स्नान कराते थे, ऐसे हम लोग गुरु को स्नान नहीं करा पाते थे लेकिन मन  ही मन गुरुदेव को हम स्नान कराते थे। मानस-पूजा का महत्व और विशेष होता है। जैसे भक्त षोडशोपचार से देवी-देवता या भगवान की पूजा करते हैं, ऐसे ही गुरुभक्त गुरु की पूजा करते हैं। अब गुरु जी को जल से, पंचामृत से स्नान कराना – यह तो सम्भव नहीं है लेकिन मानस-पूजा करने से गुरु भी नहीं रोक सकते और भगवान भी नहीं रोक सकते। जो प्रतिदिन गुरु का मानसिक पूजन करके फिर जप-ध्यान करते हैं, उनका जप-ध्यान दस गुना प्रभावशाली हो जाता है और अधिक एकाग्रता से करते हैं तो और दस गुना, मतलब सौ गुना लाभ हो जाता है। गुरुपूनम के दिन अगर गुरुदेव का मानसिक पूजन कर लिया तो गुरुपूनम का पर्व और चार चाँद ले आयेगा। दो गुरु जी को नहला दिया। गुरु जी को वस्त्र  पहना दिये। फिर गुरु जी को तिलक किया, पुष्पों की माला पहनायी। गुरु जी को आदर से हाथ जोड़कर स्तुति करके कह रहे हैं- ‘हे गुरुदेव ! आप साक्षात् परब्रह्म हो, सच्चिदानंदस्वरूप हो, अंतरात्मस्वरूप हो। ब्रह्मा-विष्णु-महेश, सर्वव्यापक चैतन्य और आप एक ही हैं।

जब मन-ही-मन नहलाना तो सादे जल से क्यों नहलाना ? गंगोत्री का पावन जल है, तीर्थों का जल है। मन-ही-मन पहनाना तो सादे कपड़े क्यों पहनाना ? नये कोरे वस्त्र पहना दिये। चंदन लगा दिया, तिलक कर दिया। गुलाब व मोगरे की माला पहना दी। आरती कर दी, धूप कर दिया। अब बैठे हैं कि ‘गुरुदेव ! हजारों जन्मों में पिता-माता मिले, उन्होंने जो दिया वह नश्वर लेकिन आपने जो दिया है वह काल का बाप भी नहीं छीन सकता। हे अकालपुरुष मेरे गुरुदेव ! आपके दिये हुए संस्कारों से दुःखों के माथे पर पैर रखने का सामर्थ्य आता है।’

संकल्पों का बड़ा बल होता है। शुभ संकल्प बड़ा प्रभाव दिखाते हैं। सदगुरु शिष्य के लिए शुभ संकल्प करें तो शिष्य का भी फिर यह भाव हो जाता हैः ‘गुरुदेव ! हम बाहर की चीजें तो आपको क्या दें ! फिर भी कुछ भी नहीं देंगे तो उऋण नहीं होंगे, कृतघ्न, गुणचोर हो जायेंगे इसलिए गुरुपूनम के निमित्त मत्था टेकते हैं और शुभ संकल्प करते हैं कि आपका स्वास्थ्य बढ़िया रहे, आपका आरोग्य धन बढ़ता रहे, आपका ज्ञानधन बढ़ता रहे, आपका प्रेमधन बढ़ता रहे, आपका परोपकार का यह महाभगीरथ कार्य और बढ़ता रहे तथा हमारे जैसे करोड़ों लोगों का कल्याण होता रहे। गुरुदेव ! आपका आनंद और छलकता रहे। आपकी कृपा हम जैसे करोड़ों पर बरसती रहे। हम जैसे तैसे हैं, आपके !

प्रभु मेरे अवगुन चित्त न धरो।

समदरशी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो।।

यह शिष्य का शुभ भाव, शुभ संकल्प उसके हृदय को तो विशाल बनाता ही है, साथ ही गुरु के विशाल दैवी कार्य में भी सहायक बन जाता है।

शिष्य कहता हैः ‘एक लोहा कसाई के घर का और दूसरा ब्राह्मण के घर का है लेकिन पारस तो दोनों को सोना बनाता है, ऐसे ही हे गुरुवर ! हमारे गुण-अवगुण न देखिये। हम जैसे-तैसे हैं, आपके हैं। आपके वचनों में हमारी प्रीति बनी रहे। आप हमें परम उन्नत देखना चाहते हैं तो आपका शुभ संकल्प जल्दी फले। मेरे गुरुदेव ! सुख-दुःख में सम, मान-अपमान में सम, गरीबी-अमीरी में सम-ऐसा जो सच्चिदानंदस्वरूप का स्वभाव है, वैसा मेरा स्वभाव पुष्ट होता रहे।’

आत्मतीर्थ में जाने के लिए व्यासजी की आवश्यकता है। हमारी बिखरी हुई चेतना, वृत्तियों, जीवनशैली को, बिखरे हुए सर्वस्व को सुव्यवस्थित करके सुख-दुःख के सिर पर पैर रखकर परमात्मा तक पहुँचाने की व्यवस्था करने में जो सक्षम हैं और अकारण दयालु हैं, ऐसे सदगुरुरूपी भगवान व्यास की आवश्यकता समाज को बहुत है। ऐसे व्यास अगर एकांत में चले जायें तो फिर गड़रिया-प्रवाह (विचारहीन, दिशाहीन होकर देखा-देखी एक एक-दूसरे का अनुसरण करते जाना) चलता रहेगा। श्रद्धालु तो लाखों-करोड़ों हैं लेकिन गुरुज्ञान के अभाव में श्रद्धा के फलस्वरूप जीवन में जो जगमगाहट, हृदय की प्रसन्नता, शांति माधुर्य चाहिए, वह पूरा नहीं मिलता है। अन्य देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी किसी की पूजा रह जाती है लेकिन जो व्यासस्वरूप ब्रह्मज्ञानी गुरु हैं, उनकी पूजा के बाद किसी देव की पूजा बाकी नहीं रह जाती।

हरि हर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय।

सदगुरु की पूजा किये सब की पूजा होय।।

(विचारसागर वेदांत ग्रंथ)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 12-14 अंक 271

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