बाल-वैरागी का अदभुत सामर्थ्य !

बाल-वैरागी का अदभुत सामर्थ्य !


पूज्य बापू जी

अगर मनुष्य का विवेक वैराग्य जाग उठे और वह तत्परता से लग पड़े तो छोटी सी उम्र में भी आत्मज्ञान की परम उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। जरूरत है तो बस, दृढ़ निश्चय और अथक पुरुषार्थ की।

एक महापुरुष थे श्री मधुसूदन सरस्वती। जब वे 10 वर्ष के थे तब एक बार अपने प्रकांड पंडित पिता के साथ नाव में बैठकर राजा के पास गये। उनके पिता ने राजा से कहाः “हर साल बड़े आग्रह के साथ आप मुझे बुलाते हैं और आप मेरे द्वारा शास्त्रीय वचन, कविता एवं सदग्रंथ सुनकर पावन होते हैं किंतु राजन् ! अब मैं वृद्ध हो गया हूँ। अब मुझसे भी उत्तम कविता मेरा यह बालक आपको सुनायेगा। यह बालक है तो 10 साल का परंतु इसके हृदय में माँ सरस्वती का वास है। इसकी वाणी शास्त्र-रस से सुसज्ज है।”

इस प्रकार पिता ने जब मधुसूदन की प्रशंसा की तब राजा ने कहाः “आप लोगों को मुसाफिरी की थकान होगी। अतः आराम करें। हम सुबह फिर मिलेंगे।”

दूसरा दिन हुआ लेकिन राजा से उनकी मुलाकात न हुई। तीसरा दिन, चौथा दिन बीता। अंत में मुश्किल से फिर वही बात राजा के समक्ष छेड़ दी गयी। तब राजाज्ञा से राजदरबार में मधुसूदन ने कुछ चौपाइयाँ, श्लोक, काव्य-रचनादि सुनाये। किंतु राजा का मन किसी और ही जगह पर व्यस्त था। राज्य की सीमाएँ किसी और राजा द्वारा खतरे में पड़ी हुई थीं, राजा को उसकी चिंता हो रही थी।

जब मन में भय एवं चिंता होती है, तब बाहर के पदों में रस नहीं आता। राजा ने बिना हृदय सुनकर पुरस्कार दे के विदा किया। पंडित को भारी दुःख हुआ कि ‘राजा के विशेष आग्रह के वश हम इतने दूर से आये थे, फिर भी राजा ने हमारे ऊपर न कुछ ध्यान दिया, न ही वे खुश हुए।’ पिता पुत्र नाव में बैठकर रवाना हुए। पिता उदासीन से बैठे थे। इतने में विचारमग्न मधुसूदन ने एकाएक कुछ दृढ़ निश्चय किया और पिता से कहने लगेः “एक राजा को रिझाने के लिए हम कितने महीनों से तैयारी कर रहे थे और उन्हें तो हमारी कोई कद्र भी न थी। ऐसे मरणाधर्मा मनुष्यों को रिझाते-रिझाते आपने पूरी जिंदगी बिगाड़ दी। अंत में क्या मिला ? आपकी नाईं काव्य-पद सुनाते-सुनाते ऐसे ही मुझे भी प्रकांड पंडित का पद मिलेगा, मान-प्रतिष्ठा मिलेगी। फिर उस प्रतिष्ठा को सँभालने में, अहंकार को पोसने में तथा पत्नी और बाल-बच्चों की देखभाल करने में ही मेरा जीवन खत्म हो जायेगा। जिसने आत्मा को नहीं पहचाना है, ऐसों की खुशामद में मेरी आयु नष्ट हो जायेगी। आयु पूरी हो जाये उसके पहले मैं आपसे संन्यास-दीक्षा की आज्ञा चाहता हूँ।”

“बेटा ! तू अभी छोटा है। थोड़ा अभ्यास करके विद्वान बन, संसार के भोगों को भोग, उसके पश्चात वृद्धावस्था में संन्यास लेना।”

“पिता जी ! मैंने आपसे ही शास्त्रों की बात सुनी है कि

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।।

नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः।

(गरुड़ पुराण, धर्म कांड – प्रेत कल्पः 47.24-25)

यह शरीर अनित्य है, धन वैभव शाश्वत नहीं हैं और एक-एक दिन करके रोज मृत्यु नजदीक आ रही है। इस नाशवान शरीर का कोई भरोसा नहीं है इसलिए धर्म का संग्रह कर लेना चाहिए। पिता जी ! मिट्टी के घड़े का भी भरोसा होता है कि छः महीने तक रहेगा परंतु इस शरीर का भरोसा नहीं है। अतः जितना हो सके उतना जल्दी समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए।”

“ठीक है पुत्र ! मैं तो अनुमति देता हूँ किंतु मेरी आज्ञा पर्याप्त नहीं है। तुझ पर तेरी माँ का भी अधिकार है, इसलिए घर चलकर अपनी माँ से भी अनुमति ले ले।”

मधुसूदन घर जा के माता के चरणों में प्रणाम करके बोलाः “माँ मैंने आज तक तुमसे कुछ नहीं माँगा लेकिन आज कुछ माँगना चाहता हूँ।”

“वत्स ! तू जो माँगेगा, वह मिलेगा।”

“माँ ! मुझे वचन दे।”

“हाँ पुत्र ! तू जो माँगेगा, वह मैं दूँगी, जरूर दूँगी।”

“माँ ! तुम कल्याणकारिणी हो ! मैं तुमसे और कुछ तो नहीं माँगता, सिर्फ मुझे संन्यास लेने की अनुमति दे दो।”

इतना सुनते ही माँ पर मानो वज्राघात हुआ। आनंद और हर्ष का वातावरण अचानक आक्रंद में बदल गया। मधुसूदन आश्वासन देते हैं, शास्त्रों का ज्ञान सुनाते हैं- “माँ ! तुम कहती थी न कि पुत्र ऐसा होना चाहिए जो अपना और अपने कुल का उद्धार करे। मेरा संन्यास लेना कल्याणकारी सिद्ध होगा। माँ ! तुम वचन दे चुकी हो। अचानक पुत्र की मौत हो जाये तब भी माँ दिल पर पत्थर रखकर जी लेती है। कोई पुत्र जवानी में ही आवारा बन जाता है, कोई पुत्र शादी के बाद पत्नी को लेकर माँ-बाप से अलग हो जाता है और कभी पुत्र का जन्म होते ही उसकी मृत्यु हो जाती है तब भी माता अपने मन को मना लेती है। जबकि मैं तो 10 साल तो तुम्हारे चरणों में रहा हूँ और अब दूर जा भी रहा हूँ तो सत्य को, परमात्मा को पाने के लिए।

पिता जी ने जिंदगीभर राजाओं को रिझाया लेकिन अंत में क्या ? कभी वे खुश हुए तो कभी नाराज हुए। इससे तो वे अपने जीवनदाता प्रभु को रिझाने में समय-शक्ति का खर्च करते तो निहाल हो जाते। इसलिए हे माँ ! तुम मुझे संन्यास लेकर अपने परमेश्वर को पाने की अनुमति प्रदान कर दो।”

माँ के पास अब कहने के लिए कुछ बाकी न रहा था, फिर भी वह बोलीः “ठीक है बेटा ! मनुष्य जन्म प्रभुप्राप्ति के लिए हुआ है। अतः मैं तुम्हारे मार्ग में रुकावट नहीं बनूँगी परंतु बेटा ! अभी तुम छोटे हो।”

“जो मनुष्य छोटी-छोटी चीजें इकट्ठी करने के लिए तड़पता है वह बड़ी उम्र होते हुए भी छोटा होता है और जो छोटा होते हुए भी बड़े-में-बड़े आत्मदेव को पाने के लिए तड़पता है वह फिर छोटा नहीं कहलाता, बड़ा हो जाता है।”

माँ निरुत्तर हो गयी और अंत में मधुसूदन को अनुमति दे ही दीः “जा बेटा ! तेरा कल्याण हो…..।”

माता-पिता के आशीर्वाद ले के बालक मधुसूदन संन्यास लेने के लिए घर का त्याग कर निकल पड़ा। पिता ने सिखाया था कि पहले विद्याभ्यास करके सार-असार का ज्ञान पाकर फिर किसी ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की शरण में जाना। मधुसूदन ने ऐसा ही किया।

एक बार मधुसूदन चलते-चलते यमुना के किनारे आये और वहाँ ध्यानमग्न हो गये। उनका चित्त निर्दोष था। बाहर के कुसंस्कारों का प्रभाव उन पर नहीं पड़ा था। शरीर में ब्रह्मचर्य की शक्ति थी। दृढ़ वैराग्य पनपा हुआ था। अतः सहज में ही वे ध्यानमग्न होने लगे और उनका भीतरी आनंद और रस प्रकट होने लगा।

एक बार अकबर की बेगम को पेट में दर्द होने लगा। उसने कई इलाज करवाये फिर भी कोई दवाई काम न आयी। एक दिन रात को उसको स्वप्न आया। उसने देखा कि एक बालयोगी यमुना किनारे तप कर रहा है। उसको स्पर्श करके जो हवा आती है वह दर्द दूर कर रही है। उस बालयोगी ने उसको आशीर्वाद दिये। फिर वह अच्छी हो गयी।’ प्रभात काल का स्वप्न अकसर सच्चा होता है। सुबह उठकर बेगम ने अकबर को अपने स्वप्न की बात बतायी और वहाँ जाने के लिए कहा। अकबर ने पहले गुप्तचर भेजकर जाँच करवायी कि ‘सचमुच में यमुना-किनारे कोई बालयोगी तपश्चर्या कर रहे हैं कि नहीं ?’

गुप्तचर द्वारा जानने को मिला कि वास्तव में यमुना-किनारे 10 वर्ष के एक बालयोगी ध्यानमग्न बैठे हैं।

अकबर और बेगम गुप्त वेश में बालयोगी के पास गये। बेगम ने प्रार्थना कीः “महाराज ! हम दीन-दुःखी आपकी शरण में आये हैं। मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। बड़े दूर से हम आशा लेकर आपके पास आये हैं।”

बालयोगी मधुसूदन ने आँखें खोलीं और बोलेः “जो जगन्नियंता परमात्मा है, जो सबके हृदय में बस रहा है, उसको याद करोगे तो सब दुःख दूर हो जायेंगे। तुम भी भगवान की कृपा से ठीक हो जाओगी।”

बालयोगी की दृष्टि से ही आधा दर्द तो दूर हो गया था और आधा दर्द महल पहुँचते ही समाप्त हो गया। दूसरे ही दिन अकबर बादशाह हीरे-जवाहरात एवं सुवर्ण मुद्राएँ लेकर बालयोगी मधुसूदन के पास हाजिर हो गया और बोलाः “महाराज ! यह भेंट स्वीकार करने की कृपा कीजिये। कल हम कपट वेश में आये थे। मैं बादशाह अकबर और वह मेरी बेगम थी। मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?”

जब मनुष्य परमात्म-ध्यान में मस्त हो जाता है, परब्रह्म परमात्मा में बुद्धि स्थिर हो जाती है तब उसे ऐहिक वस्तुओं में रस नहीं रहता। आत्मरस चख लेने वाले योगी को फिर सोना, हीरा, जवाहरात या इन्द्रिय भोग-विलास आकर्षित नहीं कर सकते। जिनके चित्त में प्रबल वैराग्य की ज्वाला और परमात्मप्राप्ति की तड़प थी ऐसे 10 वर्ष के बालयोगी मधुसूदन ने बादशाह अकबर को उत्तर दियाः “मेरा कोई मठ या पंथ नहीं है कि मैं हीरे जवाहरात सँभालूँ। मुझे जो सँभालना चाहिए वह मुझे सँभालने दो और यदि आपको मेरे प्रति श्रद्धा है और कुछ देना ही चाहते हो तो इन चीजों का उपयोग साधु-संतों की सेवा में करना, धार्मिक लोगों को राज्य की ओर से सुविधा देना। आप इतना करोगे तो मुझे लगेगा कि मेरी सेवा हो गयी।”

मधुसूदन की वाणी सुनकर अकबर उनसे और भी अधिक प्रभावित हो गया। उनको प्रणाम करके लौटा। वे ही मधुसूदन आगे चलकर बड़े महान संत हुए व श्रीमद्भगवद्गीता पर उन्होंने टीका लिखी। वही मधुसूदनी टीकावाली भगवद्गीता अभी भी भारत के लाखों-लाखों घरों में मिलेगी।

जगत की सत्यता जितनी दृढ़ होती है, वृत्ति जितनी बहिर्मुख होती है और ‘मेरे-तेरे’ के विचार जितने आते हैं, उतनी शक्ति बिखरती है। उम्र के साथ ज्ञान का कोई संबंध नहीं है। जब बुद्धि परब्रह्म-परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है तब चित्त में अदभुत शांति और सामर्थ्य प्रकट होने लगता है। फिर तो जिस पर भी ऐसे महापुरुष की नजर पड़ जाती है वह निहाल हो जाता है। इतना ही नहीं, उनको छूकर जो हवा बहती है, वह भी सुख और शांति की खबरें देने लगती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2016, पृष्ठ संख्या 22-24 अंक 283

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