झूठे अकर्तापन से ज्ञान नहीं होता

झूठे अकर्तापन से ज्ञान नहीं होता


एक आदमी ने जूतों की चोरी की। पकड़ा गया। उससे पूछा गया कि “तुमने जूतों की चोरी की ?”

बोलाः “नहीं, मैंने नहीं की। मेरे पाँवों ने जूते पहन लिये। मैं चोर नहीं हूँ।”

“अच्छा, तुम्हें फाँसी की सजा दी जायेगी।”

बोला कि “न-न, मैं जूते चुराये ही नहीं हैं तो सजा क्यों ?”

“अरे भाई ! सजा तुमको नहीं तुम्हारे गले को दी जा रही है।”

बोलाः “पाँवों ने जूतों की चोरी की तो गले को क्यों सजा दी जा रही है ?”

अच्छा, गले को सजा नहीं देते, तुम्हारे पाँव काट देते हैं।”

बोला कि “नहीं-नहीं।”

“भाई ! जब तुमने चोरी नहीं की, पाँवों ने चोरी की तो पाँवों को सजा देने में तुम्हें बुरा क्यों लगता है ? इसको कहते हैं अकर्तापन की धज्जियाँ उधेड़ना। इसलिए झूठमूठ अकर्तापने की भावना मत करो क्योंकि अकर्तापन का भाव भी एक मानसिक कर्म है।

अब आप इस बात पर थोड़ा सा विचार करो कि “मैं द्रष्टा हूँ” तो कैसे द्रष्टा हो ? ‘आँख के द्वारा रूप का द्रष्टा हूँ या अंतःकरण के द्वारा कल्पित पदार्थों का द्रष्टा हूँ।’ फिर जब अंतःकरण के द्वारा कल्पित पदार्थों का द्रष्टा हूँ।’ फिर जब अंतःकरण के साथ आपका संबंध बना ही रहा और उसी में ‘मैं द्रष्टा हूँ’ यह दृष्टि भी बनी रही तो आप द्रष्टा कैसे हुए ? अच्छा, आप ईश्वर के द्रष्टा हैं कि नहीं ? दूसरे द्रष्टाओं के द्रष्टा हैं कि नहीं ? यह द्रष्टापन इतनी उलझनों में बस रहा है कि यदि दूसरे द्रष्टा हैं तो आप सच्चे द्रष्टा नहीं हैं क्योंकि दूसरे द्रष्टा तो दृश्य होते नहीं। यदि आप प्रपंच के द्रष्टा हैं तो अंतःकरण के द्वारा द्रष्टा हैं या बिना अंतःकरण के द्रष्टा हैं ? आप ईश्वर की कल्पना के द्रष्टा हैं या ईश्वर के द्रष्टा हैं ? यह बात बहुत गहरी, ऊँची है, समझने योग्य है। जो लोग पाप-पुण्य करते जाते हैं और कहते जाते हैं कि “हम कर्ता नहीं हैं, द्रष्टा हैं।” वे वासना के कारण ऐसे काम करते हैं। वासनावान भी कर्ता होता है। जहाँ विरोध है वहाँ भी कर्ता और जहाँ अनुरोध है वहाँ भी कर्ता है। तब क्या करें ?

तो पहली बात यह है कि निकम्मे मत रहो। दूसरी बात, अच्छे काम करो, बुरे काम मत करो। तीसरी बात, अच्छे काम को सकाम मत रखो। चौथी बात, निष्काम कर्म में भी कर्ता मत बनो और पाँचवीं बात यह है कि अकर्तापन में भी जड़ता को मत आने दो।

यह दुनिया जैसी ईश्वर को दिखती है, वैसी ही आपको दिखती है कि नहीं ? यदि ईश्वर की नज़र से कुछ अलग आपको दिखता है तो दोनों में से एक नासमझ होगा, चाहे ईश्वर चाहे आप। एक ही चीज को देखना है। उसको ईश्वर दूसरे रूप से देख रहा है और आप दूसरे रूप से । जब ईश्वर की आँख से अपनी आँख मिल जाती है तो सारा भेद मिट जाता है। इसलिए आप ईश्वर की नज़र से अपनी नज़र मिलाने की कोशिश कीजिए। ईश्वर के साथ मतभेद रखकर आप कभी सुखी नहीं हो सकते। ईश्वर के साथ जिसका कोई मतभेद नहीं है उसी का नाम ब्रह्मज्ञानी है। जब ईश्वर की आँख से आपकी आँख मिल जायेगी तब ईश्वर जैसे सबको अपने स्वरूप से देखता है, वैसे ही (सर्वव्यापक) हरि के सिवाय आपको और कुछ नहीं दिखेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 11, अंक 284

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