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विदेशी भाषा का घातक बोझ सबसे बड़ा दोष है !


 

महात्मा गाँधी

राष्ट्रभाषा दिवसः 14 सितम्बर 2016

एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने के लिए एक सर्वसामान्य भाषा की आवश्यकता है। ऐसी भाषा तो हिन्दी-हिन्दुस्तानी ही हो सकती है।

मराठी, बंगाली, सिंधी और गुजराती लोगों के लिए तो यह बड़ा आसान है, कुछ महीनों में वे हिन्दी पर अच्छा काबू करके राष्ट्रीय कामकाज उसमें चला सकते हैं। मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन द्राविड़ भाई बहन गम्भीर भाव से हिन्दी का अभ्यास करने लग जायेंगे। आज अंग्रेजी पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका 8वाँ हिस्सा भी हिन्दी सीखने में करें तो बाकी हिन्दुस्तान के जो दरवाजे आज उनके लिए बंद हैं वे खुल जायें और वे इस तरह हमारे साथ एक हो जायें जैसे पहले कभी न थे।

हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं का नुकसान पहुँचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिन्दी भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिन्दी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं। वह राष्ट्रीय होने के लायक है। वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक संख्या में लोग जानते-बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो। अंग्रेजी राष्ट्रभाषा कभी नहीं बन सकती।

जितने साल हम अंग्रेजी सीखने में बरबाद करते हैं, उतने महीने भी अगर हम हिन्दुस्तानी सीखने की तकलीफ न उठायें तो सचमुच कहना होगा कि जनसाधारण के प्रति अपने प्रेम की जो डींगें हम हाँका करते हैं वे निरी डींगें ही हैं।

देश के नौजवानों के साथ सबसे बड़ा अन्याय

हमें जो कुछ उच्च शिक्षा अथवा जो भी शिक्षा मिली है वह केवल अंग्रेजी के ही द्वारा न मिली होती तो ऐसी स्वयंसिद्ध बात को दलीलें देकर सिद्ध करने की कोई जरूरत न होती कि ‘किसी भी देश के बच्चों को अपनी राष्ट्रीयता टिकाये रखने के लिए नीची या ऊँची सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिये ही मिलनी चाहिए।’

यह स्वयंसिद्ध बात है कि जब तक किसी देश के नौजवान ऐसी भाषा में शिक्षा पाकर उसे पचा न लें जिसे प्रजा समझ सके, तब तक वे अपने देश की जनता के साथ न तो जीता-जागता संबंध पैदा कर सकते हैं और न उसे कायम रख सकते हैं। आज इस देश के हजारों नौजवान एक ऐसी विदेशी भाषा और उसके मुहावरों पर अधिकार पाने में कई साल नष्ट करने को मजबूर किये जाते हैं जो उनके दैनिक जीवन के लिए बिल्कुल बेकार है और जिसे सीखने में उन्हें अपनी मातृभाषा या उसके साहित्य की उपेक्षा करनी पड़ती है। इससे होने वाली राष्ट्र की अपार हानि का अंदाजा कौन लगा सकता है ? इससे बढ़कर कोई वहम कभी था ही नहीं कि अमुक भाषा का विकास हो ही नहीं सकता या उसके द्वारा गूढ़ अथवा वैज्ञानिक विचार समझाये ही नहीं जा सकते। भाषा तो बोलने वालों के चरित्र और विकास का सच्चा प्रतिबिम्ब है।

अंग्रेजी भाषा के दुष्परिणाम

विदेशी शासन के अनेक दोषों में देश के नौजवानों पर डाला गया विदेशी भाषा के माध्यम का घातक बोझ इतिहास में एक सबसे बड़ा दोष माना जायेगा। इस माध्यम ने राष्ट्र की शक्ति हर ली है, विद्यार्थियों की आयु घटा दी है, उन्हें आम जनता से दूर कर दिया है और शिक्षण को बिना कारण खर्चीला बना दिया है। अगर यह प्रक्रिया अब भी जारी रही तो वह राष्ट्र की आत्मा को नष्ट कर देगी। इसलिए शिक्षित भारतीय जितनी जल्दी विदेशी माध्यम के भयंकर वशीकरण से बाहर निकल जायें उतना ही उनका और जनता का लाभ होगा।

इसे सहन नहीं किया जा सकता

अंग्रेजी के ज्ञान के बिना ही भारतीय मस्तिष्क का उच्च-से-उच्च विकास सम्भव नहीं होना चाहिए। हमारे लड़कों और लड़कियों को यह सोचने का प्रोत्साहन देना कि ‘अंग्रेजी जाने बिना उत्तम समाज में प्रवेश करना असम्भव है।’- यह भारत के पुरुष समाज और खास तौर पर नारी समाज के प्रति हिंसा करना है। यह विचार इतना अपमानजनक है कि इसे सहन नहीं किया जा सकता। इसलिए उचित और सम्भव तो यही है कि प्रत्येक प्रांत में उस प्रांत की भाषा का और सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिन्दी का उपयोग हो। हिन्दी बोलने वालों की संख्या करोड़ों की रहेगी किन्तु (ठीक ढंग से) अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या कुछ लाख से आगे कभी नहीं बढ़ सकेगी। इसका प्रयत्न भी करना जनता के साथ अन्याय करना होगा।

पहली और बड़ी-से-बड़ी समाज सेवा

अंग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता के विश्वास ने हमें गुलाम बना दिया है। उसने हमें सच्ची देशसेवा करने में असमर्थ बना दिया है। अगर आदत ने हमें अंधा न बना दिया होता तो हम यह देखे बिना न रहते कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण आम जनता से हमारा संबंध टूट गया है, राष्ट्र का उत्तम मानस उपयुक्त भाषा के अभाव में अप्रकाशित रह जाता है और आधुनिक शिक्षा से हमें जो नये-नये विचार प्राप्त हुए हैं उनका लाभ सामान्य लोगों को नहीं मिलता। पिछले 60 वर्षों से हमारी सारी शक्ति ज्ञानोपार्जन के बजाय अपरिचित शब्द और उनके उच्चारण सीखने में खर्च हो रही है। हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाजसेवा यह होगी कि हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरु करें तथा हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वाभाविक स्थान दें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 284

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राजकुमार श्यामराव से बने संत तुलसी साहिब


 

पुणे (महाराष्ट्र) के राजा ने अपने बड़े युवराज श्यामराव का विवाह केवल 12 वर्ष की उम्र में कर दिया। श्यामराव ने इस विवाह का बहुत विरोध किया था। वे बचपन से ही वैरागी थे किंतु पिता और ऊपर से राजा, भला उनका आदेश वे कैसे टालते ! जब वे 20-22 वर्ष के हो गये, तब भी पति-पत्नी के शारीरिक विकारों से दूर रहे। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई एक पतिव्रता नारी थी। वह सदैव पति की सेवा में तल्लीन रहती। श्यामराव अपनी पत्नी की सेवा से बहुत प्रसन्न थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कहाः “तुमने मेरी बहुत सेवा की है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आज तुम मुझसे कुछ माँग लो।”

लक्ष्मीबाई शर्मा गयी। उसने सारी बात अपनी सासु को बता दी और कहाः “भला मैं क्या माँगूँ ? मेरे पास सब कुछ है।”

सासु बोलीः “नहीं, तुम्हारे पास पुत्र नहीं है। अब वही बात फिर से कहे तो तुम उससे एक पुत्र माँग लेना।”

दूसरे दिन श्यामराव ने फिर वही बात दोहरायी तो झुकी हुई आँखों से लक्ष्मीबाई बोलीः “मुझे एक पुत्र दे दीजिये।”

उनको दस महीने बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई। श्यामराव के पिता ने सोचा, ‘अब तो पुत्र का मन संसार में रम गया है इसलिए उसे राजगद्दी सौंपकर जंगल में जा के भगवान का भजन किया जाय।’ किंतु पुत्र तो पहले ही अंदर से संन्यासी था, वह बोलाः “पिता जी ! आप राजपाट क्यों छोड़ना चाहते हैं ?”

“बेटा ! यह सब एक दिन तो छूट ही जाना है। मैं क्यों न इस मोह-माया से दूर जाकर सत्य की खोज करूँ, जो मानव-जीवन का लक्ष्य है।”

“पिता जी ! जो आपका लक्ष्य है, वही मेरा भी लक्ष्य है। आप अब इस उम्र में राजपाट त्यागना चाहते हैं तो समझिये मैंने इसे त्याग ही दिया। मैं भला क्यों इस झूठी मोह माया में पड़ूँ, जिससे आप छूटना चाहते हो !”

फिर भी पिता ने आस नहीं छोड़ी, वे बार-बार समझाते रहे और एक दिन श्यामराव को राजगद्दी सौंपने की तिथि की घोषणा कर दी।

राजकुमार को राजा बनाने की तैयारियाँ जोरों से चल रही थीं। उनका राज्याभिषेक होने में केवल एक दिन शेष था। वे अपने कुछ साथी और जीवन-रक्षक घुड़सवारों के साथ शहर से बाहर निकल गये। धीरे-धीरे अपने तेज-तर्रार तुर्की घोड़े को साथियों से भी अलग ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी राहों से एवं इतने दूर निकल गये कि कोई खोज न पाये। उनकी खोज में अनेक सैनिक दौड़ाये गये किंतु उनका कहीं पता नहीं चला। आखिर निराश हो के राजा ने राजगद्दी अपने छोटे पुत्र बाजीराव को सौंपकर वन-गमन किया।

यद्यपि श्यामराव स्वयं एक उच्च कोटि के साधक थे किंतु फिर भी वे किन्हीं ऐसे महापुरुष की तलाश में थे जिनसे वे गुरुदीक्षा ले सकें। उनको ऐसे ही एक संत मिल गये। उन्होंने उन संत को अपना सब कुछ सौंप दिया और उनकी शरण में चले गये। गुरुआज्ञा से वे ॐकार के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत जप की साधना में डूब गये। शारीरिक और मानसिक साधनाएँ कीं और एक दिन शरीर, इन्द्रियों और मन के पार होकर निजात्मा में स्थित हो गये। आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करने में सफल हो गये। वे श्यामराव से तुलसी साहेब बनकर समाज में विचरण करने लगे। उन्होंने गाँवों-शहरों में बरसों घूम-घूमकर लोगों को सत्य का ज्ञान दिया। हाथरस (उत्तर प्रदेश) में उनका छोटा सा आश्रम है और वे वहीं रह के सत्संग कर लोगों को सन्मार्ग दिखाते रहे।

एक बार एक साहूकार तुलसी साहेब को किसी तरह प्रसन्न कर अपने घर भोजन कराने ले गया। उसने बहुत सेवा की किंतु सेवा के पीछे उसका स्वार्थ था। उसने उनसे माँगा कि वे कृपा करके उसे पुत्रप्राप्ति का वरदान दे दें। इस पर तुलसी साहेब ने अपना सोंटा उठाया और चलते हुए बोलेः “मैं तो वरदान देना चाहता हूँ कि तुम्हारे यहाँ पुत्र हो तो भी भगवान उसे उठा लें और तुम्हें बिल्कुल कंगाल कर दें। तभी तुम इस संसार की इस मोह-माया छोड़कर परमात्मा की खोज में निकलोगे, तभी तुम्हें स्थायी आनंद का पता चलेगा।” महापुरुषों की अपनी अलमस्ती होती है। सामने वाले की योग्यता के अनुसार कुछ देना-न देना, जिसमें सामने वाले का मंगल होता है वही उनके द्वारा होता है।

तुलसी साहेब का मानना है कि ‘समस्त लोगों और समस्त धर्मों का स्वामी एक ही परमात्मा है। उस एक का ही चिंतन करना चाहिए। उस एक ईश्वर को ही जानना चाहिए। छोटे-मोटे देवताओं की पूजा अंततः संसार के आवागमन में ही घुमाती है। हमें इस चक्रव्यूह से बाहर निकलना है। एक ॐकार तत्त्व को जानकर उसी में मिल जाना है। यही मोक्ष है।’ इस तरह वे अद्वैत मत के समर्थक थे।

उन्होंने सन् 1843 में अपना पंचभूतों का चोला छोड़ा और अखंड चैतन्य में समा गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 284

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तेलों में सर्वश्रेष्ठ बहुगुणसम्पन्न तिल का तेल


 

तेलों में तिल का तेल सर्वश्रेष्ठ है। यह विशेषरूप से वातनाशक होने के साथ ही बलकारक, त्वचा केश व नेत्रों के लिए हितकारी, वर्ण(त्वचा का रंग) को निखारने वाला, बुद्धि एवं स्मृतिवर्धक, गर्भाशय को शुद्ध करने वाला और जठराग्निवर्धक है। वात और कफ को शांत करने में तिल का तेल श्रेष्ठ है।

अपनी स्निग्धता, तरलता और उष्णता के कारण शरीर के सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर यह दोषों को जड़ से उखाड़ने तथा शरीर के सभी अवयवों को दृढ़ व मुलायम रखने का कार्य करता है। टूटी हुई हड्डियों व स्नायुओं को जोड़ने में मदद करता है।

तिल के तेल की मालिश करने व उसका पान करने से अति स्थूल (मोटे) व्यक्तियों का वज़न घटने लगता है व कृश (पतले) व्यक्तियों का वज़न बढ़ने लगता है। तेल खाने की अपेक्षा मालिश करने से आठ गुना अधिक लाभ करता है। मालिश से थकावट दूर होती है, शरीर हलका होता है। मजबूती व स्फूर्ति आती है। त्वचा का रूखापन दूर होता है, त्वचा में झुर्रियाँ तथा अकाल वार्धक्य नहीं आता। रक्तविकार, कमरदर्द, अंगमर्द (शरीर का टूटना) व वात-व्याधियाँ दूर रहती हैं। शिशिर ऋतु में मालिश विशेष लाभदायी है।

औषधीय प्रयोग

तिल का तेल 10-15 मिनट तक मुँह में रखकर कुल्ला करने से शरीर पुष्ट होता है, होंठ नहीं फटते, कंठ नहीं सूखता, आवाज सुरीली होती है, जबड़ा व हिलते दाँत मजबूत बनते हैं और पायरिया दूर होता है।

50 ग्राम तिल के तेल में 1 चम्मच पीसी हुई सोंठ और मटर के दाने के बराबर हींग डालकर गर्म किये हुए तेल की मालिश करने से कमर का दर्द, जोड़ों का दर्द, अंगों की जकड़न, लकवा आदि वायु के रोगों में फायदा होता है।

20-25 लहसुन की कलियाँ 250 ग्राम तिल के तेल में डालकर उबालें। इस तेल की बूँदें कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है।

प्रतिदिन सिर में काले तिलों के शुद्ध तेल से मालिश करने से बाल सदैव मुलायम, काले और घने रहते हैं, बाल असमय सफेद नहीं होते।

50 मि.ली. तिल के तेल में 50 मि.ली. अदरक का रस मिला के इतना उबालें कि सिर्फ तेल रह जाये। इस तेल से मालिश करने से वायुजन्य जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।

तिल के तेल में सेंधा नमक मिलाकर कुल्ले करने से दाँतों के हिलने में लाभ होता है।

घाव आदि पर तिल का तेल लगाने से वे जल्दी भर जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2016, पृष्ठ संख्या 32 अंक 284

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