योगविद्या से भी ऊँची है आत्मविद्या

योगविद्या से भी ऊँची है आत्मविद्या


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

योग में चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है और व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है। समाधि से सामर्थ्य आता है, परंतु जीवत्व बाकी रह जाता है। ‘पातंजल योगदर्शन’ और ‘कुंडलिनी योग’ के अनुसार अभ्यास करने पर मनोजय हो जाता है, समाधि हो जाती है, सामर्थ्य आ जाता है, परंतु जब साधक समाधि से उठता है तो उसे जगत सच्चा लगता है। इसलिए इन समाधियों को लय समाधि कहा गया है।

योगविद्या से मन का लय हो जाता है जबकि आत्मविद्या से मन का बाध हो जाता है।

मन के बाध और लय में क्या फर्क है ?

आपने रस्सी में साँप देखा और आपको भय लगा। किसी ने आपको आश्वासन दिया और वीरता की अच्छी बातें कहीं। आपने सोचा कि यह साँप मेरा क्या बिगाड़ेगा ?’ और आप खाने-पीने में, सुख-सुविधा के साधनों में मस्त हो गये। इस प्रकार रस्सी में दिखने वाले साँप से आपका भय गायब हो गया। परंतु फिर जब रस्सी में दिखने वाली साँप की तरफ गये तो हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं… अर्थात् आप कुछ समय के लिए साँप की सत्यता भूल गये, फिर आपने देखा तो वही रस्सी साँप होकर सच्चा भासने लगी। यह है मन का लय होना।

अगर टार्च लेकर आपने रस्सी को देख लिया तो फिर रस्सी दिखेगी तो साँप के आकार की, परंतु साँप आपको सच्चा नहीं लगेगा, क्योंकि वह बाधित हो गया। यह है मन का बाध।

ऐसे ही आत्मविद्या संसाररूपी सर्प को बाधित कर देती है और योगविद्या मन को लय कर देती है तो संसाररूपी सर्प नहीं दिखता। योगविद्या के साथ यदि आत्मविद्या नहीं है तो योगविद्यावाले का पतन हो सकता है। इसलिए ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः योगभ्रष्टोऽभिजायते। पतन से तात्पर्य संसारी व्यक्ति की तरह पतन से नहीं, संसारी की जो स्थिति है उससे तो योगविद्यावाले बहुत ऊँचे होते हैं, परन्तु आत्मविद्या की ऊँचाई के आगे वे बच्चे हैं।

जब तक आत्मविद्या को ठीक से नहीं समझते, तब तक धन का, विद्या का, सत्ता का कोई न कोई भूत अंदर घुस जाता है और तुच्छ चीजों का, प्रकृति के गुण-दोषों का आरोप अपने में करके हम लोग एक दायरा बना लेते हैं और उस दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। ‘मैं पटेल’, ‘मैं सिंधी’, ‘मैं गुजराती’ – इसी दायरे में उलझकर रह जाते हैं। लोग भले कहें और हम भी ऊपर-ऊपर से ‘हाँ’ कहें, परंतु भीतर से समझना चाहिए कि हम गुजराती भी नहीं, पटेल भी नहीं, सिंधी भी नहीं, हम तो हम ही हैं। जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में एकरस साक्षी है, वह परम सत्ता और हम एक हैं।

जिस सत्ता से यह तन पैदा हुआ, यह मन उत्पन्न हुआ, बुद्धि व अहं उत्पन्न हुए और बदलते रहते हैं, जो इन सबको सत्ता-स्फूर्ति देता है और सबको बदलने की सत्ता देता है, वह चैतन्य आत्मा हम हैं। उसी को तत्त्वरूप से जानना – यह आत्मविद्या का लक्ष्य है।

ऋद्धि-सिद्धि का सामर्थ्य, सफलता आदि सब प्रकृति के अंतर्गत होते हैं। जिन्होंने पानी को घी बना दिया – ऐसे योगियों का नाम मैंने सुना है। बीमार को ठीक कर दिया…. मुर्दे को जिंदा कर दिया…. यह सब ठीक है, परंतु हैं सब प्रकृति के अंतर्गत। तत्त्वज्ञान इससे बहुत ऊँची चीज है। तत्त्वज्ञान पाने के लिए अहं को विसर्जित करना पड़ता है। योगविद्या में मन का लय होता है, एकाग्रता से सामर्थ्य आता है, परंतु ब्रह्मविद्या में मन बाधित हो जाता है और तत्त्व का बोध हो जाता है।

मन आत्मा में लय हो जाय – यह एक बात है और मन बाधित हो जाय – यह दूसरी बात है। जैसे, विश्वासपात्र व्यक्ति ने सर्प से निश्चिंत कर दिया तो आप निश्चिंत हो गये, परंतु विश्वासपात्र व्यक्ति की जगह कोई दूसरा आकर कहने लगे कि ‘भाई ! उन्होंने भले कह दिया कि साँप नहीं काटेगा परंतु आप सँभलना….’ तो उसकी सत्यता मौजूद रहेगी। ऐसे ही योगविद्या में कितने भी ऊँचे चले जाओ तो भी योगी को थोड़े बहुत पतन का भय बना रहता है, परंतु ज्ञानी को कोई भय नहीं क्योंकि ज्ञानी के लिए जगत बाधित हो जाता है। जैसे, टॉर्च से रस्सी को रस्सी जानकर सर्प की सत्यता चली जाती है, ऐसे ही आत्मज्ञानी के लिए जगतरूपी सर्प बाधित हो जाता है। ऐसा ज्ञानवान जगत से निर्लेप हो जाता है।

जैसे, सूर्य अपने स्थान पर रहकर जगत को अपने किरणरूपी हाथ से छू लेता है फिर भी निर्लिप्त रहता है, ऐसे ही वह चैतन्य ‘मैं’ अपनी सत्ता-स्फूर्ति की चेतना के द्वारा सारे शरीरों को छूता है फिर भी निर्लिप्त रहता है। जैसे, सूर्य सब पेड़ पौधों को छूता है और उसी की सत्ता से सब जीते हैं, फलते-फूलते हैं परंतु वे मिट जायें, नष्ट हो जायें फिर भी सूर्यनारायण का बाल तक बाँका नहीं होता। ऐसे सूर्यनारायण में भी जिसकी सत्ता है उस सत्ता का कुछ नहीं बिगड़ता। वही सत्ता आँखों के द्वारा देखती है, कानों के द्वारा सुनती है, जिह्वा के द्वारा बोलती है, मन के द्वारा सोचती है, बुद्धि के द्वारा निर्णय लेती है, वही सत्ता लेकर अहं ‘मैं-मैं’ करता है। वही सत्ता स्वरूप ‘मैं’ हूँ, ऐसा बोध हो जाना यह आत्मविद्या का उद्देश्य है।

जीव का यह स्वभाव है कि वह जिस शरीर में आता है उसी शरीर को ‘मैं मानकर अपनी आयुष्य गिनता है। वास्तव में देखा जाय तो उसने हजारों शरीरों में कई-कई बार जन्म लिये और जिस-जिस शरीर में जन्म लिया उसी को ‘मैं’ मान लिया, परंतु वह वास्तव में ‘मैं’ नहीं है। अगर वह शरीर ‘मैं’ होता तो शरीर चले जाने के बाद ‘मैं’ भी चला जाता…. परंतु ऐसा नहीं है।

आपका वास्तविक स्वरूप कहीं आता-जाता नहीं है – ऐसा ज्ञान हो जाना आत्मविद्या का लक्ष्य है जबकि प्राकृतिक गुण-दोष और पदार्थ आने जाने वाले हैं।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

‘ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं है।’

यदि कोई इस आत्मविद्या के विचार में नित्य तल्लीन रहे तो उसकी कामनाएँ, आकर्षण आद दूर हो जाते हैं। कामनाएँ दूर होते ही काम्य  पदार्थ उसकी शरण खोजने आते हैं। फिर उसे यश की इच्छा नहीं होगी तब भी यश उसके पीछे पड़ेगा, उसे धन की इच्छा नहीं होगी तब भी धन उसकी गुलामी करेगा, भोग की  इच्छा नहीं होगी तब भी भोग उसके इर्दगिर्द में मँडरायेंगे। कोई कहे कि ‘महाराज ! हमें भी तो यश, धन, भोग की कोई इच्छा नहीं है फिर भी यश तो नहीं मिला।’ अरे, ‘इच्छा नहीं है’ कहकर भी यश तो चाहते हैं, गहराई में तो इच्छा है ! भीतर से इच्छा हटनी चाहिए। गहराई से इच्छा हटते ही इच्छित पदार्थ आपके इर्दगिर्द मँडराने लगते हैं – यह प्रकृति का नियम है।

जिसके चित्त में कोई इच्छा नहीं होती, उसके चित्त में राग-द्वेष भी कैसे हो सकते हैं ? जिन्होंने अपने हृदय में ठीक से साक्षी होकर अपने स्वरूप को जान लिया, उनको सदैव-सर्वत्र अपना-आपा ही नज़र आता है। ऐसे महापुरुषों के चित्त में राग-द्वेष कहाँ ?

प्रारम्भ में राग-द्वेष से बचा जाता है, बाद में देश-काल की माया से भी बचा जाता है। अमुक देश में, अमुक काल में प्रीति करना – यह भी माया है। यह माया भी आत्मविद्या की प्राप्ति के बाद छूट जाती है।

योग विद्या में तो राग-द्वेष से बचने पर प्रवेश मिल जाता है और पहुँच भी जाती है, परंतु आत्मविद्या तो राग-द्वेष से पार करके, देश-काल से भी पार कर देती है और परब्रह्म-परमात्मस्वरूप में जगा देती है। ऐसी आत्मविद्या की महिमा है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 118

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