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दीपावलीः लक्ष्मीप्राप्ति की साधना


 

दीपावली के दिन घर के मुख्य दरवाजे के दायीं और बायीं ओर गेहूँ की छोटी-छोटी ढेरी लगाकर उस पर दो दीपक जला दें। हो सके तो वे रात भर जलते रहें, इससे आपके घर में सुख-सम्पत्ति की वृद्धि होगी।

मिट्टी के कोरे दीयों में कभी भी तेल-घी नहीं डालना चाहिए। दीये 6 घंटे पानी में भिगोकर रखें, फिर इस्तेमाल करें। नासमझ लोग कोरे दीयों में घी डालकर बिगाड़ करते हैं।

लक्ष्मीप्राप्ति की साधना का एक अत्यंत सरल और केवल तीन दिन का प्रयोगः दीपावली के दिन से तीन दिन तक अर्थात् भाईदूज तक स्वच्छ कमरे में अगरबत्ती या धूप (केमिकल वाली नहीं-गोबर से बनी) करके दीपक जलाकर, शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, ललाट पर केसर का तिलक कर, स्फटिक मोतियों से बनी माला द्वारा नित्य प्रातः काल निम्न मंत्र की मालायें जपें।

ॐ नमो भाग्यलक्ष्म्यै च विद्महै।

अष्टलक्ष्म्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।।

अशोक के वृक्ष और नीम के पत्ते में रोगप्रतिकारक शक्ति होती है। प्रवेशद्वार के ऊपर नीम, आम, अशोक आदि के पत्ते को तोरण (बंदनवार) बाँधना मंगलकारी है।

दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति की सचोट साधना विधियाँ –

  1.      धनतेरस से आरम्भ करें –

सामग्री – दक्षिणावर्ती शंख, केसर, गंगाजल का पात्र, धूप, अगरबत्ती, दीपक, लाल वस्त्र ।

विधि – साधक अपने सामने गुरुदेव या लक्ष्मी जी की फोटो रखें तथा उनके सामने लाल रंग का वस्त्र (रक्त कन्द) बिछाकर उस पर दक्षिणावर्ती शंख रख दें । उस पर केशर से सतिया बना लें तथा कुमकुम से तिलक कर दें । बाद में स्फटिक की माला से मंत्र की सात मालायें करें । तीन दिन ऐसा करना योग्य है । इतने से ही मंत्र साधना सिद्ध हो जाती है । मंत्र जप पुरा होने के पश्चात लाल वस्त्र में शंख को बाँधकर घर में रख दें । जब तक वह शंख घर मे रहेगा, तब तक घर में निरंतर उन्नति होती रहेगी।

मंत्र ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महालक्ष्मी धनदा  लक्ष्मी कुबेराय मम गृह स्थिरो ह्रीं ॐ नमः

  1.      दीपावली से आरम्भ करें –

दीपावली पर लक्ष्मी प्राप्ति की साधना का एक अत्यंत सरल एवं त्रिदिवसीय उपाय यह भी है कि दीपावली के दिन से तीन दिन तक अर्थात भाई दूज तक स्वच्छ कमरे में धूप, दीप, व अगरबत्ती जलाकर शरीर पर पीले वस्त्र धारण करके, ललाट पर केशर का तिलक कर, स्फटिक मोतियों से बनी माला नित्य प्रातः काल निम्न मंत्र की दो दो मालायें जपें –

ॐ नमो भाग्यलक्ष्म्यै च विद्महै।

अष्टलक्ष्म्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।।

( दीपावली लक्ष्मी जी का जन्मदिवस है । समुद्र मंथन के दौरान वे क्षीरसागर से प्रकट हुई थी, अतः घर में लक्ष्मी जी के वास, दरिद्रता के विनाश और आजीविका के उचित निर्वाह हेतु यह साधना करने वाले पर लक्ष्मी जी प्रसन्न होती है। )

 

पर्वो का पुंज


 

निवेदन

मानों ना मानों ये हकीकत है। खुशी इन्सान की जरूरत है।।

महीने में अथवा वर्ष में एक-दो दिन आदेश देकर कोई काम मनुष्य के द्वारा करवाया जाये तो उससे मनुष्य का विकास संभव नहीं है। परंतु मनुष्य यदा-कदा अपना विवेक जगाकर उल्लास, आनंद, प्रसन्नता, स्वास्थ्य और स्नेह का गुण विकसित करे तो उसका जीवन विकसित हो सकता है।

उल्लास, आनंद, प्रसन्नता बढ़ाने वाले हमारे पर्वों में, पर्वों का पुंज-दीपावली अग्रणी स्थान पर है। भारतीय संस्कृति के ऋषि-मुनियों, संतों की यह दूरदृष्टि रही है, जो ऐसे पर्वों के माध्यम से वे समाज को आत्मिक आनंद, शाश्वत सुख के मार्ग पर ले जाते थे। परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के इस पर्व के पावन अवसर किये सत्संग प्रवचनों का यह संकलन पुस्तक के रूप में आपके करकमलों तक पहुँचने की सेवा का सुअवसर पाकर समिति धन्यता का अनुभव करती है।

श्री योग वेदान्त सेवा समिति

अमदावाद आश्रम।

ऐसी दिवाली मनाते हैं पूज्य बापूजी

संत हृदय तो भाई संत हृदय ही होता है। उसे जानने के लिए हमें भी अपनी वृत्ति को संत-वृत्ति बनाना होता है। आज इस कलयुग में अपनत्व से गरीबों के दुःखों को, कष्टों को समझकर अगर कोई चल रहे हैं तो उनमें परम पूज्य संत श्री आसाराम जी बापू सबसे अग्रणी स्थान पर हैं। पूज्य बापू जी दिवाली के दिनों में घूम-घूम कर जाते हैं उन आदिवासियों के पास, उन गरीब, बेसहारा, निराश्रितों के पास जिनके पास रहने को मकान नहीं, पहनने को वस्त्र नहीं, खाने को रोटी नहीं ! कैसे मना सकते हैं ऐसे लोग दिवाली?लेकिन पूज्य बापू द्वारा आयोजन होता है विशाल भंडारों का, जिसमें ऐसे सभी लोगों को इकट्ठा कर मिठाइयाँ, फल, वस्त्र, बर्तन, दक्षिणा, अन्न आदि का वितरण होता है। साथ-ही-साथ पूज्य बापू उन्हें सुनाते हैं गीता-भागवत-रामायण-उपनिषद का संदेश तथा भारतीय संस्कृति की गरिमा तो वे अपने दुःखों को भूल प्रभुमय हो हरिकीर्तन में नाचने लगते हैं और दीपावली के पावन पर्व पर अपना उल्लास कायम रखते हैं।

 उल्लासपूर्ण जीवन जीना सिखाती है सनातन संस्कृति

हमारी सनातन संस्कृति में व्रत, त्यौहार और उत्सव अपना विशेष महत्व रखते हैं। सनातन धर्म में पर्व और त्यौहारों का इतना बाहूल्य है कि यहाँ के लोगो में सात वार नौ त्यौहार की कहावत प्रचलित हो गयी। इन पर्वों तथा त्यौहारों के रूप में हमारे ऋषियों ने जीवन को सरस और उल्लासपूर्ण बनाने की सुन्दर व्यवस्था की है। प्रत्येक पर्व और त्यौहार का अपना एक विशेष महत्व है, जो विशेष विचार तथा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किया गया है।

ये पर्व और त्यौहार चाहे किसी भी श्रेणी के हों तथा उनका बाह्य रूप भले भिन्न-भिन्न हो, परन्तु उन्हें स्थापित करने के पीछे हमारे ऋषियों का उद्देश्य था समाज को भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर लाना।

अन्तर्मुख होकर अंतर्यात्रा करना यह भारतीय संस्कृति का प्रमुख सिद्धान्त है। बाहरी वस्तुएँ कैसी भी चमक-दमकवाली या भव्य हों, परन्तु उनसे आत्म कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि वे मनुष्य को परमार्थ से जीवन में अनेक पर्वों और त्यौहारों को जोड़कर हम हमारे उत्तम लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें, ऐसी व्यवस्था बनायी है।

मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार सदा एक रस में ही रहना पसंद नहीं करता। यदि वर्ष भर वह अपने नियमित कार्यों में ही लगा रहे तो उसके चित्त में उद्विग्नता का भाव उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि उसे बीच-बीच में ऐसे अवसर भी मिलते रहें, जिनसे वह अपने जीवन में कुछ नवीनता तथा हर्षोल्लास का अनुभव कर सके।

जो त्यौहार किसी महापुरुष के अवतार या जयंती के रूप में मनाये जाते हैं, उनके द्वारा समाज को सच्चरित्रता, सेवा, नैतिकता, सदभावना आदि की शिक्षा मिलती है। बिना किसी मार्गदर्शक अथवा प्रकाशस्तंभ के संसार में सफलतापूर्वक यात्रा करना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। इसीलिए उन्नति की आकांक्षा करने वाली जातियाँ अपने महान पूर्वजों के चरित्रों को बड़े गौरव के साथ याद करती हैं। जिस व्यक्ति या जाति के जीवन में महापुरुषों का सीधा-अनसीधा ज्ञान प्रकाश नहीं, वह व्यक्ति या जाति अधिक उद्विग्न, जटिल व अशांत पायी जाती है। सनातन धर्म में त्यौहारों को केवल छुट्टी का दिन अथवा महापुरुषों की जयंती ही न समझकर उनसे   समाज की वास्तविक उन्नति तथा चहुँमुखी विकास का उद्देश्य सिद्ध किया गया है।

लंबे समय से अनेक थपेड़ों को सहने, अनेक कष्टों से जूझने तथा अनेक परिवर्तनों के बाद भी हमारी संस्कृति आज तक कायम है तो इसके मूल कारणों में इन पर्वों और त्यौहारों का भी बड़ा योगदान रहा है।

हमारे तत्त्ववेत्ता पूज्यपाद ऋषियों ने महान उद्देश्यों को लक्ष्य बनाकर अनेक पर्वों तथा त्यौहारों के दिवस नियुक्त किये हैं। इन सबमें लौकिक कार्यों के साथ ही आध्यात्मिक तत्त्वों का समावेश इस प्रकार से कर दिया गया है कि हम उन्हें अपने जीवन में सुगमतापूर्वक उतार सकें। सभी उत्सव समाज को नवजीवन, स्फूर्ति व उत्साह देने वाले हैं। इन उत्सवों का लक्ष्य यही है कि हम अपने महान पूर्वजों के अनुकरणीय तथा उज्जवल सत्कर्मों की परंपरा को कायम रखते हुए जीवन का चहुँमुखी विकास करें।

 

Satsang On Diwali


 

दिवाली में ४ चीजे करते…(आप अध्यात्मिक दिवाली मनाओ)

१)घर का कचरा बाहर निकाल कर साफसुथरा करते ऐसे फालतू वासना का कचरा बाहर निकालो … अध्यात्मिक दिवाली मनाओ….

२)घर में नई चीजे लाते … “दुसरे का हीत , दुसरे का मंगल कैसे हो” ये आप के जीवन में नई चीज लाओ… दुसरे सुख, प्रसन्नता और सन्मानित कैसे रहे ऐसा हीत का चिंतन करो तो आप लोक लाडले हो जायेंगे..

३)दिए जलाते… अपने को परिस्थितियों में पीसो मत….ज्ञान का दिया जलाओ …..दुःख आया तो गलती हुयी है, गलती कैसे मिटे …धन के संग्रह में लगे तो गलती हुयी तो इनकम टैक्स का दुःख हुआ….संसार दुखालय है….आसक्ति से पंगा छुडाओ ….सुख आया तो बाटों ..सुख उदार होने के लिए आता ..ऐसा ज्ञान का दिया जलाओ ..

४) मिठाई खाते और खिलाते…. प्रभु का आनंद अपने जीवन में भरो…ख़ुद भी प्रसन्न रहो….दूसरो को भी मधुरता दो..मधुराधिपतये मधुरं मधुरं… अर्थात मधुमय व्यवहार करो ..

(किसी गरीब बस्ती में जाकर मिठाई खिलाना और गरीब के घर में भी दिया जला के आना)

.. मैं दिवाली में आदिवासी एरिया में जाऊँगा…जहा गरीब गुरबे है… कपडे, बर्तन, मिठाई बाटूंगा ….हम दिवाली नए कपडे पहेन के नही मनाते… मेरी तो रोज दिवाली है…