संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को कैसे पायें ?

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को कैसे पायें ?


 

पूज्य बापूजी

श्रीमद्भगवदगीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शान्ति, धर्म आदि दैवी गुण सहज की विकसित हो उठते हैं | अधर्म, अन्याय एवं शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है | भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करनेवाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता – ग्रंथ पुरे विश्व में अद्वितीय है |

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को कैसे पा सकते हैं ? यह ज्ञान पाना है तो भगवद्गीता है | युद्ध के मैदान में अर्जुन है, ऐसा अर्जुन जो काम कर सकता है, क्या वह तुम नहीं कर सकते ? अर्जुन तो इतने बखेड़े में था, तुम्हारे आगे इतना बखेड़ा नहीं है |

भाई ! अर्जुन के पास तो कितनी जवाबदारी थी ! फिर भी अर्जुन को श्रीकृष्ण ने जिस बात का उपदेश दिया है, अर्जुन अगर उसका अधिकारी है युद्ध के मैदान में तो तुम भगवदगीता के अमृत के अधिकारी अवश्य हो भाई ! तुम्हारे को जो नौकरी और संसार ( प्रपंच) लगा है उससे तो ज्यादा पहले संसार था फिर भी हिम्मतवान मर्दों ने समय बचाकर इन विकारों पर, इन बेवकूफियों पर विजय पा ली और अंदर में अपने आत्मा – परमात्मा का ज्ञान पा लिया |

…और गीता की जरूरत केवल अर्जुन को ही थी ऐसी बात नहीं है | हम सब भी युद्ध के मैदान में ही हैं | अर्जुन ने तो थोड़े ही दिन युद्ध किया किंतु हमारा तो सारा जीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ‘मेरा-तेरा’ रूपी युद्ध के बीच ही है | अत: अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है |

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मज्ञान दे रहे हैं | श्रीकृष्ण आये हैं तो कैसे ? विषम परिस्थिति में आये हैं | गीता का भगवान कैसा अनूठा है ! कोई भगवान किसी सातवें अरस पर होते हैं, किसीके भगवान कहीं होते हैं लेकिन हिन्दुओं के भगवान तो जीव को रथ पर बिठाते हैं और आप सारथी होकर, छोटे हो के भी जीव को शिवत्व का साक्षात्कार कराने में संकोच नहीं करते हैं | और ‘इतना नियम करो, इतना व्रत करो, इतना तप करो फिर मैं मिलूँगा’, ऐसा नहीं, श्रीकृष्ण तो यूँ कहते हैं : अपि चेदसि पापेभ्य: – तू पापियों, दुराचारियों की आखिरी पंक्ति का हो ….

सर्वभ्य: पापकृत्तम: |  प्रिय, प्रियतर, प्रियतम, ऐसे ही कृत, कृततर, कृततम |

सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ||  

तू उस ब्रह्मज्ञान की नाव में बैठ, तू यूँ तर जायेगा, यूँ…. ऐसी भगवद्गीता देश में हो फिर भी देशवासी जरा – जरा बात में चिढ़ जायें, जरा – जरा बात में दु:खी हो जायें, भयभीत हो जायें, जरा – जरा बात में ईर्ष्या में आ जायें तो यह गीता-ज्ञान से विमुखता का ही दर्शन हो रहा है | अगर गीता के ज्ञान के सम्मुख हो जायें तो यह दुर्भाग्य हमारा हो नहीं सकता, टिक नही सकता |

गीता श्रीकृष्ण के ह्रदय का संगीत है, उनके जीवन की पोथी है | गीता श्रीकृष्ण का वह प्रसाद है जिसका आश्रय लेकर मानवता अपने ब्रह्मस्वभाव को पाने में सक्षम होती है |

-लोककल्याण सेतु – अंक : निरंतर २३३ नवम्बर – २०१६ से

 

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