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परम कल्याण करनेवाला ग्रंथ : श्रीमद्भगवद्गीता


 

( गीता जयंती : १० दिसम्बर )

पूज्य बापूजी

समुद्र में से राई का दाना निकालना सम्भव है ? कठिन है | लेकिन महापुरुषों ने क्या कर दिया कि इतने बड़े साहित्यरुपी समुद्र में से गीतारूपी राई का दाना निकालकर रख दिया और उस राई के दाने में भी सारे जगत को ज्ञान देने की ताकत ! ७०० श्लोकों का छोटा – सा ग्रंथ | १८ अध्याय, ९४११ पद और २४,४४७ शब्द गीता में हैं | गीता एक ऐसा सदग्रंथ है जो प्राणिमात्र का उद्धार करने का सामर्थ्य रखता है | गीता के एकाध श्लोक के पाठ से, भगवन्नाम – कीर्तन से और आत्मतत्त्व में विश्रांति पाये साधु-पुरुष के दर्शनमात्र से करोड़ों तीर्थ करने का फल माना गया है |

गीताया: श्लोकपाठेन गोविन्दस्मृतिकीर्तनात |

साधूदर्शनमात्रेण तीर्थकोटिफलं लभेत् ||

गीता भगवान के श्रीमुख से निकला अमृत है | गीता का एक – एक श्लोक तो क्या एक – एक शब्द मंत्र है – मन तर जाय ऐसा है और नित्य नवीन भाव, नित्य नवीन रस प्रकट कराता है |

गीता के विषय में संत ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं : “विरागी जिसकी इच्छा करते हैं, संत जिसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और पूर्ण ब्रह्मज्ञानी जिसमें ‘अहमेव ब्रह्मास्मि’ की भावना रखकर रमन करते हैं, भक्त जिसका श्रवण करते हैं, जिसकी त्रिभुवन में सबसे पहले वंदना होती है, उसे लोग ‘भगवद्गीता’ कहते हैं |”

ख्वाजाजी ने कहा है : “यह उरफानी मजमून (ब्रह्मज्ञान के विचार) संस्कृत के ७०० श्लोकों में बयान किया गया है | हर श्लोक एक रंगीन फूल है | इन्हीं ७०० फूलों की माला का नाम गीता है | यह  माला करोड़ों इंसानों के हाथों में पहुँच चुकी है लेकिन ताहाल इसकी ताजगी, इसकी खुशबू में कोई फर्क नहीं आया |”

गीता ऐसा अद्भुत ग्रंथ है कि थके, हारे, गिरे हुए को उठाता है, बिछड़े को मिलाता है, भयभीत को निर्भय, निर्भय को नि:शंक, नि:शंक को निर्द्वन्द्व बनाकर नारायण से मिला के जीते – जी मुक्ति का साक्षात्कार कराता है |

भगवान श्रीकृष्ण जिसके साथ हैं ऐसा अर्जुन सामाजिक कल्पनाओं से, सामाजिक कल्पित आवश्यकताओं से, ‘मैं – मैं, तू – तू’ के तड़ाकों – धड़ाकों से इतना तो असमंजस में पड़ा कि ‘मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए ? ….’ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया | भगवान ने विराट रूप का दर्शन कराया तो अर्जुन भयभीत हो गया | भगवान ने सांख्य योग का उपदेश किया तो अर्जुन ने शंका की :

तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव | (गीता :३.१ )

आप तो कहते हैं कि संन्यास ऊँची चीज है, संसार स्वप्न है, मोहजाल है | इससे जगकर अपने आत्मा को जान के मुक्त होना चाहिए फिर आप मेरे को घोर कर्म में क्यों धकेलते हो ?

संन्यास अर्थात सारी इच्छाओं का त्याग करके आत्मा में आना तो ऊँचा है लेकिन इस समय युद्ध करना तेरा कर्तव्य है | सुख लेने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था भंग करनेवाले आतताइयों ने जब समाज को घेर लिया है, निचोड़ डाला है तो वीर का, बहादुर का कर्तव्य होता है कि बहुजनहिताय – बहुजनसुखाय अपनी योग्यताओं का इस्तेमाल करे, यही उसके लिए इस समय उचित है | अपना पेट भरने के लिए तो पशु भी हाथ – पैर हिला देता है | अपने बच्चों की चोंच में तो पक्षी भी भोजन धर देता है लेकिन श्रेष्ठ मानव वह है जो सृष्टि के बाग़ को सँवारने के लिए, बहुतों के हित के लिए, बहुतों की उन्नति के लिए तथा बहुतों में छुपा हुआ जो एक ईश्वर है उसकी प्रसन्नता के लिए कर्म करे और और फल उसीके चरणों में अर्पण कर दे जिसकी सत्ता से उसमें कर्म करने की योग्यता आयी है |

गीता एक दिन में पढ़कर रख देने की पुस्तक नहीं है | गीता पढ़ो गीतापति से मिलने के लिए और गीतापति तुम्हारे से १ इंच भी दूर नहीं जा सकता |

ऋषिप्रसाद – अंक: २८७ नवम्बर २०१६ से

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को कैसे पायें ?


 

पूज्य बापूजी

श्रीमद्भगवदगीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, समता, सरलता, स्नेह, शान्ति, धर्म आदि दैवी गुण सहज की विकसित हो उठते हैं | अधर्म, अन्याय एवं शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है | भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करनेवाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता – ग्रंथ पुरे विश्व में अद्वितीय है |

संसाररूपी युद्ध के मैदान में परमात्मा को कैसे पा सकते हैं ? यह ज्ञान पाना है तो भगवद्गीता है | युद्ध के मैदान में अर्जुन है, ऐसा अर्जुन जो काम कर सकता है, क्या वह तुम नहीं कर सकते ? अर्जुन तो इतने बखेड़े में था, तुम्हारे आगे इतना बखेड़ा नहीं है |

भाई ! अर्जुन के पास तो कितनी जवाबदारी थी ! फिर भी अर्जुन को श्रीकृष्ण ने जिस बात का उपदेश दिया है, अर्जुन अगर उसका अधिकारी है युद्ध के मैदान में तो तुम भगवदगीता के अमृत के अधिकारी अवश्य हो भाई ! तुम्हारे को जो नौकरी और संसार ( प्रपंच) लगा है उससे तो ज्यादा पहले संसार था फिर भी हिम्मतवान मर्दों ने समय बचाकर इन विकारों पर, इन बेवकूफियों पर विजय पा ली और अंदर में अपने आत्मा – परमात्मा का ज्ञान पा लिया |

…और गीता की जरूरत केवल अर्जुन को ही थी ऐसी बात नहीं है | हम सब भी युद्ध के मैदान में ही हैं | अर्जुन ने तो थोड़े ही दिन युद्ध किया किंतु हमारा तो सारा जीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ‘मेरा-तेरा’ रूपी युद्ध के बीच ही है | अत: अर्जुन को जितनी गीता की जरूरत थी उतनी, शायद उससे भी ज्यादा आज के मानव को उसकी जरूरत है |

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मज्ञान दे रहे हैं | श्रीकृष्ण आये हैं तो कैसे ? विषम परिस्थिति में आये हैं | गीता का भगवान कैसा अनूठा है ! कोई भगवान किसी सातवें अरस पर होते हैं, किसीके भगवान कहीं होते हैं लेकिन हिन्दुओं के भगवान तो जीव को रथ पर बिठाते हैं और आप सारथी होकर, छोटे हो के भी जीव को शिवत्व का साक्षात्कार कराने में संकोच नहीं करते हैं | और ‘इतना नियम करो, इतना व्रत करो, इतना तप करो फिर मैं मिलूँगा’, ऐसा नहीं, श्रीकृष्ण तो यूँ कहते हैं : अपि चेदसि पापेभ्य: – तू पापियों, दुराचारियों की आखिरी पंक्ति का हो ….

सर्वभ्य: पापकृत्तम: |  प्रिय, प्रियतर, प्रियतम, ऐसे ही कृत, कृततर, कृततम |

सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ||  

तू उस ब्रह्मज्ञान की नाव में बैठ, तू यूँ तर जायेगा, यूँ…. ऐसी भगवद्गीता देश में हो फिर भी देशवासी जरा – जरा बात में चिढ़ जायें, जरा – जरा बात में दु:खी हो जायें, भयभीत हो जायें, जरा – जरा बात में ईर्ष्या में आ जायें तो यह गीता-ज्ञान से विमुखता का ही दर्शन हो रहा है | अगर गीता के ज्ञान के सम्मुख हो जायें तो यह दुर्भाग्य हमारा हो नहीं सकता, टिक नही सकता |

गीता श्रीकृष्ण के ह्रदय का संगीत है, उनके जीवन की पोथी है | गीता श्रीकृष्ण का वह प्रसाद है जिसका आश्रय लेकर मानवता अपने ब्रह्मस्वभाव को पाने में सक्षम होती है |

-लोककल्याण सेतु – अंक : निरंतर २३३ नवम्बर – २०१६ से

 

गौओं के साथ कभी मन से भी द्रोह न करें


ब्रिटिश शासन के दौरान गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव को पता चला कि गायों की सहायता के बिना भारत में खेती करना मुश्किल है। यहाँ किसान बैलों से हल चलाते हैं, गोमूत्र की कीटनाशक तथा गोबर को खाद रूप में उपयोग करते हैं। इसीलिए सन 1730 में उसने कोलकाता में पहला कत्लखाना खुलवाया जिसमें प्रतिदिन 30000 से ज्यादा गायों-बैलों की हत्या होने लगी तथा कुछ ही समय में अन्य स्थानों में भी कई कत्लखाने खुलवाये गये। गायों की कमी से जैविक खाद और गोमूत्र की उपलब्धता घट गयी, जिससे लोग औद्यौगिक खादों का उपयोग करने के लिए बाध्य हो गये। ‘महाभारत’ (अनुशासन पर्व 89.34) में आता है-

द्रुह्येन्न मनसा वापि गोषु नित्यं सुखप्रदः।

अर्चयेत सदा चैव नमस्कारैश्च पूजयेत्।।

‘गौओं के साथ कभी मन से भी द्रोह न करे, उन्हें सदा सुख पहुँचाये, उनका यथोचित सत्कार करे और नमस्कार आदि के द्वारा उनका पूजन करता रहे।’

इसी शास्त्र वचन का उल्लघंन करने से रॉबर्ट क्लाइव शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक समस्याओं से ग्रस्त होकर अल्पायु में ही आत्महत्या करके मर गया।

जिन्होंने भी गायों को सताने का पाप किया है उन्हें उसका फल अवश्य ही भुगतना पड़ा और जिन्होंने गौसेवा की उनका जीवन खुशहाल हुआ है, सुख-समृद्धि व शांति से सम्पन्न हुआ है।

गायों में अपने परिवार के सदस्यों की तरह हमारे सुख-दुःख के प्रति संवेदनशीलता देखने को मिलती है, तभी तो गाय को माता के रूप माना गया है।

आपदाकाल में गायों ने बचायी जान

गढ़मुक्तेश्वर (उ.प्र.) में ब्रह्मचारी रामचन्द्र नामक एक तपस्वी अपनी माँ के साथ रहते थे। वे गायों की बड़े प्रेम से सेवा करते थे। माँ गायों को जब ‘गंगादेई’, ‘जमुनादेई’ आदि नामों से पुकारतीं तो वे दौड़ी-दौड़ी आती थीं। जंगल से गायों के आने में तनिक भी देर हो जाती थी तो वृद्ध माँ गायों को ढूँढने जंगल में चली जाती थीं। किसी दिन गायें आ जातीं और मैया न दिखतीं तो वे रँभाने लगतीं तथा मैया को ढूँढने लगती थीं।

एक दिन रामचन्द्र जी किसी दूसरे गाँव गये थे। दोपहर के समय भयंकर आँधी आयी और टीनवाली झोंपड़ी, जिसमें मैया रहती थीं, उखड़ गयी व टीन मैया के ऊपर गिरे जिससे वे दब गयीं। उन्होंने सोचा इस निर्जन स्थान में कौन इन टीनों से मुझे निकालेगा ?’

शाम को जंगल से सभी गायें आयीं। झोंपड़ी टूटी पड़ी देख व मैया को न पा के वे रँभाने लगीं। मैया ने आवाज दीः “अरी गंगादेई ! मैं तो टीनों के नीचे दबी हूँ।”

गायें आवाज सुनते ही मैया को बचाने आयीं और एक साथ अपने सींगों से टीनों को उठा लिया, जिससे मैया बाहर निकलीं। फिर गायें आँखों में आँसू भरकर मैया को चाटने लगीं।

संत उड़िया बाबा जी ने यह घटना सुनी तो उन्होंने उन वृद्ध माँ से कहाः “मैया ! जो उत्तम गति बड़े-बड़े ज्ञानियों-ध्यानियों, त्यागी-तपस्वियों को भी मिलनी दुर्लभ है, ऐसी उत्तम गति तुम्हें अनायास इन पूज्या गौमाताओं की कृपा से  अवश्य प्राप्त होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 9, अंक 288

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