कीमत…. सिकंदर के साम्राज्य और मनुष्य-जीवन की

कीमत…. सिकंदर के साम्राज्य और मनुष्य-जीवन की


एक बार सिकंदर की मुलाकात आत्मसात संत से हो गयी। धन-वैभव के नशे से मतवाले बने सिकंदर के हावभाव देखकर उन्होंने कहाः ‘सिकंदर ! तुमने जो इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया है वह मेरी दृष्टि में कुछ भी नहीं है। मैं उसे दो कौड़ी का समझता हूँ।”

सिकंदर उन ज्ञानी महापुरुष की बात सुनकर नाराज हो गया। बोलाः “तुमने मेरा अपमान किया है। जिसे तुम दो कौड़ी का बता रहे हो उस साम्राज्य को मैंने जीवनभर परिश्रम करके अपने बाहुबल से हासिल किया है।”

“यह तुम्हारी व्यर्थ की धारणा है सिकंदर ! तुम ऐसा समझो कि एक रेगिस्तान में भटक गये हो और प्यास से तड़पकर मन रहे हो। मेरे पास पानी की मटकी है। मैं कहता हूँ ‘मैं तुम्हें एक गिलास पानी दूँगा लेकिन बदले में मुझे तुम्हारा आधा साम्राज्य चाहिए।’ तो क्या तुम वह मुझे दे सकोगे ?”

“ऐसी स्थिति में तो तुम्हें मैं आधा साम्राज्य ही क्या, पूरा साम्राज्य भी दे सकता हूँ। भला जीवन से बढ़कर भी कोई चीज़ होती है ?”

“तब तो बात ही खत्म हो गयी। एक गिलास पानी की कीमत है तुम्हारे साम्राज्य की….. दो कौड़ी की। अरे, दो कौड़ी की भी नहीं क्योंकि पानी तो मुफ्त में मिलता है।”

तो जीवन बचाने के लिए व्यक्ति अपना पूरा साम्राज्य बचाने के लिए व्यक्ति अपना पूरा साम्राज्य देने को राज़ी हो जाता है। मनुष्य-शरीर मिलना अत्यंत दुर्लभ है अतः इसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। परमात्मा के ज्ञान-ध्यान तथा समाजरूपी ईश्वर की सेवा में लगाकर इसका सदुपयोग करके अमूल्य मनुष्य जीवन के सार तत्त्व परमात्मा की प्राप्ति कर लेनी चाहिए। छूटने वाली वस्तुओं के पीछे आपाधापी करके अछूट परमात्मा की प्राप्ति को दाँव पर नहीं लगाना चाहिए। नश्वर संसार और संसारी वस्तुओं के लिए शाश्वत आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति को छोड़ देना बड़ी भारी मूर्खता है। ईश्वर के लिए नश्वर छोड़ना पड़े तो छोड़ दो। नश्वर के लिए जो शाश्वत को नहीं छोड़ते, उन महापुरुषों का दास बनकर नश्वर उनकी सेवा में हाजिर हो जाता है। वे महापुरुष शाश्वत को पा लेते हैं और नश्वर अपने साधकों में लुटाते रहते हैं, साथ में लुटाते हैं शाश्वत का प्रसाद भी। धन्य हैं वे लोग और उनके माता-पिता, जो ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य और दैवी कार्य की सेवा पाते हैं। शिवजी के ये वचन फिर-फिर से दोहराये जायें-

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

गुरुवाणी में आता हैः

ब्रह्म गिआनी मुकति जुगति जीअ का दाता।

ब्रह्म गिआनी पूरन पुरखु बिधाता।

ब्रह्म गिआनी की मिति कउनु बखानै।

ब्रह्म गिआनी की गति ब्रह्म गिआनी जानै।

उन पुण्यात्मा शिष्यों को धन्यवाद है और उनके माता-पिता को भी, जो ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के दैवी कार्यों और दैवी सत्संग व सूझबूझ में लगे रहते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2017, पृष्ठ संख्या 22 अंक 289

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