माँ सीता का वात्सल्य

माँ सीता का वात्सल्य


(श्री सीता नवमीः 4 मई)

पिता को बेटे की भूख उतनी चिंता नहीं होती जितनी माँ की होती है।

हनुमान जी राम जी से कभी नहीं कहते कि ‘मुझे भूख लगी है।’ पर जब लंका में सीता जी के पास पहुँचे तो उनके मुँह से यही निकलाः

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। (श्रीरामचरित. सुं.का. 16.4)

“माँ ! मुझे तो बड़ी भूख लगी हुई है। प्रभु ने तो मुझे सेवक स्वीकार किया, सेवक-धर्म का उपदेश दिया और सेवक तो सेवा में संलग्न रहेगा पर जब आपने पुत्र कहकर पुकारा है तो फिर माँ-बेटे के बीच में तो बस पहले खाने-पीने की ही चर्चा चलनी चाहिए। सामने फल भी लगे हैं अतः अब आज्ञा दीजिये।” पर माँ ने तो माँ के स्वभाव का ही परिचय दियाः

सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।

परम सुभट रजनीचर भारी।। (श्रीरामचरित सुं. कां. 16.4)

“यहाँ कितने बड़े-बड़े राक्षस पहरा दे रहे हैं।” हनुमान जी सुनकर बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि माँ ने पुत्र तो कह दिया है। वे सोच रहे थे कि ‘देखें, माँ ने छोटा पुत्र माना है कि बड़ा पुत्र ?’ जब माँ ने कहाः “राक्षस पहरा दे रहे हैं।” तो प्रसन्न हो गये कि ‘चलो, माँ ने छोटा पुत्र ही माना है क्योंकि अभी-अभी अजर-अमर होने का वरदान दिया है फिर भी चिंता बनी हुई है। इतनी चिंता तो माँ छोटे पुत्र की ही करती है।’

हनुमान जी ने कहाः

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।

जौं तुम्ह सुख मानहू मन माहीं।। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 16.5)

“आपको यदि प्रसन्नता है तो मुझे इनका रंचमात्र भी भय नहीं है।”

माँ को अब दूसरी चिंता हुई। उन्होंने सोचा, ‘पुत्र  कह तो रहा है कि राक्षसों का भय नहीं है पर यह वाटिका तो रावण की है, मोह की है। ज्ञान की वाटिका के फल तो व्यक्ति को धन्य बनाते हैं क्योंकि उसमें तो मोक्ष के फल लगते हैं पर यह तो मोह की वाटिका है। क्या यहाँ का फल खाना उचित रहेगा ? जो मोह की वाटिका के फल खायेगा उसके जीवन में तो बड़ा अनर्थ होगा।’ किंतु हनुमान जी का अभिप्राय था कि ‘अगर भक्ति माता की कृपा हो जाय तो मोह की वाटिका भी फल खाया जा सकता है।’ अतः हनुमान जी कहते हैं- “अगर आप आदेश दें तो मैं फल खा लूँ।” हनुमान जी ने शब्द भई कितना बढ़िया चुना-

लागि देखि सुंदर फल रूखा। (श्री रामचरित. सुं. कां. 16.4)

“फल बड़े सुंदर हैं।” यह देखा भी जाता है कि मोह की वाटिका के फल बड़े सुंदर होते हैं इसीलिए वे आकर्षक होते हैं। इन्हें देखकर लोगों का मन ललच जाता है।

माँ ने कहाः “पुत्र ! खाने से पूर्व ‘सुंदर’ को ‘मधुर’ बना लो तब तुम इसे ग्रहण करो।” और साथ-साथ सुंदर को मधुर बनाने का उपाय भी माँ ने बता दियाः

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु। (श्रीरामचरित. सुं.कां. 17)

“मोह की वाटिका के फल जब तुम भगवान को अर्पित कर दोगे, तब वे मोह के फल न रहकर प्रभु का प्रसाद हो जायेंगे और प्रभु का प्रसाद तो मधुर होता है।”

ऐसी भगवन्निष्ठ, पतिनिष्ठ सीता जी की महिमा में संत तुलसीदास जी लिखते हैं कि ‘जो स्त्रियाँ सीता जी के नाम का सुमिरन करती हैं, वे पतिव्रता हो जाती है।’

हनुमान जी प्रसन्न हो गये कि ‘माँ कितनी वात्सल्यमयी हैं !’ हनुमान जी फल खाते हैं, आनंदित होते हैं पर उन्होंने फल खाने के साथ-साथ बाग को उजाड़ दिया, राक्षसों का मारा तथा लंका को जला दिया। लौटने पर बंदरों ने पूछाः “आपने माँ से आज्ञा तो केवल फल खाने की ली थी, बाग़ उजाड़ने, राक्षसों को मारने तथा लंका को जलाने की आज्ञा तो ली नहीं थी फिर ये तीनों काम आपने किसकी आज्ञा से किये ?”

हनुमान जी ने कहाः “मैंने आज्ञा तो केवल फल खाने की ही ली थी पर शेष तीनों काम तो फल खाने का फल थे।’ अभिप्राय है कि भक्ति देवी की कृपा का फल खाने के बाद भी अगर मोह की वाटिका न उजड़े, दुर्गुणों के राक्षसों का विनाश न हो और स्वार्थयुक्त प्रवृत्ति की लंका न जले तो माँ की कृपा किस काम की ? वस्तुतः भक्ति की कृपा के फल का रसास्वादन करने के बाद व्यक्ति के जीवन का मोह विनष्ट हो जाता है, दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं तथा स्वार्थ-प्रवृत्ति की मोहमयी लंका भी जलकर राख हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 292

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