संत मलूकदास जी के समय में एक बार बड़ा भारी अकाल पड़ा। पेड़ों में पत्तियाँ भी नहीं रह गयी थीं। पशु-पक्षी, मनुष्य – सब भूख से पीड़ित होकर प्राण विसर्जन करने लग गये। हजारों लोग एकत्र होकर संत मलूकदास जी की शरण गये और प्रार्थना कीः “महाराज ! आप समर्थ पुरुष हैं। आपकी करूणा हो जाय तो हम सब अकाल-पीड़ितों की प्राणरक्षा सम्भव है।”
संत बोलेः “भगवान से प्रार्थना करें। वे सबके रक्षक, पालक एवं संकटहर्ता हैं।”
यह सुन सब आनंदित हुए किंतु सभी ने पुनः प्रार्थना कीः “हमारे पास भक्ति का बल नहीं है। आप भी हमारे साथ आयेंगे तो हमारी प्रार्थना जल्दी सुनी जायेगी। आप कृपा कीजिये।”
जब लोग न माने तो मलूकदासजी दयावश उनके साथ गंगातटवर्ती मैदान में प्रार्थना करने को चले। इसी बीच मलूकदास जी के शिष्य लालजीदास आये। गद्दी को सूनी देखकर अपने गुरुभाइयों से पूछा तो मालूम हुआ कि ‘महाराज जी तो लोगों के साथ पानी बरसाने हेतु प्रार्थना करने गये हैं।’
यह सुन लालदासजी को बड़ा क्रोध आया, बोलेः “वह इन्द्र इतना अहंकारी है कि जब हमारे गुरु महाराज उठकर जायें तब वह पानी बरसाये ! यह संत-सदगुरुदेव का तिरस्कार है, मेरी सहनशक्ति के बाहर है। मैं इन्द्र को दंडित करूँगा !” सोंटा हाथ में उठाया और क्रोधित होकर कहाः “अभी एक सोंटा इन्द्र को ऐसा लगाता हूँ कि इन्द्रासन सहित यहीं आकर गिरेगा।”
लालदासजी के इस प्रकार संकल्प करते ही इन्द्रासन डोल गया। इन्द्रदेव ने तत्काल ही मेघों को बरसने का आदेश दिया। उसी क्षण तेजी से पानी बरसने लगा। इधर संत मलूकदासजी को तेज वर्षा होने के कारण बीच से ही लौटकर आना पड़ा।
आश्रम में आने पर सब शिष्यों ने लालदासजी की करामात को सुनाया तो मलूकदासजी लालदासजी पर बहुत अप्रसन्न हुए और बोलेः “बेटा ! तुम्हारी गुरुभक्ति से ही सत्यंसंकल्प-सामर्थ्य, योग-सामर्थ्य तुम्हें प्राप्त हुआ है, किंतु तुम्हें इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए था।”
लालदासजी ने गुरुमहाराज से क्षमा माँगी और भविष्य में ऐसा नहीं करने की प्रतिज्ञा की। संत मलूकदासजी ने लालदासजी को इस अपराध के प्रायश्चित्त के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करने का आदेश दिया। लालदासजी गुरु आज्ञा शिरोधार्य की किंतु ‘गुरुसेवा से वंचित होना पड़ेगा।’ – इस बात कल्पनामात्र से उनका हृदय व्याकुल हो उठा। आखिर गुरुभक्ति के प्रताप से उन्होंने ढाई घड़ी (60 मिनट) के भीतर ही सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा लगा ली और गुरुचरणों में दंडवत् प्रणाम किया।
गुरुदेव से निवेदन किया कि ‘आपकी सेवा व सत्संग से वंचित रहकर मैं जीवित नहीं रह सकूँगा।’ संत मलूकदासजी ने अपने नम्र, सेवापरायण व गुरुनिष्ठ शिष्य को प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया।
फूटा कुम्भ जल जलै समाना……
सदगुरु दाता देने उमड़ पड़े और ऐसा दे डाला कि देना-लेना, पाना-खोना कुछ बाकी न रहा। सत्शिष्य को पूरे गुरु पुरी तरह ऐसे मिले की आकार खो गये और पूर्ण रह गया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 293
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