Monthly Archives: May 2017

संसार असार है, सत्य तत्त्व ही सार है


भोगास्तुङ्गगतरङ्गभङ्गतरलाः प्राणाः क्षणध्वंसिन-

स्तोकान्येव दिनानि यौवनसुखं स्फूर्तिः प्रियेष्वस्थिरा।

तत्संसारमसारमेव निखिलं बुद्ध्वा बुधा बोधका

लोकानुग्रहपेशलेन मनसा यत्नः समाधीयताम्।।

‘सांसारिक वस्तुओं के भोग से उत्पन्न सुख ऊँची उठने वाली लहरों के भंग के समान चंचल अर्थात् अस्थिर है। प्राण भी क्षण में नाश पाने वाले हैं। प्रियतम या प्रियतमा से संबंध रखने वाली यौवन की आनंद-स्फूर्ति भी कुछ ही दिनों तक रहती है। इस कारण से उपदेश देने वाले विद्वानो ! सारे संसार को सारहीन समझकर लोगों पर दया करने में लीन मन से सत्य तत्त्व को पाने में प्रयत्न करिये।’ वैराग्य शतकः 34

भर्तृहरि महाराज यहाँ समझा रहे हैं कि जिन विषय-विकारों को हम चिरकाल से भोगते आ रहे हैं वे सदा हमारे साथ न रहेंगे, निश्चय ही एक दिन हमारा साथ छोड़ देंगे। इससे यदि हम ही उन्हें पहले से ही छोड़ दें तो हमें महासुख और शांति मिलेगी। यदि हम न छोड़ेंगे और वे हमें छोड़ेंगे तो हमें महादुःख और मनस्ताप होगा।

‘श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण’ में भगवान श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं कि “जितने भोग के साधन-पदार्थ हैं, वे सब-के-सब अस्थिर यानि क्षणिक हैं। जैसे मरीचिका को जल समझकर हर्षित हुए हिरण मरूभूमि में बड़ी दूर तक इधर-उधर भटकते रहते है फिर भी उन्हें कुछ नहीं मिलता, वैसे ही मूढ़बुद्धि हम लोग इस संसार में असत् पदार्थों को सुख के साधन समझ के इधर-उधर खूब भटकते रहते हैं पर हाथ कुछ नहीं लगता।

जो लोग शरीरों तथा संसार को आशायुक्त चिरस्थायी और सत्य मानते हैं वे मोह (अज्ञान) रूपी मदिरा से उन्मत्त हैं, उन्हें बार-बार धिक्कार है !

जो यह युवावस्था है, वह देहरूपी जंगल में कुछ दिनों के लिए फली-फूली शरद ऋतु है, यह शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जायेगी। जैसे अभागे पुरुष के हाथ से चिंतामणि (अभीष्ट पदार्थ देने वाला रत्न) तत्काल चला जाता है, वैसे ही शरीर से युवावस्थारूपी पक्षी जल्दी भाग खड़ा होता है।”

पूज्य बापू जी की सत्य तत्त्व का ज्ञान कराने वाली, हितभरी अमृतवाणी में आता हैः “जितना हो सके उतना जल्दी समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। तुम कितन भी धन, सौंदर्य, सत्ता पा लो लेकिन अंत में क्या रहेगा ? मौत के एक ही झटके में सब कुछ छूट जायेगा। अतः मौत सब छुड़ा ले इसके पहले जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस परमात्मा में चित्त लगाओ। जिससे धन, सौंदर्य और सत्ता मिलती है उस ईश्वर में चित्त लगाओ और उसी से प्रीति करो तो धन, सत्ता और व्यापार में भी सात्त्विक निखार आयेगा। यह शरीर मिट्टी में मिल जाय उससे पहले तुम परमात्मा से मिल लो तो तुम्हारे सब दुःख समाप्त हो जायेंगे।”

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 11, अंक 293

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जब देवी ने सदगुरु के पास भेजा…


एक नंदी नामक ब्राह्मण था। उसके पूरे शरीर में कोढ़ हो गया था इसलिए वह तुलजापुर (महाराष्ट्र) की भवानी माता के मंदिर में गया और 3 वर्ष आराधना, प्रार्थना, जप करता रहा। एक दिन माता ने उसे स्वप्न में आदेश दिया कि ‘तुम चंदला परमेश्वरी के पास (गुलबर्गा, कर्नाटक) जाओ, वहाँ तुम्हारा काम बनेगा।’

ब्राह्मण वहाँ गया और देवी की उपासना करने लगा। 7 महीने बीत गये। उसकी उपासना, जप से चंदला देवी प्रसन्न हुई और स्वप्न में दर्शन देकर कहाः “तुम गाणगापुर जाओ, जहाँ नृसिंह सरस्वती रहते हैं। उनकी कृपा से तुम्हारा कोढ़ मिटेगा।”

नंदी स्वप्न से जागा। उसने सोचा, ‘यदि मुझे एक मनुष्य के पास ही भेजना था तो यहाँ 7 महीने क्यों रोके रखा ? ‘वह  उसी मंदिर में रहा तो अंत में देवी ने पुनः स्वप्न में आ के नाराज होकर कहाः “यहाँ से चले जाओ !”

उसे क्या पता था कि उसकी जन्मों-जन्मों की साधना का फल फलित हो गया है अर्थात् देवी ने जन्म-मरण के दुःखों से सदा के लिए मुक्त करने हेतु उसे सदगुरु की शरण का मार्ग बता दिया है। वह सदगुरु नृसिंह जी के पास पहुँचा। उसे देखते ही गुरु नृसिंह जी मुस्कराकर बोलेः “अरे, देवी को छोड़कर मनुष्य के पास क्यों आये हो ?”

ब्राह्मण लज्जित हुआ और उनसे क्षमा याचना कर उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। गुरुदेव ने अपने एक भक्त को बुला के कहाः “इसे संगम पर ले जाओ और संकल्पपूर्वक स्नान कराओ।”

शिष्य ने वैसा ही किया तो नंदी ब्राह्मण के कोढ़ के दाग खत्म हो गये और शरीर तेजवान हो गया। यह देख सब चकित हो गये। लेकिन उसकी जाँघ पर एक छोटा सा सफेद दाग रह गया। गुरुदेव ने कहाः “तुम्हारे मन में सदगुरु के प्रति संदेह था इसलिए यह दाग रह गया। अब तुम पश्चाताप करके सदगुरु के व्यापक स्वरूप का महिमा-गान करोगे तो यह भी ठीक हो जायेगा।”

नंदीः “मैं तो अनपढ़ हूँ, महिमा गान कैसे करूँ ?”

गुरु ने संकल्प कर उसकी जीभ पर भस्म डाला तो देखते ही देखते वह भक्तिभावपूर्ण स्तुति करने लगा। कुछ ही दिनों में उसकी जाँघ का दाग चला गया और वह बड़ा प्रतिभाशाली भक्तकवि बन गया।

हयात ब्रह्मज्ञानी महापुरुष अगर मिल जायें तो मनुष्य के लिए इससे बढ़कर सौभाग्य की क्या बात होगी ! जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुआ है ऐसे ब्रह्मस्वरूप संतों का दर्शन-सत्संग व सेवा जिनको मिल जाती है, उनको तो भगवान शिव भी धन्यवाद देते हैं। और जो ऐसे महापुरुषों के हयातीकाल में उनके दर्शन सेवा सत्संग का लाभ नहीं ले पाते उनके लिए इससे बड़ा क्या दुर्भाग्य होगा !

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 10, अंक 293

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गुरुभक्ति से संकल्प-सामर्थ्य


संत मलूकदास जी के समय में एक बार बड़ा भारी अकाल पड़ा। पेड़ों में पत्तियाँ भी नहीं रह गयी थीं। पशु-पक्षी, मनुष्य – सब भूख से पीड़ित होकर प्राण विसर्जन करने लग गये। हजारों लोग एकत्र होकर संत मलूकदास जी की शरण गये और प्रार्थना कीः “महाराज ! आप समर्थ पुरुष हैं। आपकी करूणा हो जाय तो हम सब अकाल-पीड़ितों की प्राणरक्षा सम्भव है।”

संत बोलेः “भगवान से प्रार्थना करें। वे सबके रक्षक, पालक एवं संकटहर्ता हैं।”

यह सुन सब आनंदित हुए किंतु सभी ने पुनः प्रार्थना कीः “हमारे पास भक्ति का बल नहीं है। आप भी हमारे साथ आयेंगे तो हमारी प्रार्थना जल्दी सुनी जायेगी। आप कृपा कीजिये।”

जब लोग न माने तो मलूकदासजी दयावश उनके साथ गंगातटवर्ती मैदान में प्रार्थना करने को चले। इसी बीच मलूकदास जी के शिष्य लालजीदास आये। गद्दी को सूनी देखकर अपने गुरुभाइयों से पूछा तो मालूम हुआ कि ‘महाराज जी तो लोगों के साथ पानी बरसाने हेतु प्रार्थना करने गये हैं।’

यह सुन लालदासजी को बड़ा क्रोध आया, बोलेः “वह इन्द्र इतना अहंकारी है कि जब हमारे गुरु महाराज उठकर जायें तब वह  पानी बरसाये ! यह संत-सदगुरुदेव का तिरस्कार है, मेरी सहनशक्ति के बाहर है। मैं इन्द्र को दंडित करूँगा !” सोंटा हाथ में उठाया और क्रोधित होकर कहाः “अभी एक सोंटा इन्द्र को ऐसा लगाता हूँ कि इन्द्रासन सहित यहीं आकर गिरेगा।”

लालदासजी के इस प्रकार संकल्प करते ही इन्द्रासन डोल गया। इन्द्रदेव ने तत्काल ही मेघों को बरसने का आदेश दिया। उसी क्षण तेजी से पानी बरसने लगा। इधर संत मलूकदासजी को तेज वर्षा होने के कारण बीच से ही लौटकर आना पड़ा।

आश्रम में आने पर सब शिष्यों ने लालदासजी की करामात को सुनाया तो मलूकदासजी लालदासजी पर बहुत अप्रसन्न हुए और बोलेः “बेटा ! तुम्हारी गुरुभक्ति से ही सत्यंसंकल्प-सामर्थ्य, योग-सामर्थ्य तुम्हें प्राप्त हुआ है, किंतु तुम्हें इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए था।”

लालदासजी ने गुरुमहाराज से क्षमा माँगी और भविष्य में ऐसा नहीं करने की प्रतिज्ञा की। संत मलूकदासजी ने लालदासजी को इस अपराध के प्रायश्चित्त के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करने का आदेश दिया। लालदासजी गुरु आज्ञा शिरोधार्य की किंतु ‘गुरुसेवा से वंचित होना पड़ेगा।’ – इस बात कल्पनामात्र से उनका हृदय व्याकुल हो उठा। आखिर गुरुभक्ति के प्रताप से उन्होंने ढाई घड़ी (60 मिनट) के भीतर ही सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा लगा ली और गुरुचरणों में दंडवत् प्रणाम किया।

गुरुदेव से निवेदन किया कि ‘आपकी सेवा व सत्संग से वंचित रहकर मैं जीवित नहीं रह सकूँगा।’ संत मलूकदासजी ने अपने नम्र, सेवापरायण व गुरुनिष्ठ शिष्य को प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया।

फूटा कुम्भ जल जलै समाना……

सदगुरु दाता देने उमड़ पड़े और ऐसा दे डाला कि देना-लेना, पाना-खोना कुछ बाकी न रहा। सत्शिष्य को पूरे गुरु पुरी तरह ऐसे मिले की आकार खो गये और पूर्ण रह गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 18, अंक 293

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