पूज्य बापू जी के प्रेरक जीवन-प्रसंग

पूज्य बापू जी के प्रेरक जीवन-प्रसंग


ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की थोड़ी समय की भी निष्ठापूर्वक की गयी सेवा गजब का रंग लाती है। उससे लौकिक-अलौकिक लाभ तो होते ही हैं, साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। प्रस्तुत है इसी के कुछ ज्वलंत उदाहरण पूज्य बापू जी के हृदयस्पर्शी जीवन प्रसंगों में-

डीसा (गुज.) के रहने वाले स्वर्गीय भाणजीभाई प्रजापति अपने जीवन का एक प्रसंग बताते हुए कहते थे कि “पूज्य बापू जी ने जिस आश्रम में रहकर 7 साल तक घोर तपस्या की थी, मैं उस आश्रम के सामने ही मूँगफली की लारी  लगाता था।

एक बार बापू जी वहाँ पर आये और बोलेः “मेरी यह चिट्ठी डाकघर के डिब्बे में डाल आओ।”

मैं खुशी से वह चिट्ठी डाल आया। सेवा का ऐसा  सुअवसर मुझे 2-3 बार मिला था। एक मेरी ग्राहकी बिल्कुल नहीं हुई थी पर जैसे ही मैं चिट्ठी डालकर आया तो मेरी इतनी ग्राहकी हुई कि पेटी पैसों से भर गयी पर मूँगफली खत्म ही नहीं हो रही थी। तभी से मैं आश्रम में बार-बार आने लगा और बापू जी के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गयी।

‘तेरी 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी’

एक दिन मैंने बापू जी से कहाः “महाराज जी ! मेरे को बड़े साँईं जी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी बापू) के पास जाना है।”

बापू जी बोलेः “क्यों जाना है ?”

“जी, दर्शन करना है और कुछ घर की परेशानी बतानी है।”

“ठीक है, तू मेरे साथ चलना, जो भी समस्या होगी हल हो जायेगी। तू परेशानी तो बोल।”

मेरी सारी समस्याएँ बापू जी ने सुनीं और थोड़ी देर आँखें बंद कर लीं, फिर बोलेः “देख, मैं जैसा बोलूँगा तू वैसा करेगा तो तेरी इस जन्म की ही नहीं, 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी।”

मैंने कहाः “जी महाराज जी ! करूँगा।”

“तू मेरे गुरुदेव को सिर्फ इतना बोलना कि साँईं जी ! मुझे आत्मा के दर्शन कब होंगे ?”

दर्शन की कतार में मेरी बारी आयी तो मैंने पूज्य लीलाशाह जी बापू से वैसा ही कहा तो उनकी आँखें करुणा से भर आयीं और वे मुझे ऊपर से नीचे तक देखने लगे।

मैं बहुत चंचल था, फिर से बोलाः “साँईं जी ! कब होंगे दर्शन ?”

“होंगे पुट (बेटा) ! होंगे।”

साँईं जी ने मुझ पर शक्तिपात किया तब से मुझे अपने-आप इतनी हँसी आने लगी कि बंद ही नहीं होती थी। तब घरवाले मुझे पागल समझते थे। कोई भी बात बोलें तो मैं बहुत हँसता था। फिर कुछ दिनों में मेरी स्थिति सामान्य हो गयी और मेरी सारी समस्याएँ हल हो गयीं।

गुरुकृपा से हुए हनुमान जी के दर्शन

मैं बापू जी के पास आता-जाता रहता था तो एक दिन बापू जी बोलेः “अरे भाणा ! तू हनुमान जी के दर्शन करेगा ?”

मैंने भी बोल दियाः “हाँ महाराज ! करूँगा। आप करायेंगे ”

“हाँ-हाँ, तू मेरे साथ चल।”

मुझे एकांत में बनास नदी के किनारे ले गये और वहाँ रहने के लिए कहा। वहाँ एक पीपल के पेड़ के नीचे मैंने अपनी झोंपड़ी बनायी। बापू जी ने हनुमान जी का मंत्र दिया और बोलेः “तू अनुष्ठान चालू कर।”

भोजन में कभी दूध तो कभी मूँग लेता। सातवें दिन बापू जी बोलेः “देख, आज हनुमान जी आयेंगे, सावधान रहना, डरना नहीं और जप नहीं छोड़ना।”

रात भर  जपता रहा। सुबह 4 बजे मेरी कुटिया में प्रकाश-प्रकाश दिखा तो मैं डर गया।

बाद में बापू जी ने सब बताया तो बापू जी ने मेरे ऊपर गंगाजल छिड़का और बोलेः “अनुष्ठान एक दिन और बढ़ा, हनुमान जी को आना ही पड़ेगा। कैसे नहीं आयेंगे !”

दूसरे दिन सुबह 4 बजे हनुमान जी आये तो कुटिया में इतना प्रकाश फैल गया कि मुझसे देखा नहीं जा रहा था। उसी प्रकाश में पीपल के पेड़ से एक तेजस्वी कपि उतरते हुए दिखे और आवाज सुनाई दीः “बेटा ! यह मंत्र बंद कर दे, कलियुग चल रहा है, तू मेरा तेज सह नहीं पायेगा।”

मैंने हनुमान जी को प्रणाम किया और खुशी-खुशी बाहर आया कि ‘बापू जी को बताऊँ !”

आश्रम पहुँचा और मैंने जैसे ही आश्रम का दरवाजा खोला तो देखा कि चबूतरे पर बापू जी और हनुमान जी आमने-सामने बैठे हैं ! मुझे देख के हनुमान जी दीवार को चीरते हुए बाहर चले गये।”

चार अक्षरों में पूरा ज्ञान

साधनाकाल में पूज्य बापू जी जब डीसा में रहते थे, उस समय पहली बार जब पूज्य श्री मधुकरी (भिक्षा) करने गये थे तो एक सिंधी माई ने भिक्षा देने से मना कर दिया था। यह प्रसंग तो सभी ने सुना ही होगा। उस घर से चलकर बापू जी जब दूसरे घर गये तो वहाँ जिन्होंने भिक्षा दी थी उनका नाम है मिश्री बहन। वे उस दिन को याद करते हुए कहती हैं कि “उस दिन मैंने खीर पूड़ी बनायी थी। बापू जी जब हमारे घर आये तो मैंने उन्हें वही भिक्षा के रूप में अर्पण की थी।

बापू जी ने पूछाः “क्या नाम है बेटी ?”

मैने नाम बताया, फिर बोलेः “साँईं लीलाशाह जी बापू के आश्रम में सत्संग होता है, तू जाती है वहाँ ?”

“नहीं महाराज !”

“जाया कर।”

बापू जी ने सत्संग का समय भी बताया कि सुबह-सुबह होता है। उनकी पावन व हितकारी वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दूसरे दिन तो जो काम मुझे 8 बजे करना था वह सारा 6 बजे ही निपटाकर मैं सत्संग शुरु होने के 15 मिनट पहले ही पहुँच गयी।

वहाँ जा के देखा तो क्या माहौल था ! सब लोग एकदम शांत बैठे थे। बापूजी ने शिवजी की तरह ध्यानस्थ थे और लोग उन्हें देख-देख के ध्यान कर रहे थे।

फिर सत्संग हुआ, किसी ने श्री योगवासिष्ठ महारामायण पढ़ा, बापू जी ने उस पर व्याख्या की। बापू जी वेदांत के ऊपर ही सत्संग करते थे। ऐसा रोज होता था। फिर तो मुझे भक्ति, साधना का ऐसा रंग लगा कि वर्णन करने को शब्द नहीं हैं। श्री योगवासिष्ठ के श्रवण का चस्का लगा कि अगर मैं योगवासिष्ठ नहीं सुनूँ तो नींद ही न आये। वर्षभर में कभी बापू जी एक महीने के लिए हिमालय चले जाते थे। जब भी बापू हिमालय जाते तो मुझे बड़ा रोना आता था कि ‘अब मुझे योगवासिष्ठ कौन सुनायेगा ? मैं तो एकदम अनपढ़ हूँ।’

एक बार बापू जी लौटे तो मैंने बोलाः “बापू जी ! आप तो चले जाते हैं और मुझे योगवासिष्ठ सुनने को नहीं मिलता और दूसरा कोई सुनाने वाला है नहीं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे पढ़ना आ जाये।”

बापू जी प्रसन्न होकर बोलेः “क्या बात है ! तू पढ़ेगी ?”

“जी, बापू जी !”

पूज्य श्री बोलेः “स्लेट और चाक ले के आ।”

मैं लेकर गयी तो बापू जी ने 4 अक्षर लिख के दिये और बोलेः “जब तू ये बिना देखे लिखना सीख जायेगी तो तुझे पढ़ना आ जायेगा।

मैं अभ्यास करती रही। ब्रह्मवाक्य सत्य सिद्ध हुए। जब मैं उऩ अक्षरों को बिना देखे लिखना सीख गयी तो मुझे पढ़ना आ गया। आज मैं योगवासिष्ठ पढ़ती हूँ और हिन्दी व गुजराती – दोनों भाषाएँ पढ़ लेती हूँ।”

आश्चर्य की बात तो यह है कि जब उन बहन जी से पूछा गया कि “वे 4 अक्षर वर्णमाला के कौन-से अक्षर थे ?” तो उन्होंने बताया कि “वे अक्षर – अ आ इ ई…. (पूरी वर्णमाला) में से कुछ थे ही नहीं, वे अलग ही अक्षर थे। मैं जब से पढ़ना सीखी तब से वे अक्षर भूल गयी।”

जैसे शिवजी द्वारा प्राप्त 14 सूत्रों से पाणिनी मुनि ने संस्कृत का व्याकरण रचा था, ठीक वैसे ही बापू जी ने 4 अक्षरों से पूरी वर्णमाला सिखा दी और एक अनपढ़ को श्री योगवासिष्ठ महारामायण जैसे वेदांत के गूढ़ ग्रंथ का जानकार बना दिया।

बापू जी ने ऐसा ध्यान सिखाया…

मिश्री बहन आगे बताती है कि “मैं रोज बापू जी का सत्संग सुनती और बस, मुझे केवल ध्यान करने की इच्छा होती थी। एक दिन मैं ध्यान करने बैठी तो मेरे ध्यान में समस्त देवी-देवता तथा इन्द्रदेव आये बोलेः “चलिए हमारे स्वर्ग में, हम आपको लेने आये हैं।” मैंने कहाः “मुझे तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु पूज्य बापू जी मिल गये हैं, मेरे तो वे ही सब कुछ हैं। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हें मुबारक हो, हमको नहीं चाहिए।” इतना सुनकर इन्द्रदेव आशीर्वाद देकर चले गये।”

वे बहन जी कहती हैं कि “पूज्य बापू जी ने मुझे आज्ञा दी थी कि “हर गुरुवार को यहाँ (डीसा में) बहनों-बहनों को बुलाकर सत्संग करना।” एक दिन मैं पूज्य श्री के दर्शन करने अहमदाबाद गयी तो मैंने बापू जी से प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आपकी आज्ञा है कि ‘तू हर गुरुवार को सत्संग करेगी।’ पर यहाँ कोई आता ही नहीं है।”

बापू जीः “अगर कोई नहीं आता है तो मेरी तस्वीर रख के सत्संग कर।”

उन्होंने गुरु आज्ञा मानी तो आज वे अनपढ़ बहन अन्य बहनों को योगवासिष्ठ की व्याख्या सुना रही हूँ। यह गरुकृपा का ही चमत्कार है। धन्य हैं गुरुदेव, जिन्होंने 4 अक्षरों में भाषा का पूरा ज्ञान कराया, साथ में परमात्माप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर किया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 294

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