Monthly Archives: June 2017

क्षणभंगुरता में एकमात्र सहारा


आयुः कल्लोललोलं कतिपयदिवसस्थायिनी यौवनश्री-

रर्थाः संकल्पकल्पा घनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूगाः।

कण्ठाश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत्प्रियाभीः प्रणीतं

ब्रह्मण्यासकतचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम्।।

जीवन ऊँची तरंगों की तरह तुरंत नाश पाने वाला है। यौवन की सुंदरता थोड़े दिनों तक रहने वाली है। अर्थ यानी धन, धान्य, धाम, ग्राम, पशु आदि पदार्थ मनोरथ के समान अस्थिर हैं। सारे भोग वर्षाकालिक मेघों के बीच की बिजली के विलास की तरह हैं और प्रौढ़ प्रियाओं द्वारा किया गया कंठ-आलिंगन भी क्षणिक है। अतः संसार के भयरूप सागर के पार तक तैरकर जाने के लिए ब्रह्म में अपने मन को लीन करिये।’ (वैराग्य शतकः 36)

योगी भर्तृहरि जी यहाँ समझा रहे हैं कि प्राणी की आयु का कोई ठिकाना नहीं है। यह जल की तरंगों के समान चंचल और बुलबुलों के समान क्षणस्थायी है। यह अभी है और अगले क्षण न रहे। श्वास बाहर जाता है तो वापस आये या न आये, कुछ निश्चित नहीं है। शरीर ने जन्म लिया नहीं कि मौत उसके पीछे लग ही जाती है और शैशव, बाल्यकाल या युवावस्था भी पूरी होने देगी या नहीं यह बताती नहीं है। ऐसे क्षणभंगुर जीवन पर क्या खुशी मनायी जाय ?

कमल के पत्ते पर पड़ा हुआ जल अति चंचल होता है। मनुष्य का जीवन भी उसी तरह अति चंचल है। यह सारा संसार रोगरूपी सर्पों से ग्रसित हो रहा है। इसमें दुःख-ही-दुःख है। जवानी भी अल्पकालिक एवं अस्थायी है। सदा कोई जवान नहीं रहा। अवस्थाएँ बदलती ही रहती हैं। बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आता है अवश्य आता है। कहा भी गया हैः

सदा न फूलै तोरई, सदा न सावन होय।

सदा न जोवन (जवानी) थिर रहे, सदा न जीवे (जीवित रहे) कोये।।

यौवन अवस्था की बहार उम्रभर थोड़े ही रहती है, यह तो फूल की सुगंध की तरह इधर आयी – उधर गयी। जो आज जवानी के नशे में मतवाले हो रहे हैं, शरीर को इत्र व फुलेल (सुगंधित तेल) से सुगंधित करते है एवं भाँति-भाँति के गहने पहने रहते हैं वे मन में निश्चित समझ लें कि उनका यह शरीर सदा उनके साथ न रहेगा, एक दिन यहीं-का-यही पड़ा रह जायेगा और मिट्टी में मिल जायेगा। काया के नाश होने से पहले ही वृद्धावस्था युवावस्था को निगल जायेगी। जो दाँत आज मोतियों की तरह चमकते हैं वे कल हिल-हिलकर एक-एक करके आपका साथ छोड़ देंगे। उस समय आपका मुख पोपला और भद्दा हो जायेगा। जिन बालो को आप रोज धोते और साफ रखते है तथा जिनकी तरह-तरह से सजावट करते हैं वे बाल एक न सफेद हो जायेंगे। ये फूले हुए गाल पिचक जायेंगे। आँखों में यह रसीलापन न रहेगा। इनमें पीलापन और धुँध छा जायेगी। यह तो आपकी काया और जवानी का हाल है।

अब धन-दौलत की चंचलता देखें। लक्ष्मी को चंचला और चपला भी कहते हैं। लक्ष्मी ठीक उस चपला (बिजली) की तरह है जो क्षण में जाती है। यह धन किसी के पास सदा नहीं रहा। आज जो धनी है, कल वही निर्धन हो जाता है। आज जो हजारों को भोजन देता है, कल वही अपने भोजन के लिए औरों के द्वार पर भटकता फिरता है। आज जो राजा है, कल वही रंक हो जाता है। आज जो बिना मोटर-गाड़ी के घर से बाहर नहीं जाता, कल वही पैदल दौड़ा फिरता है। सारांश यह कि धन-वैभव व तन तो सदा किसी के  पास रहा है और न आगे ही रहेगा।

शुक्रनीति सार में लिखा हैः

यौवनं जीवितं चित्तं छाया लक्ष्मीश्च स्वामिता।

चञ्चलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत्।।

‘यौवन, जीवन, मन, शरीर का सौंदर्य, धन और स्वामित्व – ये छहों चंचल हैं यानी स्थिर होकर नहीं रहते। यह जानकर धर्म में रत हो जाना चाहिए।

जिस तरह आयु, यौवन और धन चंचल हैं, उसी तरह नारी भी चंचल है। आज जो रमणियों के साथ विचरण करते हैं, कल वे ही उनके वियोग में तड़पते देखे जाते हैं। अतः धन यौवन का गर्व न करें, काल इनको पलक झपकते हर लेता है और पछतावा ही हाथ  लगता है।

तो इस भयंकर संसार-सागर से तरने का उपाय क्या है ? इस संदर्भ में पूज्य बापू जी की आत्मानुभवी अमृतवाणी में आता हैः “जन्म-मरण के दुःखों से सदा के लिए छूटने का एकमात्र उपाय यही है कि अविद्या को आत्मविद्या से हटाने वाले सत्पुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए लग जाना चाहिए। जैसे भूख को भोजन से तथा प्यास को पानी से मिटाया जाता है, ऐसे ही अज्ञान को, अँधेरी अविद्या को आत्मज्ञान के प्रकाश से मिटाया जाता है। ब्रह्मविद्या के द्वारा अविद्या को हटाने मात्र से आप ईश्वर में लीन हो जाओगे। अगर अविद्या हटाकर उस परब्रह्म-परमात्मा में दो क्षण के लिए भी बैठोगे तो बड़ी-से-बड़ी आपदा टल जायेगी।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 294

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बुंदेलखंड में नयी चेतना का संचार करने वाले धर्मयोद्धा


भारत पर मुगल शासन के समय जामनगर (गुज.) में एक प्रसिद्ध संत हो गये जिनका नाम था प्राणनाथ। इनका सम्पूर्ण जीवन भक्ति और धर्म के रंग में रँगा था किंतु ये गुफा में बंद होकर तत्कालीन समाज की दुर्दशा की ओर से आँखें मूँद के ध्यान करने में विश्वास नहीं रखते थे। मुसलमानों का भीषण अत्याचार देख इनका दिल दहल उठा था। इन्होंने हिन्दू संगठन हेतु और मुसलिम अत्याचार के विरोध के लिए भारत-भ्रमण प्रारम्भ किया। इन्होंने देखा कि हिन्दुओं पर जो भी अत्याचार किये जा रहे हैं वे औरंगजेव के आदेश से किये जा रहे हैं। यदि औरंगजेब को समझा-बुझाकर इस मार्ग से हटाया जाय तो ये अत्याचार समाप्त हो सकते हैं। वे आगरा जाकर औरंगजेब से मिले और उसे समझाया परंतु उस क्रूर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

प्राणनाथ जी देखा कि औरंगजेब ने किसी महत्त्वपूर्ण युद्ध में भाग लेकर विजय नहीं पायी। उसकी ओर से हिन्दू राजा और सरदार ही लड़-मर रहे हैं और उसके राज्य का विस्तार करते रहे हैं। अतः वे औरंगजेब के सहयोगी हिन्दू राजाओं से मिले और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया।

बड़े-बड़े राज्यों व साधन-सम्पत्ति से सम्पन्न राजा-महाराजा औरंगजेब के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहे थे पर प्राणनाथ जी का समाज में घूम-घूम के जन-जागृति करने का कार्य निरंतर जारी था। उन्होंने वीर छत्रसाल के पराक्रम के विषय में सुना कि वे बुंदेलखंड में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हिन्दुओं को संगठित कर रहे हैं। वे छत्रसाल से मिलने हेतु निकल पड़े।

उस समय छत्रसाल मुगलों से युद्ध कर रहे थे। प्राणनाथ जी ने मऊ (बुंदेलखंड) के पास जंगल में अपना आसन जमाया। एक दिन शाम को वे अपनी कुटिया के सामने बैठे सत्संग कर रहे थे। इतने में कंधे पर धनुष-बाण तथा कमर में तलवार टाँगे एक घुड़सवार आया। उपस्थित भक्तों ने युवक को तत्काल पहचान लिया। वे आश्चर्य से एक साथ बोल उठेः “वीर छत्रसाल !”

युवक ने प्राणनाथ जी को प्रणाम किया। महाराज ने छत्रसाल को पास बिठाया, कुशलक्षेम पूछा और उनका उत्साहवर्धन करते हुए कहाः “आपके धर्म रक्षा के कार्य को सुनकर बड़ा संतोष हुआ है। आप इस कार्य को ईश्वर का आदेश मानकर करते जाइये।”

छत्रसालः “जो आज्ञा ! आप जैसे संत का आदेश पाकर मैं हिन्दू धर्म की रक्षा का कार्य दुगने चौगुने उत्साह से करूँगा। कभी-कभी चिंता यही होती है कि मुगलों के पास असंख्य सैनिक हैं, अपार धन है, विशाल साम्राज्य है जबकि मेरे पास बहुत कम साधन हैं। मैं इतने कम साधनों से कितने समय तक उनसे संघर्ष कर सकूँगा ?”

“वीर छत्रसाल ! संसार में सबसे बड़ा साधन दृढ़निश्चयी हृदय, पवित्र उद्देश्य और गुरु का आशीर्वाद है। ये तीनों जहाँ हों वहाँ अन्य साधनों के न होते हुए भी सफलता हाथ बाँधे खड़ी रहती है। रावण की सेना के विरुद्ध वानरों की सेना ने विजय पायी थी क्योंकि उसे राम जी का आशीर्वाद प्राप्त था। आपके पास ये तीनों दिव्य साधन हैं। फिर कैसी चिंता ?”

“हिन्दुओं में शूरवीरों की कमी नहीं है। यदि सब हिन्दू नरेश अपने धर्म की रक्षा हेतु जुट जायें तो मुगलों का अत्याचारी शासन शीघ्र ही धूल में मिल सकता है। किंतु कुछ राजा अपना स्वार्थ ही देखते हैं। उनमें से कई दुष्ट मुगलों का साथ दे रहे हैं।”

प्राणनाथ जीः “निराश न हों। आपने विशेष बाहरी साधनों के बिना ही बुंदेलखंड का अधिकांश भाग विधर्मी शासन से मुक्त किया है। इससे हिन्दू समाज में नयी आशा जगी है। आगे आपको और भी सफलता मिलेगी।”

रात को छत्रसाल वहीं रूके। सुबह प्राणनाथ जी से बोलेः “आपके आश्रम में बड़ी शांति मिली। खेद है कि अब मैं नित्य पूजादि नहीं कर पाता।”

प्राणनाथजीः “छत्रसाल ! तुम सनातन वैदिक हिन्दू धर्म एवं धर्मस्थानों, धर्मग्रंथों और समाज की रक्षा के लिए सतत संघर्ष कर रहे हो। वर्तमान में तुम्हारे लिए यही पूजा साधना है। भगवान श्री राम और श्रीकृष्ण ने भी धर्म रक्षा व अत्याचारियों के दमन हेतु अस्त्र-शस्त्र उठाये थे। तुम भी उनकी तरह कर्म को कर्मयोग बना लो।”

छत्रसाल के मन पर प्राणनाथ जी की गहरी छाप पड़ी। उन्होंने मन-ही-मन उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया। छत्रसाल ने महसूस किया कि ‘मेरे जीवन के एक बड़े अभाव की पूर्ति हो गयी।’

एक दिन छत्रसाल ने गुरुचरणों में अपनी समस्या रखीः “गुरुदेव ! एक छोटे से युद्ध में लाखों का खर्च हो जाता है। धन की कमी के कारण मैं बड़ी सेना नहीं रख पाता।”

प्राणनाथ जीः “वीरवर ! धर्मकार्य के मार्ग में जो बाधाएँ आयेंगी, वे सब दूर होंगी। आप पन्नानगर को अपनी राजधानी बनाइये।”

छत्रसाल का मुखमंडल प्रसन्नता से चमक उठा। वे कृतज्ञता के भाव से बोलेः “महाराज जी ! आपके आदेश का पालन होगा। मुझे सदैव आपका मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे।”

गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर छत्रसाल पन्ना आये तो उन्हें वहाँ असंख्या बहूमूल्य हीरे मिले। गुरुकृपा से उनकी आर्थिक समस्या भी सुलझ गयी।

बुंदेलखंड वासियों में प्राणनाथ जी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर लोगों को समझाया कि ‘छत्रसाल देश और धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से संघर्ष कर रहे हैं। आप लोगों को उनका साथ देना चाहिए।’ हजारों लोग उनके आवाहन पर धर्मरक्षार्थ छत्रसाल की सेना में भर्ती हुए। प्राणनाथ जी कई बार छत्रसाल के साथ युद्धों में गये। उन्होंने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया और उन्हें धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित किया।

जैसे आचार्य चाणक्य व चन्द्रगुप्त मौर्य के मिलन से भारत में एक नवयुग आया था और समर्थ रामदास जी व छत्रपति शिवाजी महाराज के सम्मिलित प्रयास से महाराष्ट्र में हिन्दू स्वराज्य की स्थापना हुई थी, वैसे ही प्राणनाथ जी एवं वीर छत्रसाल के मिलन से बुंदेलखंड में नयी चेतना फैली।

वीर छत्रसाल जैसे बुद्धिमान आज भी संतों की शरण में जाकर अपना तो भला करते ही हैं, पूरे देश और समाज का भी मंगल कर लेते हैं। इतिहास साक्षी है कि जिन भी शासकों ने सदगुरुओं का मार्गदर्शन पाया, उनका राज्य समृद्ध व खुशहाल रहा तथा वे प्रजा के प्रिय हो गये और आज भी याद किये जाते हैं। जो विवेकी शासक संतों की आज्ञा में चले, जिन्होंने गुरुओं की कृपा पायी, उन्होंने ही अपना और अपनी सारी प्रजा का वास्तविक मंगल किया है। ऐसे गुरुभक्तों के लिए भगवान शिवजी कहते हैं-

धन्या माता पिता धन्यो गोत्र धन्यं कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 294

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आगरा में सम्पन्न हुई गुरुकुलों की राष्ट्रस्तरीय प्रशिक्षण कार्यशाला


‘गुरुकुल केन्द्रीय प्रबंधन समिति’ द्वारा 5 से 7 मई 2017 तक ‘संत श्री आशाराम जी पब्लिक स्कूल, आगरा’ में ‘गुरुकुल अभ्यास वर्ग एवं प्रशिक्षण कार्यशाला’ का आयोजन किया गया। कार्यशाला में भाग लेने पहुँचे देशभर के संत श्री आशाराम जी गुरुकुलों के प्रधानाचार्यों, शिक्षक-शिक्षिकाओं एवं गृहपतियों (छात्रावास) अध्यक्षों) ने विद्यार्थियों की उन्नति से जुड़े कई पहलुओं पर विचार-विमर्श किया। शिक्षा-क्षश्रेत्र में कार्यरत व सेवानिवृत्तत कई वरिष्ठ अनुभवी विद्वानों ने भी कार्यशाला में सम्मिलित होकर गुरुकुलों में दी जा रही शिक्षा की सराहना की व अपने विचार व्यक्त किये। कार्यशाला की पूर्णाहूति के दिन पूज्य श्री का संदेश आया, जिसे पाकर सबका हृदय आनंदित हो उठा और प्यारे गुरुवर की याद में नेत्र छलक पड़े।

पूज्य बापू जी का पावन संदेश

विद्यार्थियों व समाज में यह प्रसाद वितरित हो !

आगरा में ऊँचे उद्देश्य के लिए एकत्र हुए सभी भाई बहनों !

मनुष्य जीवन दुर्लभ है एवं क्षणभंगुर है। उसमें भी महापुरुषों का सम्पर्क और जीवन का उद्देश्य जानना और पाना परम-परम सौभाग्य है। डॉक्टर बनूँ, सेठ बनूँ, आचार्य बनूँ…. – ये बनाये हुए उद्देश्य पूरे होने के बाद भी मनुष्य ऊँची-नीची योनियों में भटकता फिरता रहता है। प्राणीमात्र का असली उद्देश्य अपने ‘सत्’ स्वभाव, चेतनस्वभाव, आनंदस्वभाव को आत्मज्ञान से पाना है।

न हि ज्ञाने सदृशं पवित्रमिह विद्यते। (गीताः 4.38)

अपना गुरुकुल चलाने का उद्देश्य है कि शिक्षक-शिक्षिकाएँ, आचार्य, गृहपति अपने कर्म को कर्मयोग, ज्ञानयोग बना दें। उनके ऊँचे उद्देश्य का फायदा विद्यार्थियों को मिले। उनका कुल खानदान धन्य हो जाय। भगवान शिव माता पार्वती को कहते हैं-

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता।।

आप सभी को शाबाश है ! ऊँचे उद्देश्य को बनाना नहीं है, जानना है। छोटे आकर्षणों से बचकर शाश्वत आत्मा-परमात्मा का लाभ पाना है।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते।

हम चाहते हैं कि आपको वह खजाना मिले व आपके द्वारा विद्यार्थियों व समाज में उसका प्रसादरूप में वितरण हो। प्रसादे सर्वदुःखानाम्….. उस प्रसाद से सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं। शरीर चाहे महल में रहें, चाहे जेल में रहें, आप सच्चिदानंद में रहना जान लो। यही शुभकामना…. इससे बड़ी शुभकामना त्रिलोकी में नहीं है।

शाबाश वीर ! धन्या माता पिता धन्यो… शिवजी का यह वचन तुम्हारे जीवन में सार्थक हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 31, अंक 294

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