धर्मराज भी जिनका करते हैं आदर-सत्कार !

धर्मराज भी जिनका करते हैं आदर-सत्कार !


सत्संग की महिमा अपार है। ‘पद्म पुराण’ में भगवान महादेवजी ने देवर्षि नारदजी को सत्संग श्रवण व सत्पुरुषों को दान करने की महिमा के संदर्भ में एक बड़ी ही रोचक व प्रेरणापद कथा सुनायी है।

महादेव जी ने कहाः “देवर्षे ! ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार ने मुझे यह उपाख्यान सुनाया था।

सनत्कुमार जी बोलेः “एक दिन मैं धर्मराज (यमराज) से मिलने गया था। वहाँ उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिभाव के साथ मेरा सत्कार किया और आसन पर बिठाया। मैं वहाँ एक अदभुत बात देखी। एक पुरुष सोने के विमान पर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर धर्मराज शीघ्रता से आसन से उठ खड़े हुए और आगंतुक का अर्घ्य आदि के द्वारा पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् धर्मराज ने उससे कहाः “धर्म के द्रष्टा महापुरुष ! आपका स्वागत है ! मैं आपके दर्शन से बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठिये और मुझे कुछ ज्ञान की बातें सुनाइये। इसके बाद उस धाम में जाना जहाँ श्री ब्रह्मा जी विराजमान हैं।”

धर्मराज के इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमान पर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराज ने उसका भी पूजन किया तथा सांत्वनापूर्वक वार्तालाप किया। यह देख के मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैंने धर्मराज से पूछाः “इन्होंने ऐसा कौन सा कर्म किया है जिससे आप इतने अधिक संतुष्ट हुए हैं ?”

धर्मराज ने कहाः “पृथ्वी पर वैदिश नाम का विख्यात नगर है। वहाँ धरापाल नाम से प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्होंने भगवान का मंदिर बनवाया। उस नगर में जितने लोग रहते थे उन सबको वहाँ आमंत्रित किया। वह सुंदर, शांत स्थल लोगों से ठसाठस भर  गया। तब राजा ने पहले भगवद्भक्ति, सुमिरन, ध्यान आदि सत्कार्यों में रत रहने वाले ब्राह्मणों, महात्माओं का पूजन किया, फिर इतिहास, पुराण, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, एक ज्ञाननिष्ठ द्विजश्रेष्ठ महापुरुष की विशेष रूप से पूजा की। सत्शास्त्रों का भी पूजन करके राजा ने विनयपूर्वक कहाः “महात्मा ! धर्म-श्रवण करने की इच्छा से चारों वर्णों का समुदाय यहाँ एकत्र हुआ है अतः आप सत्संग-श्रवण कराकर हम सभी को कृतार्थ कीजिये। भगवन् ! हालाँकि सत्संग-दान अनमोल है, उसका ऋण किसी भी प्रकार चुकाया नहीं जा सकता, फिर भी मैं अपनी कृतज्ञता का भाव प्रकट करने हेतु ये स्वर्णमुद्राएँ आपके चरणों में अर्पित करता हूँ, आप कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिये और एक  वर्ष तक प्रतिदिन हम सबको सत्संग-लाभ प्राप्त कराइये।”

मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार राजा की प्रार्थना से वहाँ पुण्यमय सत्संग एवं भगवत्कथा-वार्ता का क्रम चालू हो गया। वर्ष बीतते-बीतते आयु क्षीण हो जाने के कारण राजा की मृत्यु की हो गयी। तब मैंने भगवान विष्णु ने भी इनके लिए द्युलोक से विमान भेजा था। ये जो दूसरे पुरुष यहाँ आये थे, इन्होंने सत्संग के द्वारा उत्तम धर्म का श्रवण किया था। सत्संग-श्रवण करने से श्रद्धावश इनके हृदय में परमात्मा की भक्ति का उदय हुआ। मुनिश्रेष्ठ ! फिर इन्होंने उन सत्संग करने वाले महापुरुष की परिक्रमा की और अहोभाव से भरकर उन्हें दान दिया। सत्संग-श्रवण तथा सुपात्र को दान देने से इन्हें इस प्रकार के फल की प्राप्ति हुई।”

देवर्षे ! जो मनीषी-पुरुष इस पुण्य-प्रसंग का माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनकी किसी जन्म में कभी दुर्गति नहीं होती।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 29 अंक 295

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