जगत की उत्पत्ति किससे व कैसे ?

जगत की उत्पत्ति किससे व कैसे ?


काल का प्रारम्भ कहाँ से होता है ? इसी सेकंड से। वर्तमान सेकंड का आदि और अंत ही काल का आदि अंत है। जिस मुझमें यह वर्तमान सेकंड भास रहा है, वही ‘मैं’ काल के आदि और अंत का अधिष्ठान हूँ। काल का अनादित्व और अनंतत्व मैं ही हूँ।

यह फूल (वस्तु) है। यह कहाँ पैदा हुआ ? ‘पेड़ पर पैदा हुआ।’ – यह साधारण विचार है। दूसरा विचार यह है कि ‘फूल का दर्शन नेत्रों से हो रहा है, नेत्राकार वृत्ति हृदय में है। उस नेत्राकार वृत्ति का जो अधिष्ठान और प्रकाशक है, वहीं वह फूल पैदा हुआ।’ जिसके बिना फूल की सिद्धि नहीं होती और जिसके होने से ही फूल की सिद्धि होती है, वही फूल का कारण है।

कारण की खोज में विचार को फैलाओ मत। विचार को लाखों वर्ष पीछे क्यों फैंकते हो ? विचार को लाखों वर्ष आगे क्यों फेंकते हो ? एकदम अव्यावहारिक हो ! विचार की पद्धति यह है कि ‘वस्तु इस समय क्या है ?’ – इसका विचार करो। तो सबसे पहले तुम्हारा ‘मैं’ सामने आता है। इसका विचार करो कि ‘मैं’ क्या है ? जब जाँच पड़ताल करोगे तो मालूम पड़ेगा कि यही ‘मैं’ ‘हृदयगह्र-मध्ये अहं-अहं इति साक्षात् ब्रह्मरूपेण भाति’ हृदयगुफा में स्थित, स्फुरित ‘मैं-मैं’ साक्षात् ब्रह्म है और वास्तव में वही समस्त जगत का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण (समस्त जगत का उपादान कारण (अर्थात् वह कारण जिससे जगत बना) एवं निमित्त कारण (जिसने इसको बनाया है वह) ब्रह्म है और वह जगत से अभिन्न भी है।) है। वही ‘मैं’ अज्ञान के कारण ‘मैं-तू-वह-यह’ के रूप में स्फुरित हो रहा है, जैसे एक ही रज्जु (रस्सी) अज्ञान के कारण पानी की लकीर, भुजंग (सर्प), दंड, भूर-दरार आदि विकल्पों के रूप में स्फुरित होती है।

जैसे रज्जु में सर्प देखने वाले को रज्जु का ज्ञान कराने के लिए रज्जु का यह लक्षण बनाना पड़ता है कि ‘इदं सर्पतया कल्पितं वस्तु यस्मिन् अधिष्ठाने भासते तदेव रज्जुः’ (यह सर्प के रूप में कल्पित वस्तु जिस अधिष्ठान में भासती है वही रज्जु है), उसी प्रकार (ब्रह्म में जगत देखने वाले को ब्रह्म का ज्ञान कराने के लिए) ‘यह नामरूपात्मक सम्पूर्ण प्रपंच अपनी उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि के विकल्पसहित जिस नाम-रूप आकार आदि से विनिर्मुक्त अधिष्ठान में भासता है वह ब्रह्म है।’ – ऐसा ब्रह्म का लक्षण बनाना पड़ता है।

रज्जु में परमार्थतः सर्प नहीं है परंतु उसी में भासता है रज्जु के अज्ञान के कारण। अतः रज्जु का अज्ञान ही सर्पसत्ता का निमित्त कारण और उपादान कारण – दोनों बनता है। उस अज्ञानदशा में रज्जु को लक्ष्य कराने के लिए रज्जु को सर्प का कारण बताया जा सकता है। रज्जु का ज्ञान होते ही रज्जु में सर्प की कारणता के अध्यारोप का भी अपवाद हो जाता है। ऐसा ही अध्यारोपित जगत्कारणतारूप ब्रह्म का लक्षण श्रुति ने बताया है।

यथा-जगत नामरूपात्मक है, अनेक कर्ता-भोक्ताओं से संयुक्त है, देश-काल-निमित्त से होने वाली क्रिया और क्रियाफल का आश्रय है और इसकी रचना और स्वरूप मन से अचिंत्य है। ऐसे इस जगत का जन्म, स्थिति और भंग जिस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कारण से होता है वह ब्रह्म है।

जो भी ‘इदं-वाच्य’ (अर्थात् यह कहने योग्य है) वह जगत है।

उसका लक्षण है जन्म, स्थिति और भंग। ‘इदं वाच्यता’ का अर्थ है कि जगत प्रतीति का विषय है। अतः श्रुति और सूत्र का अर्थ है कि यह जो इदं प्रतीति का विषय दृश्य-प्रपंच है और उसकी जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते प्रतीत होते हैं वे प्रतीयमान (प्रतीत होने वाले) जन्मादि जिस कारण से होते हैं वह ब्रह्म है। क्रमशः

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 295

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