कौन मुक्त हो जाता है ?

कौन मुक्त हो जाता है ?


महाभारत (आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 ) में आता हैः

अनमित्रश्च निर्बन्धुरनपत्यश्च य क्वचित्।

त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराकाङ्क्षी च मुच्यते।।

‘जो किसी को अपना मित्र, बंधु या संतान नहीं मानता, जिसने सकाम धर्म, अर्थ और काम का त्याग कर दिया है तथा जो सब प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है, वह मुक्त हो जाता है।’ (श्लोकः 6)

नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहायकः।

धातुक्षयप्रशान्तात्मा निर्द्वन्द्वः स विमुच्यते।।

‘जिसकी न धर्म में आसक्ति है न अधर्म में, जो पूर्वसंचित कर्मों को त्याग चुका है, वासनाओं का क्षय हो जाने से जिसका चित्त शांत हो गया है तथा जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित है, वह मुक्त हो जाता है।’ (7)

अकर्मवान् विकाङ्क्षश्च पश्येज्जगदशाश्वतम्।

अश्वत्थसदृशं नित्यं जन्ममृत्युजरायुतम्।।

वैराग्यबुद्धिः सततमात्मदोषव्यपेक्षकः।

आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्याचिरादिव।।

‘जो किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनता, जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो इस जगत को पीपल-वृक्ष के समान अनित्य-कल तक न टिक सकने वाला समझता है तथा जो सदा इसे जन्म-मृत्यु और जरा से युक्त जानता है, जिसकी बुद्धि वैराग्य में लगी रहती है और जो निरंतर अपने चित्त के दोषों पर दृष्टि रखता है, वह शीघ्र ही अपने बंधन का नाश कर देता है।’ (8-9)

अगन्धमरसस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम्।

अरूपमनभिज्ञेयं दृष्टवाऽऽत्मानं विमुच्यते।।

‘जो आत्मा को गंध, रस, स्पर्श, शब्द, परिग्रह, रूप से रहित तथा अज्ञेय मानता है, वह मुक्त हो जाता है।’ (10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 21 अंक 296

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