इसके बिना उन्नति हो ही नहीं सकती

इसके बिना उन्नति हो ही नहीं सकती


संयम वह साधना है जिससे शक्तिरूपी सिद्धि सुलभ है। संयम शक्ति का कोष है। आत्मसंयम से ही सर्वत्र विजय मिलती है। जो मन-इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखता है, विद्वानों ने उसे ही विश्वविजयी वीर कहा है। जो सदगुरु एवं सत्शास्त्रों के आज्ञापालन में तत्पर है, उसी को अपने ऊपर अधिकार प्राप्त होता है। असंयमी व्यक्ति भय, चिंता, तृष्णा, क्रोध से प्रायः अशांत ही रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। व्यर्थ चेष्टा के त्याग से, स्थिर आसन से शरीर संयमी होता है। रसना (जिह्वा) को संयम में रखने से स्वाद की दासता (गुलामी) नहीं रहती। रसना के द्वारा जो वस्तु बार-बार सेवन की जाती है उसी का व्यसन पड़ जाता है, फिर छूटना कठिन होता है। व्यसनी व्यक्ति का मन भगवान के चिंतन में लगेगा ही नहीं।

जिस प्रकार रसना में स्वाद-आसक्ति दृढ़ हो जाती है, उसी प्रकार यदि अधिक बात करने की आदत बढ़ा ली जाती है अथवा किसी अनावश्यक वाक्य को वार्तालाप के बीच में बार-बार दोहराया जाता है तो उसका भी  अभ्यास हो जाता है। जो मितभाषी है वही मननशील होता है, वही शांत पद प्राप्त करता है। हमें ऐसे लोगों से मिलते हुए संकोच करना चाहिए जो अधिक वार्ता करते हुए प्रसन्न होते हैं।

असत्य बोलना, दूसरों की निंदा करना, कठोर वाक्य बोलना, व्यर्थ वार्ता करना और अपनी प्रशंसा करना – पाँच पाप वाणी के हैं।

हमें  वाणी का कहीं दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। जिसने अधिक बोलने की आदत डाल ली है उसे तो मौन रहकर वाणी को संयम में रखने का अभ्यास आवश्यक है।

संयमी पुरुष तो संक्षेप में प्रश्न करने के लिए या फिर प्रश्न का उत्तर देने के लिए वाणी का प्रयोग करते हैं, अनावश्यक बोलने में शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते।

जिह्वा और उपस्थ (जननेंद्रिय) का संयम अनिवार्य है। इनके संयम बिना शक्ति की गति अधोमुखी रहती है, उन्नति हो ही नहीं सकती। इन दो इन्द्रियों का संयम सध जाने पर दृष्टि को भी संयम में रखना आवश्यक होता है।

आँख कान मुख ढाँपि कै1, नाम निरञ्जन लेय।

भीतर के पट तब खुलें, जब बाहर के पट देय2।।

  1. आँख, कान, मुख आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों की ओर जाने से रोककर अंतर्मुख हो के. 2. बंद करे।

अतः हमको शक्ति एवं सरलता के लिए सर्वांग-संयमी होना चाहिए। आज्ञाचक्र में ॐकार या सदगुरु का ध्यान करने से पाँचों इन्द्रियों को संयत करने में तेजी से मदद मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 17 अंक 297

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *