श्री अष्टावक्र गीता पर पूज्य श्री एक अमृतवचन

श्री अष्टावक्र गीता पर पूज्य श्री एक अमृतवचन


अष्टावक्र जी कहते हैं-

धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।

न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।

‘ओ अनंत (व्यापक) ! धर्म-अधर्म एवं सुख-दुःख का केवल मन से ही संबंध है, तुमसे नहीं। तुम न कर्ता हो और न भोक्ता हो। तुम स्वरूपतः नित्य मुक्त ही हो।’ (अष्टावक्र गीताः 1.6)

सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप – ये सब मन के भाव हैं, उस विभु आत्मा के नहीं। तू मन भी नहीं है। ये भाव भी तू नहीं है। तू विश्वसाक्षी है। …..मुक्त एवासि सर्वदा। ऐसा नहीं कि तू कल मुक्त होगा अथवा परसों मुक्त होगा।

मदालसा अपने बच्चों को उपदेश देती थीः ‘न कर्ताऽसि…. न भोक्ताऽसि…. शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनो नारायणोऽसि।’

जो मूढ़ अपने को बंधन में मानता है वह बँध जाता है और जो अपने को मुक्त मानता है वह मुक्त हो जाता है। अष्टावक्र जी बहुत ऊँची बात कह रहे हैं। कुछ करना नहीं है केवल जानना है। कोई मजदूरी करने की जरूरत नहीं है, चित्त की विश्रांति पानी है। जहाँ-जहाँ मन जाता है, उसको देखो। जितना अधिक तुम शांत बैठ सको, उतना तुम महान होते जाओगे। कीर्तन करते-करते देहाध्यास को भूलना है, जप करते-करते इधर-उधर की बातों को भूलना है। जब इधर-उधर की बातें भूल गये तो जप भी भूल जायें तो कोई हर्ज नहीं। शांत भव….. सुखी भव।

भगवान विष्णु की पूजा में आता हैः शान्ताकारँ भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं…. विष्णु भगवान को गगनसदृश क्यों कहा ? व्यापक चीज हमेशा गगनसदृश (आकाश की तरह नीलवर्ण) होती है। समुद्र का पानी नीला दिखता है। ऐसे ही जो परमात्मा हैं, जो विष्णु हैं, जो सबमें बस रहे हैं, वे व्यापक हैं, इसलिए उनको नीलवर्ण बताया गया । शिवजी का, विष्णु जी का, राम जी का, कृष्ण जी का चित्र नीलवर्णीय बनवाया है इस देश के मनीषियों ने। सच पूछो तो परमात्मा किसी वर्ण के नहीं हैं लेकिन उन परमात्मा की व्यापकता दिखाने के लिए नीलवर्ण की कल्पना की गयी है। तो ऐसे ही तुम्हारा आत्मा किसी वर्ण का नहीं, किसी आश्रम का नहीं लेकिन जिस शरीर में आता है उस वर्ण का लगता है, जिस आश्रम में आता है स्वयं उस आश्रम का मानने लगता है। ऐसा मानते-मानते सुखी-दुःखी होता है और जन्मता-मरता है। मान्यता बदल जाय तो मनुष्य के अंदर इतना खजाना छुपा है, मनुष्य इतना-इतना गरिमाशाली है कि उसको सुखी होने के लिए न स्वर्ग की जरूरत है, न इलेक्ट्रॉनिक साधनों की जरूरत है, न दारू की जरूरत है। किसी चीज की जरूरत नहीं सुखी होने के लिए। शरीर को जिंदा रखने के लिए पानी की, हवा की रोटी की जरूरत है लेकिन सुखी होने के लिए किसी वस्तु की जरूरत नहीं और मजे की बात है कि बिना वस्तु के कोई सुखी दिखता ही नहीं। जब आती है कोई वस्तु तो सुख से हर्षित होता है। किंतु वास्तव में वस्तुओं से सुख नहीं मिलता है, उनसे तो केवल बेवकूफी बढ़ती जाती है। जब चित्त अंतर्मुख होता है तब शांति मिलती है, जो एक बार परमात्मा के सुख की झलक मिलती है उसके बाद फिर जगत के पदार्थ आकर्षित नहीं कर सकते। एक बार  तुमको सम्राट पद मिल जाय, एक बार तुम खीर खा लो तो भिखारिन के टुकड़े तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगे। एक बार तुम सम्राट बन जाओ तो फिर चपरासी की नौकरी तुम्हें आकर्षित नहीं करेगी। ऐसे ही मन को एक बार परमात्मा का सुख मिल जाय तो फिर मन तुम्हें धोखा नहीं देगा। मन का स्वभाव है कि जिससे उसको सुख की झलक मिल जाती है उसी का चिंतन करता है, उसी के पीछे तुमको दौड़ाता है। तो जगत में जो सुख की झलकें मिलती हैं वे अज्ञानवश इन्द्रियों के द्वारा मिलती हैं इसलिए अज्ञानवश बेचारे जीव क्षणिक सुख के पीछे भाग जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 298

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