किसको प्रसन्न करें तो पूरण हों सब काम ?

किसको प्रसन्न करें तो पूरण हों सब काम ?


परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा

प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।

प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो

विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।

‘हे हृदय ! तू खूब क्लेश से युक्त होकर दूसरों के चित्त की प्रतिदिन अनेक प्रकार से आराधना करके उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्यों प्रवृत्त होता है ? स्वयं तेरा अंतःकरण प्रसन्न होते ही, उसका समाधान होते ही अपने आप उदय होने वाला चिंतामणियों की खानरूपी निष्कलंक, पवित्र सत्यसंकल्प क्या तेरी अभिलाषाओं को पोषित (पूर्ण) नहीं करेगा ?’ (वैराग्य शतकः 61)

‘श्री रामचरितमानस’ के प्रारम्भ में संत तुलसीदास जी लिखते हैं- ‘स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा…..’ अर्थात् श्री रघुनाथ जी की कथा का तुलसीदासजी अपने अंतःकरण के सुख के लिए विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं।

यह एक विलक्षण सिद्धान्त है कि जो ‘स्वान्तःसुखाय’ होता है वह अपने आप ‘सर्वान्तःसुखाय’ भी हो जाता है। यानी जो कार्य ईमानदारी से अपने आत्मा के संतोष के लिए किया जाता है, वह स्वाभाविक ही सबके अंतरात्मा को भी संतोष देने वाला हो जाता है। आज विश्व में ऐसा कौन सज्जन होगा जिसे तुलसीदास जी की रामायण पढ़कर आत्मतृप्ति, आत्मसंतुष्टि का अनुभव नहीं हुआ होगा ? सभी पुण्यात्माओं को तृप्ति का एहसास होता है।

जो मनुष्य आत्मसंतोष के अनुभव का मूल्य जानकर हर कार्य ‘स्वान्तःसुखाय’ अर्थात् अंतरात्मा के संतोष या आत्मसुख के लिए करने का अभ्यास करता है, वह जीवन के परम सुख के अमृत का आस्वादन करते-करते एक दिन अपने शाश्वत सुखसिंधुस्वरूप को जान लेता है।

पूज्य बापू जी के अमृतवचनों में आता हैः “दूसरों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से कभी कुछ मत करो। जिस काम से तुम्हारा चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने अंतर्यामी परमात्मा को राज़ी करने का प्रयत्न करो। व्यर्थ की खुशामदखोरी से बचकर जो अपने ईश्वरत्व में टिकते हैं वे ही वीर हैं।

धन, सत्ता व प्रतिष्ठा प्राप्त करके भी तुम चाहते क्या हो ? तुम दूसरों की खुशामद करते हो किसलिए ? संबंधियों को खुश रखते हो, समाज को अच्छा लगे ऐसा ही व्यवहार करते हो, किसलिए ? सुख के लिए ही न ! फिर भी सुख टिका ? तुम्हारा सुख टिकता नहीं और आत्मज्ञानी महापुरुष का सुख जाता नहीं।

लोग जल्दी से उन्नति क्यों नहीं करते ? क्योंकि बाहर के अभिप्राय एवं विचारधारों का हिमालय की तरह बहुत बड़ा बोझ उनकी पीठ पर लदा हुआ है। जनता एवं बहुमति को आप किसी प्रकार से संतुष्ट नहीं कर सकते। जब आपके आत्मदेवता प्रसन्न होंगे तब जनता आपसे अवश्य संतुष्ट होगी।”

शास्त्र कहते हैं-

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

भगवान, गुरु और अपना अंतर्यामी आत्मा तीनों एक ही हैं।

हृदय जितना शुद्ध होता है उतनी ही अंतरात्मा की आवाज या प्रेरणा ठीक से पता चलती है, नहीं तो अशुद्ध हृदय अपनी वासनाओं को ही अंतर्यामी की आवाज या प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत कर भटकाता रहता है। अतः भगवान के साकार, प्रकट स्वरूप सद्गुरुदेव की आज्ञाएँ, उनके वचन, उनके सत्संग ही अंतर्यामी की नित्य प्रेरणा या आवाज है, यह रहस्य जानकर फिर उन एक अद्वैत अंतर्यामी, ईश्वर या सद्गुरुदेव की प्रसन्नता के लिए व्यक्ति जो कुछ करेगा वह उसे पूर्णकाम, सत्यंसंकल्प महापुरुष बनाने के राजमार्ग पर यात्रा करायेगा। जो ऐसे महापुरुष हुए हैं वे अभिलाषाओं के गुलाम नहीं होते अपितु उनके स्वामी होते हैं। उनमें कोई अभिलाषा नहीं रहती बल्कि उनकी मन्नत मानने वालों की अभिलाषाएँ पूरी हो जाती हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 299

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