Monthly Archives: November 2017

आत्मज्ञान का पूर्ण अधिकारी कौन ? – संत एकनाथ जी


भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी के कहते हैं- “हे उद्धव ! इस जगत में केवल दो ही अवस्थाएँ हैं। पहली विरक्ति और दूसरी विषयासक्ति। तीसरी कोई अवस्था ही नहीं।

जहाँ विवेक से विषयों की आसक्ति क्षीण होती है वहाँ परिपूर्ण वैराग्य बढ़ता है और जहाँ विवेक क्षीण होने से वैराग्य भी क्षीण होने से वैराग्य भी क्षीण होने लगता है, वहाँ ज्ञानाभिमान से विषयाचरण होने लगता है। इसलिए ब्रह्मज्ञान होने तक जो पूर्णरूप से वैराग्य रखता है और वैराग्य से युक्त होकर जो अनन्य भाव से सदगुरु की शरण लेता है, वही आत्मज्ञान के उपदेश का सच्चा अधिकारी है ऐसा समझना चाहिए।

जो वैराग्य के साँचे में ढला हुआ है, विवेक से परिपूर्ण है, जो प्राणों की बाजी लगाकर सदगुरु सेवा में बिक चुका है और अनन्य भाव से उनके चरणों में तल्लीन है, अपनी महानता भुलाकर गुरुसेवा में रंक बनने को भी जो तैयार है, गुरुसेवा के प्रति जिसका पूर्ण सदभाव रहता है, जो इन्द्रादि बड़े-बड़े देवताओं को भी सदगुरु का दास मानता है और एक सद्गुरु को छोड़ के हरि-हर (भगवान विष्णु व शिव जी) को भी श्रेष्ठ नहीं मानता, जिसमें गर्व (अभिमान) और मद का नामोनिशान नहीं, जिसमें काम-क्रोध नहीं, जिसे विकल्प-भेद पसंद नहीं – ऐसे शिष्य को ही पूर्णरूप से शुद्ध परमार्थ का अधिकारी समझना चाहिए।

तन, मन, धन एवं वचन की आसक्ति तथा अपने बड़प्पन की अकड़ छोड़कर जो अनन्य भाव से सद्गुरु की शरण जाता है, उसे ही साधुता की दृष्टि से सत्शिष्य समझना चाहिए। अपनी प्रतिष्ठा एवं लज्जा छोड़कर जो ब्रह्मज्ञान का याचक बनता है और सद्गुरु का अमृतोपदेश ग्रहण करने के लिए चातक (स्वाति नक्षत्र में होने वाली वर्षा की एक बूँद के लिए तरसने वाला पक्षी, जो अन्य जल नहीं पीता) बनकर रहता है, उसे अवश्य ही उपदेश करना चाहिए।”

एकनाथी भागवत, अध्याय 19 से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 21 अंक 299

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अवर्णनीय है संत समागम का फल – पूज्य बापू जी


जब-जब व्यक्ति ईश्वर एवं सदगुरु की ओर खिंचता है, आकर्षित होता है, तब-तब मानो कोई न कोई सत्कर्म उसका साथ देता है और जब-जब वह दुष्कर्मों की ओर धकेला जाता है, तब-तब मानो उसके इस जन्म अथवा पूर्व जन्म के दूषित संस्कार अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अब देखना यह है कि वह किसकी ओर जाता है ? पुण्य की ओर झुकता है कि पाप की ओर ? संत की ओर झुकता है कि असंत (दुष्ट, दुर्जन, संत निंदक) की ओर ? जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक संग का रंग लगता रहता है।

किया हुआ भगवान का स्मरण कभी व्यर्थ नहीं जाता। किया हुआ ध्यान-भजन, किये हुए पुण्यकर्म सत्कर्मों की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार किये हुए पापकर्म, अंदर के अनंत जन्मों के पाप-संस्कार इस जन्म में दुष्कृत्य की ओर ले जाते हैं। फिर भी ईश्वर मनुष्य को कभी न कभी जगा देते हैं, जिसके फलस्वरू पाप के बाद उसे पश्चात्ताप होता है और वैराग्य आता है। उसी समय यदि उसे कोई सच्चे संत मिल जायें, किन्हीं सदगुरु का सान्निध्य मिल जाय तो फिर हो जाय बेड़ा पार !

स्वार्थ, अभिमान एवं वासना के कारण मनुष्य से पाप तो खूब हो जाते हैं लेकिन संतों का संग उसे पकड़-पकड़कर पाप में से खींच के भगवान के सुमिरन, ध्यान, सत्संग में ले जाता है। हजार-हजार असंतों का संग होता है, हजार-हजार झूठ बोलते हैं फिर भी एक बार का सत्संग दूसरी बार और दूसरी बार का सत्संग तीसरी बार सत्संग करा देता है। ऐसा करते-करते संतों का संग करने वाले एक दिन स्वयं संत के ईश्वरीय अनुभव को अपना अनुभव बना लेने में सफल हो जाते हैं।

….तो मानना पड़ेगा कि किया हुआ संग चाहे पुण्य का संग हो या पाप का, असंत का संग हो या संत का, उसका प्रभाव जरूर पड़ता है। फर्क केवल इतना होता है कि संत का संग गहरा असर करता है, अमोघ होता है जबकि असंत का संग छिछला असर करता है। पापियों के संग का रंग जल्दी लग जाता है लेकिन उसका असर गहरा नहीं होता जबकि संतों के संग का रंग जल्दी नहीं लगता और जब लगता है तो उसका असर गहरा होता है। पापी व्यक्ति इन्द्रियों में जीता है, तुच्छ भोग वासनाओं में जीता है, उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती इसलिए उसके संग का रंग गहरा नहीं लगता। संत जीते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्म-तत्त्व में और जो चीज जितनी सूक्ष्म होती है उसका असर उतना ही गहरा होता है जैसे, पानी यदि जमीन पर गिरता है तो जमीन के अंदर चला जाता है क्योंकि जमीन की अपेक्षा वह सूक्ष्म होता है। वही पानी यदि जमीन में गर्मी पाकर वाष्पीभूत हो जाय तो फिर चाहे जमीन के ऊपर आर.सी.सी. (प्रबलित सीमेंट कंकरीट) बिछा दो तो भी पानी उसे लाँघकर उड़ जायेगा। ऐसे ही सत्संग व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि संत अत्यंत सूक्ष्म परमात्म-तत्त्व में जगह हुए होते हैं।

अपने घर की पहुँच अपने गाँव तक होती है, गाँव की पहुँच राज्य तक होती है, राज्य की पहुँच राष्ट्र तक, राष्ट्र की पहुँच दूसरे राष्ट्र तक होती हैं किंतु संतों की पहुँच…. इस पृथ्वी को तो छोड़ो, ऐसी कई पृथ्वियाँ, की सूर्य एवं उसके भी आगे अत्यंत सूक्ष्म जो परमात्मा है, जो इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत है, जहाँ वाणी  जा नहीं सकती, जहाँ से मन उसे न पाकर लौट आता है उस परमात्म-पद, अविनाशी आत्मा तक होती है। यदि उनके संग का रंग लग जाय तो फिर व्यक्ति देश-देशांतर में, लोक-लोकान्तर में या इस मृत्युलोक में हो, सत्संग के संस्कार उसे उन्नति की राह पर ले ही जायेंगे।

अपनी करनी से ही हम संतों के नजदीक या उनसे दूर चले जाते हैं। हमारे कुछ निष्कामता के, सेवाभाव के कर्म होते हैं तो हम भगवान और संतों के करीब जाते हैं। संत-महापुरुष हमें बाहर से कुछ न देते हुए दिखें किंतु उनके सान्निध्य से हृदय में जो सुख मिलता है, जो शांति मिलती है, जो आनन्द मिलता है, जो निर्भयता आती है वह सुख, शांति, आनंद विषयभोगों में कहाँ ?

एक युवक एक महान संत के पास जाता था। कुछ समय बाद उस युवक की शादी हो गयी, बच्चे हुए। फिर वह बहुत सारे पाप करने लगा। एक दिन वह रोता हुआ अपने गुरु के पास गया और बोलाः “बाबा जी ! मेरे पास सब कुछ है – पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, धन है लेकिन मैं अशांत, दुःखी हो गया हूँ। शादी के पहले जब आता था तो जो आनंद व मस्ती रहती थी, वह अब नहीं है। लोगों की नज़रों में तो लक्षाधिपति हो गया हूँ लेकिन बहुर बेचैनी रहती है बाबा जी !”

बाबा जी ! “बेटा ! कुछ सत्कर्म करो। प्राप्त सम्पत्ति का उपयोग भोग में नहीं अपितु सेवा और दान पुण्य में करो। जीवन में सत्कृत्य करने से बाह्य वस्तुएँ पास में न रहने पर भी आनंद, चैन व सुख मिलता है और दुष्कृत्य करने से बाह्य ऐशो आराम होने पर भी सुख-शांति नहीं मिलती।”

हम सुखी हैं कि दुःखी हैं, पुण्य की ओर बढ़ रहे हैं कि पाप की ओर बढ़ रहे हैं – यह देखना हो और लम्बे-चौड़े नियमों एवं धर्मशास्त्रों को न समझ सकें तो इतना जरूर समझ सकेंगे कि हमारे हृदय में खुशी, आनंद और आत्मविश्वास बढ़ रहा है कि घट रहा है। पापकर्म व्यक्ति का मनोबल तोड़ता है। पापकर्म मन की शांति खा जायेगा, वैराग्य से हटाकर भोग-वासना, दुष्कर्म में लगायेगा जबकि पुण्यकर्म मन की शांति बढ़ाता जायेगा, रूचि परमात्मा की ओर बढ़ाता जायेगा।

जो स्नान-दान, पुण्यादि करते हैं, सत्कर्म करते हैं उनको संतों की संगति मिलती है। धीरे-धीरे संतों का संग होगा, पाप कटते जायेंगे और सत्संग में रूचि होने लगेगी। सत्संग करते-करते भीतर के केन्द्र खुलने लगेंगे, ध्यान लगने लगेगा।

हमें पता ही नहीं है कि एक बार के सत्संग से कितने पाप-ताप क्षीण होते हैं, अंतःकरण कितना शुद्ध हो जाता है और कितना ऊँचा उठ जाता है मनुष्य ! यह बाहर की आँखों से नहीं दिखता। जब ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तब पता चलता है कि कितना लाभ हुआ ! हजारों जन्मों के माता-पिता पति-पत्नी आदि जो नहीं दे सके, वह हमको संत-सान्निध्य से हँसते-खेलते मिल जाता है। कोई-कोई ऐसे पुण्यात्मा होते हैं जिनको पूर्व जन्म के पुण्यों से इस जन्म में जल्दी से ब्रह्मज्ञानी सदगुरु मिल जाते हैं और फिर उनका सान्निध्य भी मिल जाता है। ऐसा व्यक्ति तो थोड़े से ही वचनों से रंग जाता है। जो नया है वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। जिसकी जितनी पुण्यमय, ऊँची समझ होती है वह उतनी आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है।

जैसे वृक्ष तो  बहुत है लेकिन चंदन के वृक्ष कहीं-कहीं होते हैं और कल्पवृक्ष तो अत्यंत दुर्लभ होते है, ऐसे ही मनुष्य तो बहुत होते हैं, सत्पुरुष-सज्जन कहीं होते हैं और उनमें भी आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष अत्यंत दुर्लभ होते हैं। ऐसे ज्ञानवानों के संग से उनके संग-सान्निध्य का रंग लगता है और आत्मज्ञान पाकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। जिस तरह अग्नि में लोहा डालने से अग्निरूप हो जाता है, उसी तरह संत-समागम से मनुष्य संतों की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना सकता है। ईश्वर की राह पर चलते हुए संतों को जो अनुभव हुए हैं, जैसा चिंतन करके उनको लाभ हुआ है ऐसे ही उनके अनुभवयुक्त वचनों को हम अपने चिंतन का विषय बना के परमात्मप्राप्ति की राह की यात्रा करके अपना कल्याण कर लें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 299

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

अब मुझे इस दक्षिणा की जरूरत है ! – पूज्य बापू जी


दूरद्रष्टा पूज्य बापू जी द्वारा 13 वर्ष पहले ‘संस्कृति रक्षार्थ’ बताया गया सरल प्रयोग, जो साथ में देता है निरोगता स्वास्थ्य, प्रसन्नता, आत्मबल एव उज्जवल मंगलमय जीवन भी….

संत सताये तीनों जायें, तेज बल और वंश।

ऐसे ऐसे कई गये, रावण कौरव और कंस।।

भारत के सभी हितैषियों को एकजुट होना पड़ेगा। भले आपसी कोई मतभेद हो किंतु संस्कृति को उखाड़ना चाहें तो हिन्दू अपनी सस्कृति को उखड़ने नहीं देगा। वे लोग मेरे दैवी कार्य में विघ्न डालने के लिए कई बार क्या-क्या षड्यंत्र कर लेते हैं। लेकिन मैं इन सबको सहता हुआ भी संस्कृति के लिए काम किये जा रहा हूँ। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहाः “धरती पर से हिन्दू धर्म गया तो सत्य गया, शांति गयी, उदारता गयी, सहानुभूति गयी, सज्जनता गयी।”

गहरा श्वास लेकर ॐकार का जप करें, आखिर में ‘म’ को घंटनाद की नाईं गूँजने दें। ऐसे 11 प्राणायाम फेफड़ों की शक्ति तो बढ़ायेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति तो बढ़ायेंगे साथ ही वातावरण से भी भारतीय संस्कृति की रक्षा में सफल होने की शक्ति अर्जित करने का आपके द्वारा महायज्ञ होगा।

आज तक मैं कहता था कि ‘मुझे दक्षिणा की कोई जरूरत नहीं है’ पर अब मुझे हाथ पसारने का अवसर आया है, मुझे दक्षिणा की जरूरत है। मुझे आपके रूपये पैसे नहीं चाहिए बल्कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए आप रोज 11 प्राणायाम करके अपना संकल्प वातावरण में फेंको। इसमें विश्वमानव का मंगल है। ॐ….ॐ….ॐ….. हो सके तो सुबह 4 से 5 बजे के बीच करें। यह स्वास्थ्य के लिए और सभी प्रकार से बलप्रद होगा। यदि इस समय न कर पायें तो किसी भी समय करें, पर करें अवश्य। कम के कम 11 प्राणायाम करें। ज्यादा भी कर सकते हैं। अधिकस्य अधिकं फलम्।

हम चाहते हैं सबका मंगल हो। हम तो यह भी चाहते हैं कि दुर्जनों को भगवान जल्दी सद्बुद्धि दे। जो जिस पार्टी में है…. पद का महत्त्व न समझो। पद आज है, कल नहीं है लेकिन संस्कृति तो सदियों से तुम्हारी सेवा करती आ रही है। ॐ का गुंजन करो, गुलामी के संस्कार काटो ! दुर्बल जो करता है वह निष्फल चला जाता है और लानत पाता है। सबल जो कहता है वह हो जाता है और उसका जयघोष होता है। आप सबल बनो !

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। (मुण्डोपनिषद् 3.2.4)

विधिः सुबह उठकर थोड़ी देर शांत हो जाओ, भगवान के ध्यान में बैठो। ॐ शांति…. ॐ आनंद…. करते आनंद और शांति में शांत हो जायें। सुबह की शांति प्रसाद की जननी है, सद्बुद्धि और सामर्थ्य दायिनी है। खूब श्वास भरो, त्रिबंध करो – पेट को अंदर खींचो, गुदाद्वार को अंदर सिकोड़ लो, ठुड्डी को छाती से लगा लो। मन में संस्कृति की रक्षा का संकल्प दोहराकर ॐकार, गुरुमंत्र या भगवन्नाम का जप करते हुए सवा से पौने दो मिनट श्वास रोके रखो (नये अभ्यासक 30-40 सैकेंड से शुरु कर अभ्यास बढ़ाते जायें)। अब ॐॐॐॐॐॐ….. ओऽ…म्ऽऽऽ….. – इस प्रकार ॐकार का पवित्र गुंजन करते हुए श्वास छोड़ो। फिर सामान्य गति से 2-4 श्वासोच्छ्वास के बाद 50 सेकंड से सवा मिनट श्वास बाहर रोके रखते समय मानसिक जप चालू रखें। इस प्राणायाम से शरीर में जो भी आम (कच्चा, अपचित रस) होगा। वह खिंच के जठर में स्वाहा हो जायेगा। वर्तमान की अथवा आने वाली बिमारियों की जड़ें स्वाहा होती जायेंगी। आपकी सुबह मंगलमय होगी और आपके द्वारा मंगलकारी परमात्मा मंगलमय कार्य करवायेगा। आपका शरीर और मन निरोग तथा बलवान बन के रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 5 अंक 299

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ