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सतशिष्य के लिए


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निगुरे आदमी के लिए नहीं है, निगुरे को असर भी नहीं होगी और कर भी नहीं पाएगा । सगुरे को असर भी होगी और उसके लिए आसान हो जाएगा । कईं वर्षों की मेहनत से बच जाएगा । कईं जन्म की मजदूरी से बच जाएगा आदमी, खूब ध्यान से सुनेंगे तात्विक प्रवचन है ।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

हम अगर अपना उद्धार करना चाहे, तो अपने उद्धार के लिए इतना सारा समय नहीं चाहिए जितना हम लगा चुके है। अपने परमकल्याण के लिए इतने जन्म नहीं चाहिए, जितने हम ले चुके है । तो इसमें गलती कहाँ होती है, उसको देखने लिए, जो गलती से पार गए है, उनकी निगाह का अवलम्बन करना पड़ता है। भूल कहाँ होती है। रास्ता तय होने में देर क्यों होती है, तो जो उस रास्ते को पार करके गए है उन्ही के अनुभवों को आदर्श बनाना पड़ता है । हम कितने लोग ऐसे है, जो संसार के आगम, अपाई, अनित्य वस्तुओं को पाने के लिए अपने को खपा देते है, और पाई हुई वस्तु सब छोड़कर अनाथ होकर मर जाते है और फिर पेड़, पौधे, घोड़े, गधे न जाने कितने-कितने देहों में भटकते है। अगर मांस में रुचि है तो फिर गिद्ध के घर जाने की तैयारी होती है और शत्रु भाव है तो साँप के घर जाने की तैयारी होती है । कामवासना खूब है तो फिर सूकर, फुकर बैल आदि के अथवा बकरे आदि के घर जाने की तैयारी होती है और अपने चित्त में देवी देवताओं के प्रति आदर है तो लोक लोकांतर में जाना होता है। फिर वहाँ के सुख भोग करके आत्मा को फिर गिरना पड़ता है । गिरना किसी को पसन्द नहीं है और गिरे बिना कोई रहता नहीं । इसका क्या कारण है ? जरूर हमारे पैर नहीं टिकते, गिरना पसन्द नहीं है, गिरे बिना नहीं रहा जाता है तो पैरों में ताकत नहीं है । जैसे बालक चलते-चलते गिरता है तभी सिखड है, पैर जमाने की कला, पैर जमाने की शक्ति अभी विकसित नहीं हुई । ऐसे ही साधक रूपी बालक के पैर जम जाए इसलिए अभी का प्रवचन ध्यान से सुनेंगे ।

कभी-कभी एकांत में बैठे और उस समय कुछ न करें, भगवान का भजन भी न करें, चिंतन भी न करें, जप भी न करें, ध्यान भी न करें, कुछ भी न करें । उस समय देखेंगे कि हमारी वृत्तियाँ माना ‘मन के विचार’ क्या चल रहे है ? बहुत फायदा होगा ! इससे बहुत फायदा होगा और दूसरों को न देखे, दूसरे को देखना है, दूसरे का मन मे विचार आये तो ठीक नहीं है लेकिन फिर भी दूसरे का विचार तो दूसरे के गुणों का ही विचार ..। दोष का तो कभी भी नहीं । अगर दोष का विचार करेंगे, तो वह दोष हमारे गहरे में उतरेंगे । अपनी वृत्तियों को, मन को समझाएँ कि हम न्यायाधीश तो है नहीं, पुलिस अफसर तो है नहीं कि गुनाहगारों को कोसते फिरे । अगर गुनाहगारों को खोजना है तो हमारे निकट में कितने गुनाहगार बैठे है, काम, क्रोध आदि । हकीकत में जो दूसरा दिखता है वो भी उसी मसाले का है । पंचभौतिक शरीर और चैतन्य आत्मा, एक का एक ! बाकी रहा फर्क मन के वृत्तियों का ! तो आदमी जब अपनी वृत्तियों के साथ तादात्म्य प्रगाढ़ करता है, जुड़ जाता है तभी वह दुःख का और कर्म बन्धन का भागी होता है ।

वृत्तियों के साथ अगर जुड़ने का दुर्भाग्य उसका वह मिटा दे तो उसको बाँधने वाली विश्व मे कोई चीज नहीं होती । तो ये हमारी जो चैतन्य सत्ता है वहाँ से फुरने उठते है जैसे सरोवर में लहरें उठती है । ऐसे ही हमारे सद्चिदनन्दघन परमात्मा में से वृत्तियाँ उठती है। वृत्तियाँ आप जड़ है और उनकी दौड़ भी जड़ वस्तुओं के प्रति है । उनमें इतना दम नहीं कि वो चेतन को पकड़ सके । जैसे सांची तपेले को पकड़ेगी लेकिन सांची पकड़ने वाले हाथ को नहीं पकड़ सकती, ऐसे ही हमारी वृत्तियाँ इन्द्रियों के द्वारा बाहर के विषयों को पकड़ती है और वो विषय पैदा हो-हो के मिट जाते है और वृत्तियाँ पैदा हो-हो के मिट जाती है और हम उसमे जुड़कर मिटने की मार खाते रहते है । कभी दुखाकार वृत्ति, कभी शत्रुआकार वृत्ति, कभी कामनाकर वृत्ति, कभी क्रोधाकार वृत्ति, कभी लोभाकार वृत्ति, कभी संशयाकार वृत्ति, ये वृत्तियाँ उठती रहती है बिन जरूरी भी…, तो एकांत में प्रतिदिन 10, 15, 20 मिनट गुजारे, जहाँ कोई दूसरी चेष्टा न हो और वृत्तियों को देखें ।

“यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे” जितना जो तुम्हारे सारे ब्रम्हांड में वो ही तुम्हारे शरीरिक नमूना है, मॉडेल है । तो बाहर के भगवान को कितना भी खोजोगे और बाहर के प्रकृति के रहस्यों को कितना भी बाहर भागते-भागते खोजोगे, तो उतने रहस्य स्पष्टता से आप नहीं जान पाएँगे। जैसे कल्पना करो कि शक्कर का एक बड़ा पहाड़ है, उस पहाड़ को कीड़ी देखने जाना चाहती है, तो कीड़ी चल रही है पहाड पर, लेकिन पहाड़ का आदि अंत कीड़ी के बस का नहीं, कीड़ी जहाँ चल रही है वही अगर चोंच लगा दे, वहीं जरा मुँह लगा दे तो उसे पहाड़ कहाँ है, पता चल जाएगा । शक्कर के पहाड़ का । ऐसे ही हमारी वृत्ति, लोक लोकांतर में युग युगान्तर में हम भटकते आये है । कहीं प्रकृति के पूर्ण रहस्यों का अथवा प्रकृति का जो अधिष्ठान है उसका साक्षात्कार नहीं हुआ, अगर होता तो अभी हम दुःख सुख की थपड़े नहीं खाते, अगर हमें चल जाता ये पता, तो अभी हम जन्म मृत्यु की चक्की में नहीं पिसते ।

तो एकांत में बैठकर अपना ध्यान करो, अपना माना शरीर का, शरीर मे क्या है, जिसको मैं “मैं” बोल रहा हूँ, वह क्या है, बाल मैं हूँ कि दाढ़ी मैं हूँ, हाथ मैं हूँ कि पैर मैं हूँ, नाक मैं हूँ कि थूक मैं हूँ, मैं क्या हूँ ? पता चलेगा कि ये सब केवल वृत्तियों ने थोपा हुआ है “मैं” “मैं”, तो इससे फायदा क्या होगा कि शरीर मे जो अहं है, शरीर के साथ जो तादात्म्य है और ममता है, तो जितनी अपने शरीर मे अहं और ममता होती है उतना ही दूसरी चीजों में और व्यक्तियों में विकार हमारे होते है। जितना आप अपने शरीर से ऊपर उठ जाते है उतना आपका मोह, लोभ, काम विकार शिथिल हो जाते है, उतना ही उन पर आपका अधिकार हो जाता है । जैसे श्रीकृष्ण का अधिकार था, श्रीरामजी का अधिकार था और हम लोग पर इन गुंडों का अधिकार है, इन आतताइयों का अधिकार है, जो जन्मो तक हमको भटकाते आते है और यह रहते है वृत्तियों के सहारे। तो हम अपने अगर वृत्तियाँ उठेगी, तो उठी वृत्तियों को शरीर का अन्वेषण लगाओ कि क्या है, क्या नहीं, जैसे ये दीवाल है, तो मैं दीवाल नहीं, ऐसे ही ये हाथ है, तो मैं हाथ नहीं, ये मन है तो मैं मन नहीं, ये बुद्धि है तो मैं बुद्धि नहीं, ये वृत्ति है तो मैं वृत्ति नहीं हुँ । वृत्ति पैदा होकर चली गयी, विचार आकर चला गया । हम गलती क्या करते है कि विचारों से जुड़ जाते है । मारू धारू थाय.. घर मे क्लेश होता है, विचारों से जुड़ जाते है । ये चीज हमारी है बनी रहे, तो हमारी है ये भी एक वृत्ति है, बनी रहे ये भी एक वृत्ति है, हो जाती है आसक्ति । वृत्ति को जब देखोगे तो “हमारी और बनी रहे” का व्यवहार होते हुए भी भीतर आसक्ति नहीं होगी। अब आसक्ति नहीं होगी तो क्या होगा कि तुम्हारा अपना आत्मा अर्थात जो तुम्हारा वास्तविक “मैंपना” है वो जागृत होगा, पुष्ट होगा ।

दूसरी बात कि एकांत में बैठोगे न तो तुमको अपने दोष दिखेंगे । उस समय कह दो कि हमें अपने दोष दखने का समय नहीं है, अपना गुण दिखेगा । गुण देखने के लिए भी अपना टाइम नहीं है, किसीका दोष या गुण दिखेगा या अपना गुण और दोष दिखेगा, न अपना, न किसीका गुण दोष देखो, अभी तो जो दृष्टि योग से है उसीको देखना है । दूसरे का गुण दिख जाए तो इतना ज्यादा खतरा नहीं, लेकिन दूसरे का दोष दिखेगा, तो चित्त में राग और द्वेष । अभी जो संसार में अशांति की आग लगी है उसका मूल कारण ये है कि आदमी अपना अन्वेषण नहीं करता है, जो जैसा अफवा कर देता है, समझा देता है, भिड़ा देता है, लोग भिड़-भिड़ के परेशान हो रहे है। जरा चलचित्र देख लिया नखरेबाज कोई हीरोइन हीरो का तभी भी मन बहल जाता है, बह जाता है और दूसरा कुछ देखा तो मन बहल जाता है, बह जाता है हमारा अपना कोई स्टैंड नहीं, जैसे सूखा पीपल का पत्ता जिधर की हवा लगे फड़फड़ा के गिरता रहता है, लत्थडता रहता है, ऐसे ही हमारा मन-बुद्धि ऐसे हो गए है।

लोग धार्मिक होने के बाद भी पूरे सन्तुष्ट नहीं मिलेंगे क्योंकि जहाँ गहराई में नींव है उस नींव पर निगाह नहीं है, नींव बनाने का कोई आयोजन नहीं है और ऊपर ऐसे ही बनाये जा रहे है । मकान और वो मकान भी ऐसे जैसे बहती सरिता के किनारे कोई वृक्ष हो, रेतीले तट पर वृक्ष हो और वृक्ष के ऊपर अपना घर बनाओ, जिस वृक्ष की जड़े बहता पानी काट रहा है उस वृक्ष पर तुम्हारा ऊँचा गादी, ऊँचा आसन कब तक रहेगा ? ऊँची मीनार तुम्हारी कब तक रहेगी ? जिस वृक्ष के मूल को नदी का पानी काट रहा है उस वृक्ष पर तुम्हारी ऊँचाई या सुरक्षा कब तक रहेगी ? तो ऐसे ही ये जो देहरूपी वृक्ष है अथवा सम्बन्ध रूपी ऊँचाइयाँ है, ये जिसके आधार पर रहती है उस मूल की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता । इसीलिए जो यश के लिए या और किसी संसारी चीज के लिए धड़ाधड़ी करते है, वो थोड़ी देर पाकर भी फिर उनसे रीते हो जाते है । थोड़ी देर वाहवाही हुई फिर रीते हो जाते है क्योंकि रेतीले नदी तट पर वृक्ष है उस पर अपना कुर्सी या आसन जमाया है ।

अब आएं अपने मूल पर, किसी का दोष चिंतन उस समय ना हो और गुण चिंतन ना हो और अपना गुण दिखे तभी भी ये सोचो कि ये गुण अपना गुण देखने का मेरे पास समय नहीं । अपना गुण दिखेगा तो अहंकार आएगा और दूसरे का गुण दिखेगा तो दोष आएगा । अपना अवगुण देखोगे तब भी विषाद आएगा, मेरे में ये अवगुण है, मेरे में ये कमियाँ है । हकीकत में ये कमियाँ है वृत्तियों में है, ये कमियाँ है अन्तःकरण के फुरने में, मुझमे कोई कमी नहीं वास्तविक रूप से ! लेकिन इस बात का बोध नहीं होता है तो या तो अपने में दोष देखकर आदमी गुलगुला हो जाता है, कुंठित हो जाती है उसकी शक्तियाँ या तो अपने मे गुण देखकर अहंकार का शिकार बन जाता है, दोनों तरफ से मार खाता है । दूसरों में भी गुण दिखते है तो प्रभावित हो जाता है और दोष दिखते है उद्विग्न हो जाता है । तो इसमें आदमी बहता रहता है, खपता रहता है, नास्तिक तो खपता ही है, आस्तिक का चित्त भी, आस्तिक भी बेचारे ऐसे खपे जा रहे है । तो परम् आस्था का जन्म जब तक नहीं होता तब तक आस्तिक को न जाने कितने-कितने थपेड़े सहने पड़ते है और कईं बार उत्थान, आध्यातिमक उत्थान के बाद, थोड़ी भक्ति भाव के बाद फिर गिर जाता है, थोड़ा संयम के बाद फिर गिर जाता है, थोड़ा सदाचार के बाद फिर गिर जाता है, थोड़ा सज्जन होने के बाद फिर गिर जाता है, तो गिरने का मूल कारण क्या है कि हमारी जो वृत्तियाँ है उसको देखने की कला हमारे पास नहीं है। तो वृत्तियों को देखने की अगर कला आ जाये तो अपने नजदीक का अनुसंधान करोगे, तो बाहर का अनुसन्धान सिद्ध हो जायेगा । जैसे अपने पास की चीज, जैसे कीड़ी है न जहाँ खड़ी है वहाँ चख ले तो पूरा पहाड़ शक्कर का है, जहाँ खड़ी है वहाँ चख ले तो पूरा पहाड़ नमक का है, ऐसे ही हमारी वृत्तियों का हम अनुसन्धान करें तो संसार के लोगों की हिलचाल का और प्रकृति की भी लीला का रहस्य खुलने लगेगा ।

अच्छा वह रहस्य खुलने लगे तो रहस्य को देखने में भी वृत्ति न लगाए । एकदम सूक्ष्म, जो सत्पात्र सत्शिष्य है उनके लिए ये उपदेश है, कि एकदम सूक्ष्म वृत्ति हो जाएगी जब वृत्तियों को देखोगे तो अभी जो थोड़ी थोड़ी बात में क्रोध आता है, काम आता है, लोभ आता है, मोह आता है उसका प्रभाव कम हो जाएगा । और प्रतिदिन एकांत में 15-20 मिनट, 10 मिनट देखने का अभ्यास करोगे तो क्या होगा कि उसी अभ्यास के बल से तुम चलते फिरते, खाते-पीते जगत का व्यवहार करते हुए भी तुम अंदर अपने वृत्तियों पर निगरानी रखने में सक्षम होने लगोगे । फल क्या होगा कि जो भी तुम्हारा ऐहिक व्यवहार है वो वृत्तियों से होता है और वृत्तियों पर निगरानी रखने का जब तुम्हारा योग्यता अथवा तुम्हारा मन तैयार हो जायेगा, तुम तैयार हो जाओगे तो उन वृत्तियों को वृत्ति समझकर देखोगे, उनसे काम आदि करोगे तो कर्तापन का कचरा नहीं आएगा । अब कर्तापन का कचरा नहीं आएगा, तो कर्ता करेगा या तो पुण्य करेगा या तो पाप करेगा, या तो अच्छा करेगा या तो बुरा करेगा, तो अच्छा और बुरा करेगा तो या तो सुख भोगेगा स्वर्ग में या तो दुःख भोगेगा नरक में, बाद में तो फिर वो तो खप ही रहा है बेचारा ! जब वृत्तियों को देखोगे, तो अच्छा करने की संमति दोगे, लेकिन अच्छा करा, मैने ये अपने ऊपर ओढ़ने की बेवकूफी को तुम टालने में तुम समर्थ हो जाओगे । बुरा करने में वृत्तियों को सहयोग नहीं दोगे तो बुरा नहीं होगा, तो बुराइयाँ कम होती जाएगी, अच्छाइयाँ बढ़ती जाएगी और अच्छाई बढ़ने का अहं नहीं होगा । परम् पवित्र शुद्ध बुद्ध जो अपना स्वरूप है उसमें टिकने का आसान हो जाएगा।

वृत्तियों को देखने की आदत व्यवहार में भी रखें, बाद में क्या करें कि ये वृत्तियों को देखने की आदत व्यवहार में आ गयी तो अब क्या करें कि और सूक्ष्म देखें कि एक वृत्ति उठती है और दूसरी उठने को है. उसका जो गैप है बीच मे, वो परमात्मा है ! “खुद”, आत्मा है वोही है । एक विचार उठा और दूसरा उठने को है, वो गैप वो परमात्मा है । उस विचार उठने की गैप को फिर बढ़ाने में आप सक्षम होने लगोगे । जितनी गैप बड़ी उतना आप परब्रह्म परमात्मा में टिक जाएँगे । कभी-कभी बैठे है तो श्वास गया वो शीतल है और बाहर आया तो उष्ण (गरम्) तो इन श्वास लेने में और छोड़ने में बीच में जो गैप है वो खाली गैप को बढ़ाया, देखा ! वो परमात्म तत्व है, वो मेरा वास्तविक “मैं” है, वो कृष्ण का मैं है, वो शिव का मैं है, वो ब्रह्माजी का ‘मैं’ है, वो सारे ब्रह्माण्ड का ‘मैं’ वो ही है ।

बिल्कुल स्वस्थ हो जायेगा आदमी । स्वस्थ माना स्व में स्थित हो जायेगा । आदमी जब ध्यान करता है तो उसकी वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म तो होती है लेकिन वृत्ति रहती है, तो वृत्तियों के रहने और भागने में आदमी को इस लोक की या परलोक की अनुभूतियाँ होती है लेकिन अपनी अनुभूति नहीं होती । और अपनी अनुभूति नहीं होती, तब तक उसका काम पूरा नहीं होता है । और हमारे में अपनी वृत्तियों को चिपकने की बुरी आदत है । मन मे जो आ गया । मन में मतलब वो वृत्ति में, उस वृत्ति को पूरा करने में न जाने कितनी प्रार्थनाएँ, कितनी मजूरियाँ करते है, वृत्ति में आया हुआ पूरा हुआ तो दूसरी वृत्ति उठती है कि हाँ देखो मेरा पूरा हो गया । “मैं” क्या हूँ वो ढका ही रहा । “मैं” क्या हुँ ये युगों से ढकते आये है, जैसे लहरों की भीड़ में पानी खो गया । गहनों की भीड़ में सोना खो गया ।ऐसे ही वृत्तियों की भीड़ में हम खो गए ।

अब एक सवाल उठता है कि रात को सो जाते है उस समय तो वृत्तियाँ नहीं होती, उस समय तो हम प्रगट हो जाए नहीं, उस समय मूर्छा सी अवस्था हो जाती है क्योंकि तमस प्रधान, निद्रा तमस प्रधान है उसमें हम लीन हो जाते है । जैसे किसी मिसेस का मिस्टर हो, मिसेस सोती रहे और मिस्टर घर से चले गए, भटकते रहे बाजारों में इधर उधर कईयों के पास, गणिकाओं के पास और रात को जब आये तब मिसेस सो गई, बाद में मिस्टर आये, तो मुलाकातें तो नहीं हुई । ऐसे ही हमारी वृत्तियाँ लीन हो जाती है तो फिर चेतन बैठा रहा, पता कैसे चले ? तो उसको बोलते है आवरण भंग करने की जरूरत रहती है । हमारे और ईश्वर के बीच जो पर्दा है, अज्ञान है, नासमझी है, आवरण है उसको भंग करना पड़ता है ।

जैसे किसी महात्मा के पैर पकड़े कि बाबाजी मैं बहुत गरीब हूँ मेरे लिए कुछ बता दीजिए ? बाबाजी ने कहा :- “:मैं रात को आ रहा था तो चमचम एक चमक रही थी मणि, मेरे को तो कोई जरूरत नहीं इसलिए मैंने उसको फूटे हुए एक ठीकरे से कुंडे से ढक दिया है यहाँ से दो मील दूरी पर फलाने पेड़ के पास में तू जाएगा । अभी तो शाम हो गयी है, जाते-जाते तो अँधेरा हो जाएगा” । उसने लालटेन ले लिया, दो मील दूरी पर गया तो अंधेरे में जाने के लिए लालटेन और रात्रि का समय है डंडा लिया । डंडा लिया, लालटेन लिया और उस महात्मा ने जो जगह बताई वहाँ गया, तो कुंडा मिला, कुंडे से जो मणि ढकी थी चमचम चमक रही थी उसको उसकी चमक नहीं दिखी क्योंकि कुंडे से ढकी थी । अब उसने क्या करा कि जल्दबाजी में डंडा मारा कुंडे को, कुंडा टूट गया तो कुंडा टूट गया तो अब उसको वो चमचम चमकनेवाली मणि देखने के लिए लालटेन की जरूरत नहीं पड़ेगी । लालटेन की जरूरत तब तक पडी थी जब तक वो ढका था । ऐसे ही बुद्धि रूपी डंडा से कुंडा रूपी अज्ञान टूटता है, फिर परमात्मा को देखने के लिए मनः वृत्ति की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि वृत्ति परमात्मा को देखने में सक्षम नहीं है । वृत्ति स्फूर्ति है और स्फुर स्फुर के, वो जड़ है, चेतन की सत्ता से स्फुर के फिर लीन हो जाती है ।

तो वृत्तियाँ बाहर जैसे सांची हाथ को नहीं पकड़ती है, तपेले को ही पकड़ती है, ऐसे ही जहाँ से वृत्तियाँ उठती है वृत्ति परमात्मा को नहीं पकड़ सकती । तो हमारी बड़ी गलती क्या होती है कि जैसे हमारी वृत्ति बाहर की वस्तुओं को पकड़ती है, ऐसे ही हमको कोई भगवान दिख जाए अथवा कुछ मिल जाए । वो ही गलती चालू रहती है इसलिए हम अपने में नहीं आ पाते, कुछ अनुभूति हो जाये, कुछ ये हो जाये, तो ये जो अनुभूतियाँ होती है वो भी आखरी चीज नहीं होती ।

मानो हम ध्यान कर रहे है, ध्यान करते करते हमें प्रकाश दिखा । तो रूप प्रत्याहार जब सिद्ध होगा तो प्रकाश दिखा । अच्छा तो है, कभी निलबिन्दु दिखा अच्छा तो है, स्थूल जगत की अपेक्षा अच्छा है, लेकिन अभी दृश्य है । देखनेवाले को हमने अभी नहीं देखा । झंकार सुनाई पड़ेगा, अनहद नाद सुनाई पड़ेगा । ये अच्छा है, ठीक है लेकिन यहाँ भी वृत्ति है । ऐसे ही हम ध्यान करते है तो हमारी वृत्ति नासाग्र रखते है तो वहाँ धारणा हो जाती है । तो सुगन्ध, खूब सुगन्ध, बढिया सुगन्ध किस्म किस्म की सुगंधे खुशबू पैदा होती है साधना करनेवाले साधक के जीवन में । लेकिन यहाँ भी सुगंध आएगी एक दिन दो दिन पाँच दिन बदलेगी फिर क्या? अपनी खबर नहीं आई, ये जो नहीं साधना करते है और फिर साधना के रास्ते आते है और ऐसी अनुभूति होती है तो वो लोग अपने को बड़ा धन्य धन्य मानते है । साधारण संसारी लोगों की अपेक्षा तो ये बहुत बहुत कुछ अन्वेषण करने जैसी चीजे होती है । फिर भी तात्विक जो ऊँचाई पर पहुँचे हुए महापुरुष है उनकी दृष्टि से अभी हम सोच रहे है, साक्षात्कारी महापुरूषों की दृष्टि से हम सोच रहे है कि कभी रूप दिखेगा, कभी सुगन्ध आएगी, कभी शब्द सुनाई पड़ेंगे लेकिन ये भी वृत्ति का ही खिलवाड होगा । उसमे जगदीश्वर तत्व का साक्षात्कार करने की तत्परता अगर नहीं है, तो आदमी सूक्ष्म जगत में बहल सकता है, रिद्धि सिद्धियों में बहल सकता है, थोड़ा वाहवाही में बहल जाएगा लेकिन एकांत में जब बैठेगा तो वृत्तियों को देखेगा तो फिर वाहवाही के समय वाहवाही का प्रभाव नहीं पड़ेगा । निंदा के समय निन्दा का इतना प्रभाव नहीं पड़ेगा । प्रभाव वृत्तियों में पड़ा है वृत्ति को मैं देखने वाला हुँ, प्रभाव शरीर पर पड़ा है शरीर को मैं देखने वाला हुँ ।

अभी क्या होता है कि शरीर को जो कुछ हो जाता है, अपने को हो जाता है, तो हमारा तादात्म्य हो जाता है, अध्यास हो जाता है । एक होता है अनन्य अध्यास, दूसरा होता है संसर्ग अध्यास, जैसे संसर्ग में हम किसीके संसर्ग में आये तो संसर्ग के साथ इतना तो जुड़ गए कि उसकी खुशी हमारी खुशी हो गयी, उसका दुःख हमारा दुःख हो गया और उसकी मौत हमारी मौत हो गयी । ये मर गया तो हाय रे ! हाय ! मेरा दोस्त मर गया । जैसे कल बताया कि दूसरे भी कूद पड़े । ऐसे हम शरीर के साथ जुड़ गए संसर्ग अध्यास, अनन्य अध्यास से हम शरीर के साथ जुड़ गए ।

हकीकत में हमारा और शरीर का स्वभाव बिल्कुल अलग है और देह का स्वभाव बिल्कुल अलग है । अगर हम और वो एक होते तो शरीर मर जाता तो हम मिट जाते । दूसरा जन्म क्यों लेते ? पुण्य पाप का फल कहाँ भोगे, क्यों भोगे? तो शरीर असत, जड़ और दुःखरूप है । पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा, लेकिन मैं पहले था और बाद में रहूँगा । चाहे फिर नरक में, स्वर्ग में, कहीं भी, तो पहले नहीं था बाद में नहीं रहेगा और मैं पहले था बाद में रहूँगा । शरीर असत, मैं सत, शरीर जड़ रात को सो जाता है तो उसको पता ही नहीं, साँप आके बैठ जाए तो पता नहीं, प्राण तो चलते है लेकिन पता नहीं होता । तो शरीर जड़ और मैं चेतन हूँ । शरीर दुःखरूप है । सुबह से शाम तक इसको खिलाओ, पिलाओ, नहलाओ, घुमाओ ये चाहिए, वो चाहिए, फिर भी देखो तो कभी नाक बहता है, तो कभी गला गड़बड़ करता है, तो कभी पैर दुखते है, तो कभी बुढ़ापे में ये होता है तो फिर अंत में मर जाता है । तो शरीर असत, मैं सत ! शरीर जड़, मैं चेतन ! शरीर दुःखरूप, मैं आनन्दस्वरूप ! ऐसे हाड़, माँस, वात, कफ का मसला उसमें भी हास्य, आनन्द, मजा आता है वो कहाँ से आता है? हड्डी में से आता है या पैर को मजा आता है ? नहीं! ह्रदय में मजा का अनुभव होता है । तो मैं आनन्दस्वरूप हूँ ! ये दुःखरूप है, मैं चैतन्यस्वरूप हूँ ! ये जड़स्वरूप है, मैं सत हूँ ! आद सत जुगात सत और ये पचास साल पहले नहीं था, पचास साल के बाद नहीं रहेगा । जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा और अभी नहीं की तरफ बह रहा है, रोज मौत की तरफ बढ़ रहा है । इसके साथ मैं कब तक जुड़ा रहुँगा? जब शरीर के साथ से अहं ढीला होगा, तो शरीर के सम्बन्धों के मकानों दुकानों के साथ की ममता ढीली होगी । तो अहंता, ममता ढीली होने से तुम्हारी अपनी चेतना, अपना ‘मैं’ पना का प्रभाव विशेष होगा तो तुम्हारा ऐहिक व्यवहार भी बढ़िया होता रहेगा और परमार्थिक प्रीति में तुम जल्दी से सफल हो जाओगे ।

शास्त्र कहते है “ध्यानंमूलं गुरुमूर्ति पूजामूलं गुरूपदम ” शिष्य को जब गुरु ने गुरुदीक्षा दी …

बेटा अब तुम्हारा और मेरा सम्बन्ध शाश्वत हो गया । जब तक तुम मुक्त नही होगे, तबतक मैं तुम्हारे दिल से मुक्त नही हो सकता हूँ । बोले- गुरुजी का शरीर तो देव हो गया, गुरुजी की मूर्ति तो बदल जाती है, गुरुजी की मूर्ति जवान थी, गुरुजी की मूर्ति अब बुढ़ापे की है, गुरुजी का जो मूर्तरूप है वो तो चला जाता है । नही ! गुरुजी जब गुरुतत्व में टिके है । ऐसे गुरु जब दीक्षा देते है, तो शिष्य की वृत्तियों के द्वारा शिष्य के “मैं” तक उनकी निगाह जाती है।

मंत्रमूलं गुरुवाक्यं || ध्यानमूलं गुरुमुर्ति || पूजामूलं गुरुपदम् || मंत्रमूलं गुरुवाक्यं || मोक्षमूलं गुरुकृपा || तो गुरु ने कहा- बेटा मेरी कृपा मोक्ष का तो मूल है लेकिन तू भी कृपा करना कि मेरा भी मोक्ष हो जाए । बोले- गुरुजी आप तो मुक्त है । बोले- बेटे चेलाजी ! मैं मुक्त तो हूँ लेकिन तूने मंत्र लेकर मेरे को अपने मन में बाँध दिया है, अब मेरा ये शरीर नहीं होगा तभी भी गुरु की मूर्ति तो तेरे अन्तःकरण में होगी और तू जल्दी से मुक्त हो जा, तो तेरे अन्तःकरण से मेरी मूर्ति को भी मुक्ति मिल जाए ।

गुरु और शिष्य बाहर की जगत में देखो तो मिलते है और फिर विदाई लेते है तो बिछड़ते है फिर भी गुरु और शिष्य का बिछड़ना वास्तविक नही होता है, स्थूल शरीर से दिखता है, गुरु शिष्य बिछड़ नही सकता । चाहे मायलों की दूरी हो, हजारों लाखों मायलों की दूरी हो अथवा लोक लोकान्तरों की दूरी हो, युग युगांतर की दूरी हो, लेकिन तत्ववेत्ता गुरु और सत्पात्र शिष्य जब तक मुक्त नही होता तब तक । .ईश्वर, कर्म और गुरु पीछा नही छोड़ते है, ईश्वर, कर्म और गुरु साथ नही छोड़ते है । अच्छा ! तो गुरु कहते है बेटा तू जब मुक्त होगा तो मैं मुक्त होऊँगा इसका मतलब तू जब वृत्तियों से मुक्त होगा तो फिर गुरु का काम तूने पूरा कर लिया ।

तो जैसे हम श्वास लेते है शीतल होता है, छोड़ते है उष्ण होता है तो जो छोड़ा है, दूसरा लेना है तो उसके बीच मे थोड़ासा देखे व्यवहार में । काम किया और पूरा हो गया, तो काम करने के पहले आराम था, काम करने के बाद आराम है, तो काम किसलिए कर रहे है? कि हमारी वृत्तियों में राम का आराम प्रगट हो जाए । इसलिए तो काम कर रहे है ।

श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन को :-
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥

जब तू मोह के दलदल को तर जाएगा । वृत्तियों के साथ जुड़े तो मोह से छूट नही सकते और वृत्तियों के साथ जुड़े मोह से नही छुटे तो मुसीबत से नही छूटेंगे । वृत्तियों के साथ जुड़े रहे तो मोह से नही छूटेंगे, देह का मोह, सम्बन्धो का मोह, अपने विचारों का मोह, अपने पदों का मोह ये सब कचरा वृत्तियों में ही रहता है । मैं लोगों से तो बहुत अच्छा काम करता हूँ, व्यवहार करता हूँ, लेकिन न जाने मेरे को लोग परेशान करते है । तुम अपने को जब तक परेशान नही करते हो, तब तक लोग तुमको परेशान कर ही नही सकते । तुम अपने को परेशान करने की जगह पे स्टैंड पे खड़े हो, क्योंकि तुम वृत्तियों में खड़े हो। वो अलग और मैं अलग तो शरीर को मैं मानते हो, उसके शरीर को वो मानते हो और इस शरीर को मैं मानते हो, ये मूल में तो गलती है ।

एक संत थे । उच्च कोटि के । गुरु ने बताया कि सुख दुःख में सम रहना चाहिए और वेदांत का उपदेश साधन भजन था । उस सन्त ने रेलवे स्टेशन में मुसाफिरी करते समय सोचा कि अब थर्ड क्लास में जाकर बैठे । सुख दुःख होता है कि नही जरा देखें । ऐसे तो हम है तो साक्षी, आत्मा है, चैतन्य है, अमर है, फिर दुःख सुख क्यों होता है? तो वो जाकर बैठे रेल्वे ट्रैन थर्ड क्लास में । वैसे तो अच्छे जाने माने साधु थे, लेकिन अनुभव करने के लिए थर्ड क्लास मे भीड़ में बैठ गए, कॉमन डब्बे में, पहले थर्ड क्लास, सेकंड क्लास और फर्स्ट क्लास अभी केवल सेकंड और फर्स्ट क्लास चलता है । तो महाराज ! वहाँ भीड़भाड़ मे तो साधु बैठा तो लोग भीड़भाड़ में लोग धक्का तो दे रहे है, कोई बीड़ी फूँक रहा है, कोई कैसे अनाब शनाब बोल रहा है। हे महाराज ! ऐसा वैसा । तो देखा कि दुःख हो रहा है, गया अपने गुरु के पास गए कि गुरुजी अभी मेरे को दुःख तो होता है अपमान का, हूँ तो मैं चैतन्य साक्षी, अमर, दुःख-सुख से परे हूँ लेकिन फिर भी रेल्वे ट्रेन में बैठा तब अपमान हुआ, तुच्छता व्यवहार किसी ने किया, अयुक्त व्यवहार किया तो मेरे को दुःख हुआ । गुरू ने कहा- भाई ! तुम जब कूड़ा-कचरा के ढेर पर बैठोगे, तो मक्खियाँ वहाँ आएँगी । तुम बैठे थे कि मैं शरीर हूँ और वो तुम्हारे शरीर को देखकर मान अपमान किया, तो शरीर का मान अपमान उन्होंने किया, तो वो भी वृत्तियों में हल्की वृत्तियों में थे और तुम भी “मैं साधु हूँ” । ये भी एक वृत्ति थी और साधु भी तो देह को मानकर हुए तुम जो हो उधर तुम नही गए इसलिए हाड़ माँस के कचरे में तुम बैठे हो तो वहाँ मक्खियाँ भिन भिनाएगी ना ।

जब जब अपमान होता है तो समझो कि आप कचरे में बैठे है । दुःख होता है, चिंता होती है तो आप अपने घर मे नही है, किसी म्युनिसिपेलिटी के ढेर में बैठे है । भाई ! इस प्रकार की अगर समझ आ जाए । मेरा हज्बंड, मेरी मिसेस, मेरा क्या होगा? तुम वृत्तियों के कचरे में बैठे हो । मैं रूपी परमात्मा के नजदीक नही बैठे हो । इसीलिए सारी मुसीबतें आती है । तुम माला भी करते जाते हो, वृत्तियों पर वृत्तियाँ चली जा रही है । तुम मंदिर में भी जा रहे हो, वृत्तियों पर वृत्तियाँ भागी जा रही है । तुम अच्छे काम भी करते जा रहे हो लेकिन अच्छे काम के साथ साथ राग और द्वेष की वृत्तियाँ बनी जा रही है ।

हकीकत में अगर अपना जल्दी कल्याण करना चाहो, तो दोष और गुण । पहले तो गुणों से दोषों को निकाल दो और एकांत में बैठकर “मैं गुणवान हुँ ” इसको भी निकालो । दोष को निकालने से आदमी धर्मात्मा होता है और गुण और दोष दोनों को निकालने से, गुण और दोष दोनों की वृत्तियों को निकालने का अभ्यास करने से आदमी उत्तम साधु होता है और गुण दोष से अपने को पृथक जानने से वो परमात्मा हो जाता है । मन में आए, जो वृत्तियों में आए, वो करने लग जाए, वो मानवी । उनका संयम करने की कोशिश करे । वह देव है, साधक है, लेकिन वृत्तियाँ न उठे वो तो सिद्ध हो जाता है । केवल दो मिनट के लिए अगर ऐसी अवस्था आ जाए। अरे ! एक मिनट के लिए ऐसी अवस्था आ जाए तो 14 भुवनों का सुख उस पर तुम न्योछावर कर सकते हो, ऐसा वो अनुभव है। फिर तुमको भगवान ब्रह्माजी, भगवान शिव, भगवान विष्णु अथवा और कोई देवी देवताओं का मुलाकात अपने से दूर नही भासेगा । उनके और तुम्हारे बीच की दूरी मिट जाएगी । तुम्हारी और ईश्वर की दूरी खत्म हो जाएगी । केवल 1 मिनट वह अनुभव में टिक जाओ |और कहीं भी तुम जाओगे, तो वृत्तियाँ चली रही, तो स्वर्ग में से भी वापस, नरक मे से भी वापस, दो पैर वाले में से वापस, तो चार पैर वाले में से भी वापस । तुम जन्म पर जन्म, जन्म पर जन्म, कसरत पर कसरत, शीर्षासन पे शीर्षासन करते रहोगे । ये उपदेश सत्पात्र सतशिष्यों को ही टिकता है और सतगुरुओं की अनुभूतिवाला उपदेश है, जो शिवजी की अनुभूति है ।

शिवजी कहते है वशिष्ठ को कि हे मुनीश्वर ! सहस्त्र नेत्रधारी इंद्र भी देव नही है और भगवान विष्णु भी देव नही है, तो ब्रह्माजी भी देव नही, मैं भी रुद्र भी देव नही, तुम भी देव नही, मैं भी देव नही । देव तो वह है जो अनामयपद, जो अन्तर्यामी जहाँ से वृत्तियाँ उठती है और मिट जाती है फिर भी जो नही मिटता, वास्तविक तुम्हारा, हमारा, इंद्र का और विष्णु का वास्तविक देवत्व वही देव है । सदा समचित्त रहना यह देव की पूजा है । और तीनों गुणों का जो व्यवहार है, वो उस व्यवहार की सत्यता से अपने को बचाकर उसी देव को अर्पण करना । यही बिल्व पत्र चढ़ाना है । और ये पाँच भूत से जो साधन और वस्तुएँ बनी है, ये शरीर और वस्तुएँ, ये सब की सब उस देव की सत्ता से वृत्तियाँ उठती है और फुरफुराता है, और फिर वृत्तियाँ मिटती है तो मिटता सा लगता है । ऐसा समझना ही मुझ शिव को पंचामृत से स्नान कराना है और व्यवहार काल मे भी बार बार उस देव से जो वृत्तियाँ उठती है । उस देव में रहना, वो ही मेरे आगे धूप और दीप करना है । इस प्रकार की तुम्हारे जैसे बुद्धिमान ऋषिश्वरों के लिए इस प्रकार की पूजा है । बाकी साधारण लोगों के लिए फिर बाहर के बिल्व पत्र, पंचामृत और ये व्यवस्था की है । जो दस कोस नही चल सकते है, उनके लिए एक फर्लांग चलना भी अच्छा है । ऐसे ही जो एकदम सूक्ष्म उस देव की उपासना नही कर सकते है उन लोगों के लिए ये देव की भावना की गई है।

तो इस देव अन्तर्यामी देव की अगर उपासना की जाए, तो महाराज, जैसे बैल गाड़ी वाला पचासो वर्ष बैल गाड़ी लेकर यात्रा करता रहे फिर भी वो दरिया पार की खबरें नही ला सकता है और हवाई जहाज वाला 8-10 घण्टे में दरिया पार के गाँव-टापू पे जाकर आ सकता है। दुबई जाके आ सकता है, लंडन जाके 10 घण्टे में, 12-15 घण्टे में आ सकता है, हवाई जहाज वाला । ऐसे ही उस ये हवाई जहाज जैसी उपासना में वो परमात्मा का अनुभव करके फिर उसकी वृत्ति बाहर आएगी लेकिन वृत्ति में सत्यता नही रहेगी, वृत्ति बाधित हो जाएगी । बाधित कैसे? कि जैसे रस्सी है न उसको जला दिया, उसमें बल तो दिखेंगे, लेकिन वो बाँधने वाली नही होगी । मूंगफली है, उसको सिंगदाणा बना दिया, वो खाने और देखने के काम आएगी, लेकिन दूसरी नई मूंगफली पैदा नही करेगी। ऐसे ही तुम्हारी वृत्ति नए जन्मों को पैदा नही करेगी, इस जन्म में जो लेना देना खाना पीना है वो काम हो गया । सेंकीली सिंग और कच्ची सिंग में जो फर्क है ऐसे ही ज्ञान से तुमने वृत्तियों के आधार को जान लिया एक बार तो सारी वृत्तियाँ तुम्हारी भुन जाएगी|

भुन जाएगी तो जैसे कबीर है लोई के साथ रहते है, रहते है तो रहते है लेकिन जैसे साधारण आदमी रहते है ऐसे कबीर की वृत्ति लोई के प्रति कामासक्त नही हो सकती । और लोई अगर बुद्धिमान है, समझदार है तो कबीर को जैसे साधारण पत्नियाँ पति को अपने शरीर मे फँसाती है और पति अपने पत्नियों को शरीर मे फँसाते है, ऐसा वो कपल नही था कबीर और मिसेस कबीर का । एक बार कबीर के घर कुछ अनजान लोग आए, माता लोई से पूछा कि हमें संत दर्शन करना है, कबीरजी का दर्शन करना है उन्होंने कहा कि वो अभी शमशान में गए है, किसी अर्थी के साथ और पैदल जाना होता, बहुत समय लगेगा, आप दूसरे समय आना । इन्होंने कहा – हमे आज ही दर्शन करना है और जल्दी जाना है । आप बताओ कि शमशान में कबीरजी को हम कैसे पहचाने? बहुत लोग होंगे वहाँ तो। तो लोई ने कह दिया कि उनको पहचानना हो तो एक ही काम करो । हर समय जिसका चेहरा एक जैसा रहता हो वो आपके सन्त है और दूसरे असन्त है। अरे ! अच्छा ! तो जो मुर्दे के साथ जा रहे है उस समय चेहरा एक प्रकार का, जला रहे है तो जिनकी ममता आदि थी, उनके चेहरे में बदलाहट थी । और जब जलाकर निकले तो खाने पीने की इधर उधर की वृत्तियाँ, लेकिन कबीर की वृत्तियाँ वो वृत्तियों को देख रहा है तो वृत्तियों को देख रहा है तो वृत्तियों का प्रभाव चेहरे पर नही पड़ रहा है । समचित्त, शांत ..

ऐसे कबीर को एक बार गोरखनाथ ने पकड़ा रस्ते में कि महाराज ! तुम और इतने पूजे जाते हो । हम फक्कड़ साधु, त्यागी, जति, जोगी और हमारा कोई छिकणी नही लेता है । सन्त कबीर महापुरुष भगवान प्रभु चलो जरा हो जाये दाँव दिखाओ सिद्धाई ! कबीर के हाथ में धागा था, धागे की वो ढ़ेरी होती है । बोले- महाराज ! हम तो कुछ नही जानते है, ताना बुनी करते है बस और कुछ नही । गोरखनाथ ने कहा- नही महाराज ! आप कुछ बताए, ऐसा कहके गोरखनाथ ने अपना त्रिशूल भोंक दिया । जमीन में और योग बल से त्रिशूल पे बैठ गया ऊँचा आसन बनाके । कबीर को बोलता है आओ करो शास्त्रार्थ । कबीर ने कहा मेरे पास तो आसन नही है । बोले महाराज दिखाओ । कबीर ने क्या करा, अपने ढेरे का एक छेड़ा धरती पर ढेरी को ऊपर फेंका, ढेरी खुलती खुलती धागे का एक छेड़ा धरती पर दूसरा छेड़ा आकाश में खड़ा है, कबीर जाके वहाँ खड़े रहे, बोले महाराज आओ त्रिशूल को ऊपर करो । गोरखनाथ ने कहा – चलो छोड़ो दूसरा खेल खेलते है । गंगाजी में स्नान करने चलते है और मैं गोता मारूँगा, रूप बदल दूँगा, कुछ भी करूँगा आप मेरे को खोजेंगे । संता कुकड़ी लिक छुप रांद कन्युं और मैं जल में जाऊँगा, आप खोजेंगे, आप जल में जाएँगे मैं खोजूंगा । मारा गोता । मेंढ़क बन गए ।

कबीरजी ने देखा कि मेंढकों के बीच मे ज्यादा हिलचाल जो कर रहा है न । मेरे पास एक जेब कतरा आया, बोला सत्संग सुनके मैने ये धन्धा बन्द कर दिया, अब मेरे को दीक्षा-वीक्षा मिल जाए ऐसा आप आशीर्वाद करो । मैने कहाँ जरूर मिल जाएगी, लेकिन ये बताओ तुम जेब काँटते हो तो पता कैसे चलता है कि मिलकत उसके पास है जेब में? बोले- वो बार बार जहाँ हाथ जाता है उनका हम समझ जाते है वहाँ माल है । तो नया अदमी ऐसे हवाई जहाज के वो अंदर ऑफीसर आदि कोई आया, तो मेरे को बात-बात में उसको याद आया, बोले- ये सब नए लोग है मैंने कहा तुम अन्तर्यामी तो नही हो? बोले नही बाबाजी जो पहली बार हवाई जहाज में आते है न वो खिड़की खोलते है, ये देखेंगे, वो देखेंगे, ये देखेंगे, वो देखेंगे, वो देखेंगे, वो पट्टा बाँधने का देखेंगे । हम समझ जाते है ये नए ग्राहक है फर्स्ट टाइम आए है । तो जो मेंढ़कों के बीच नया मेंढ़क था, उथल पाथल, फत फत किया,
कबीर जी ने तो आईडिया से ही पकड़ लिया, उठा लिया हाथ में,

उथ जाग जोगीड़ा रांध कन्यु आ लिकछिप लिकछिप रांध कन्युं आओ जल में जोगीड़ा रांध कन्यु तु भी लिक्न्धे माः भी लिकंध्स तुह भी गोल्ह्न्दिस माः भी गोल्हिंदिस । गोरख जल में ढेडर थी वेयडो कबीर तेखें हाथ में खेंयडो उथ जाग जोगीड़ा रांध कन्युं आ लिकछिप लिकछिप रांध कन्युं, रांध कन्युं, रांध कन्युं ।

गोरखनाथ – क्या करें पकड़े गए खड़े हो गए । बोले- अच्छा ! कबीरजी आप मारिए गोता, मैं अब आपको खोजूँगा । कबीर जल में जल थी वेयडो पतो गोरख खे कोन को पेहडो । कबीर जल में जल हो गए अब गोरख कहाँ खोजेगा । इधर से उधर, उधर से इधर, इधर से उधर । आके देखा कि संध्या हो रही है, माई लोई कही श्राप न देदे । हम गए थे, भाई खेलने को ये ऐसा हो गया, ये अभागे जल में तुम्हारे पति खो गए ऐसा करके तुम्बा भर के आ गए” माताजी कबीरजी तो जल में खो गए खेल खेल में खेल समाप्त हो गया।” लोई हँस पड़ी । बोली- हो नही सकता । मेरा पातिव्रत्य धर्म होते हुए, मेरा सुहाग टूटे ? हो नही सकता ” वृत्तियों को देखने वाली रही होगी हो सकता है ऐसी ऊँचाई रही होगी, उस महिला की । पति इतने समर्थ और पति अनुकूल पत्नी । बोले- अच्छा तो फिर ? बोले- माताजी! ये लाया हूँ जल, बोले- “इसकी धार कीजिये” । गोरखनाथ ने ये जल की धार की । कथा कहती है कि कबीर उसमें खड़े हो गए ।

जब सौमरी पचास महल बना सकते है तो कबीर ऐसा भी कर सकते है । कृष्ण सोलह हजार एक सौ आठ रूप बना सकते है । अरे भाई ! आप रात्रि को गंगाजी बनाते है कि नही बनाते है बोलो? स्वप्ने में गंगाजी बनाते है, उसमें मेंढक भी बनाते है, मछलियाँ भी बनाते है, तैरने वाले भी बनाते है और कभी कभी डूब के बहने वाले भी बनाते है न स्वप्ने में । जब तुम्हारा रात्रि का जरासा स्वप्ना इतना कुछ बना सकता है तो जहाँ से वृत्तियाँ उठती है और लीन होती है उसमें जो गहरे टिक गए उनके संकल्प से कभी कुछ बन गया उसको लोग योगसिद्धि कहते है अथवा जिनकी गति नही । वो लोग हुम्बक बात मानते है तो मैं तुमको ये नही कहना चाहता कि तुम कबीर की नाई योगसिद्धि करो अथवा गोरखनाथ की नाई उसपर बैठने का अभ्यास करो । मैं तो केवल ये चाहता हूँ कि गोरखनाथ की सिद्धाई और कबीर की सिद्धाई अथवा दूसरे महापुरुषों की सिद्धाई का मूल कारण जो है वो अभी इस समय तुम्हारे अन्तःकरण चैतन्यस्वरूप परमात्मा में है । वृत्तियों को देखकर थोडासा अपने को बस सावधान ! चैतन्य में आते जाओ बस और जितना-जितना सतशिष्य सद्गुरु के प्रति अहोभाव, आदर भाव करता है उतना-उतना सतगुरु का संप्रेक्षण, सहयोग शिष्य को मिलता है और वह सफल होता जाता है।

निगुरे का नही कोई ठिकाना
चौरासी में आना जाना
यम का बने मेहमान
सुन लो चतुर सुजान
निगुरा नही रहना

तो गुरु का मतलब अचल अथवा तो गुरु शिखर “बड़ा” शिखर छोटी छोटी बात में पत्ता तिनखा बह जाता है पहाड़ नही बहता छोटे-मोटे पानी के बहाव में कंकड़ पत्थर बह जाते है लेकिन वो बड़ा शिखर-पहाड़ वो थोड़े ही बह जाता है दरिया में। ऐसे ही छोटी-मोटी वृत्तियों में जो लोग बह जाते है वो साधारण होते है, तमाम वृत्तियाँ दुखाकार सुखाकर पैदा हुई फिर भी जो अटल खड़ा है उसीको गुरु बोलते है और उसके चिंतन से हमारे में गुरुत्व प्रगट होने लगता है । सुख में सुखी, दुःख में दुःखी वो बिल्कुल फोर्थ क्लास चित्त है । लोहे जैसा वैल्यू । सुख में सुखी, दुःख में भी सुखी जैसा है वो सोने जैसा है, सुख दुःख में सम रहे वो हीरे जैसा है । और सुख दुःख जहाँ से उठते है वो उसी में ठहरा है सुख दुःख का जिस पर प्रभाव ही नही पड़ता वो सम्राट है । सम्राट के अंतर्गत लोहा, सोना, हीरा सब हो जाते है । ऐसे ही सम्राटों का सम्राट पद है । जहाँ सुख और दुःख में समता है वो ठीक है लेकिन सुख दुःख जहाँ असर ही नही कर सकते । सुख दुःख वृत्तियों में होता है । काम भी वृत्ति में आता है, क्रोध भी वृत्ति में आता है और हम लोग जुड़ जाते है सहयोग देते है तो पटके जाते है।

मैंने बिल्कुल अपनी इन आँखों से और इन्ही कानों से, ये दृश्य देखा सुना है, कि पाटण में गुरुजी का कार्यक्रम था और मैं उनकी सेवा में था, जैसे किताबें पढ़ते है न ऐसे मैं किताब पढ़ता था थोड़ा बहुत गुरुजी सत्संग करते थे । फिर जब विदा हुई तो गुरुजी के साथ पाटण से हम मैसाणा पहुँच रहे थे, वहाँ शटल चलता है, तो फर्स्ट क्लास में 3-4 टिकटे ली थी । उसने भक्त ने डॉक्टर शोभ सिंह अभी भी है उसका शरीर तो वो जरा शौकीन है टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ने का अखबार, बोलाकि – बापू अभी तो चन्द्रलोक तक लोग पहुँच गए वहाँ से मिट्टी भी ले आए और वहाँ होटल बनेगा और धनाढ्य आदमी चन्द्रलोक तक जा सकेंगे, बापूजी इन्होंने बड़ा अविष्कार किया है । बापूजी एक क्षण वृत्तियाँ जहाँ से उठती है और लीन हो जाती है उसमें टिके बापूजी ने कहा कि कुछ भी नही थक जाएँगे लाखों करोड़ों डॉलर खर्च के थक जाएँगे कुछ मिलेगा ही नही, चन्द्रलोक पे होटल बनाएँगे । ये हो गया, अरे ! रॉकेट छोड़ना ही भूल जायेंगे । चन्द्रलोक जाना ही भूल जाएँगे । जो बाबाजी ने चालू ट्रेन में एक क्षण में बताया उस बात को समझने के लिए करोड़ों अरबों रुपया अमेरिका और दूसरे देशों को खर्च करना पड़ा । मेरे को लगा कि अगर ऐसे देश इन महापुरुषों का फायदा उठाते तो कितनी जान हानि न बचती, जानमाल धन-दौलत बचता । ये मैं व्यासपीठ पर बोल रहा हूँ और आप लोगों के सामने बोल रहा हूँ, कैसेट भरी जा रही है बिल्कुल अक्षरशः ये बात मैं सत्य बोल रहा हूँ कि उसने वो सब दिखाया रॉकेट के चित्र और कईं दिनों से पढ़ता है और अभी वो आदमी है पाटण में । उस समय मेरे को लगा । बापू बोलते है कुछ नही मिलेगा थक जाएँगे । कुछ है नही ये तो होटल करेंगे और मिट्टी ले आएँगे । ये ले आएंगे करने दो धमाधम करने दो आखिर थक जाएँगे । तो आज हम देख रहे है कभी आती है क्या चन्द्रलोक पर ये कर रहे है, वहाँ नींव खोद रहे है, होटल बनने की तैयारी हो रही है कभी सुना अभी? कईं वर्ष हो गए है इस बात को और जबसे वो चला था वो बात जरासी कि चन्द्रलोक पर रॉकेट गया है वहाँ की मिट्टी मिली है ये ये संभावनाएँ है, वहाँ मनुष्य जीवन की सम्भावनायें है । ऐसी रोज-रोज अखबार में न जाने क्या-क्या आता था तो जो खोजने में, रॉकेटों में, समयों में विज्ञानियों ने आहुतियाँ दी, समय की, देश ने डॉलरों की आहुतियाँ दी । उस बात को समझने के लिए उसका परिणाम खोजने के लिए लीलाशाह बापू को चालू ट्रेन में आधी सेकंड भी नही लगी ।

ये इसलिए बात बता रहा हूँ कि आप अपनी वृत्तियों का अनुसंधान करें । बहुत-बहुत मिलता है और ऐसा मिलता है कि कुछ भी नही मिलेगा, ऐसा मिलता है कि कुछ भी नही मिला है ऐसा अनुभव होगा क्योंकि पहले ही था, केवल लापरवाही थी, पता था वो ऐसा स्वरूप है, ऐसा परमात्मा है जबतक खोजा नही तबतक खोजते समय बोलते है रास्ते में बहुत सारा मिलता है, जब वो स्वयं मिलता है तो पता चलता है कि कुछ भी नही मिला क्योंकि वो मिला मिलाया था, बेवकूफी से हम दूर भागे जा रहे है थे । वो मिला मिलाया था ।

थापिया न जाई, कीतिया न होइ,
आपै आप निरंजन सोई, जिन खोजा तिन पाया मान
नानक गावै गुण निधान

ईश्वर की स्थापना तुम नही कर सकते, उसको बना नही सकते हो । मूर्ति को मंदिर को मस्जिद को बना सकते हो लेकिन वास्तविक परमेश्वर को तुम बना नही सकते हो । अगर परमेश्वर को तुम बना सकते तो तुम्हारा मैन-मेड भगवान कैसा होगा? नही! आप अपनी भावना से भगवान की मूर्ति बना सकते हो लेकिन भावना जहाँ से उठती है वो वृत्ति, वृत्ति जहाँ से उठती है उसको तुम थोड़ा ही बना सकते हो उसीसे सारे ब्रह्मांड बनबन के बिखर जाते है । उसीसे तुम्हारे स्वप्ने के अंदर लीन हो जाते है लेकिन तुम वृत्तियों में खेलते हो तो स्वप्ना जगत सत्य लगता है, फिर जाग्रत की वृत्ति उठती है तो स्वप्ने की वृत्ति खत्म हो जाती है और जाग्रत में मैं फलाना हूँ ये भ्रांति उठती है लेकिन मैं क्या हूँ । वहाँ अभी तक नही पहुँचे ।

एक बार कबीर ने अपने प्यारे मित्रों से प्यारे शिष्यों से बड़ी मजाक की । लोग आए सुबह सत्संग के लिए और कबीरजी छाती पीट के रोने लगे । गुरुजी रोने लगे अब कल्पना करो । आप आये कथा में और मैं सत्संग करते करते रोने लगू, तो कैसा लगेगा? रोने लगे चुप कराया । महाराज ! क्या हुआ? मेरा तो सब चला गया । बाबाजी कह दो । आपको किसने सताया? बोले- क्या सताया ? नकली हो तो असली से बढिया होवे । आखिर बड़ी मुश्किल से लोगों ने चुप कराया। बोले क्या बात है? बोले- मेरे को रात को मैं चिड़िया बन गया था, तुमको क्या बताऊँ ? कि चिड़िया बन गए थे स्वप्ने में । इसमें रोने की क्या बात है गुरुजी? बोले- क्यों न रोऊ? मेरे को अब पता नही कि मैं चिड़िया हूँ कि कबीर हूँ ।

बोले- नही आप कबीर हैं । चिड़िया नही है । बोले ये तुम कैसे कहते हो? चिड़िया के समय तो मैं अपने को चिड़िया ही मानता था और उस समय कबीर नही था, अभी तो कबीर है और चिड़िया की स्मृति है । चिड़िया को कबीर की स्मृति नही थी, अगर स्मृति मैं ही हूँ । इस मान्यता से तुम बोलते हो तो चिड़िया सच्ची, कबीर कच्चे, चिड़िया पक्की, चिड़िया की स्मृति जागृत में रहती है लेकिन कबीर की स्मृति स्वप्ने में नही रहेगी । मैं तो चिड़िया बन गया । बोले- नहीं महाराज ! आप चिड़िया नहीं आप तो कबीरजी है । बोले- कैसे बोलते हो? बोले- हम देख रहे है आप कबीर है । तुम देख रहे हो मैं कबीर हूँ ये कैसे देख रहे हो? तुम जब सो जाओ और तुम देखोगे । ये चिड़िया है तो तुम कबीर कैसे बोलोगे ? तो देखना यही सहारा अगर सच्चा है तो वृत्तियों में न जाने क्या क्या दिखता है । रात को तुम कुछ देख लेते हो राजा देख लेते हो तो राजा नही होते हो । तो अब मैं कबीर हूँ कि चिड़िया हूँ मेरे को पता नही बोले- नही महाराज आप कबीर है बोले कैसे कबीर ? मैं कबीर हूँ, ये भी तो वृत्ति है और मैं चिड़िया हूँ ये भी तो वृत्ति है, मैं कौन हूँ? मुझे पता नहीं कोई बताए । सयाने शिष्य समझ गए कि गुरुदेव रो-धो के भी हमें जगाना चाहते है । चिड़िया का स्वप्ना देखकर भी हमारा स्वप्ना तोड़ना चाहते है कितने दयालु होते होंगे । कितने करूणामय होते होंगे और कितने जगे हुए होंगे । जो वृत्तियों के पार चला जाए न तो आदमी इतना स्वस्वरूप में टिक जाता है कबीर कह सकते है ।

भला होया हरि बिसरयौ सिर से टली बला,
मुख से जपू न कर से जपू उर से जपू न राम
राम सदा हमको जपे हम पावै विश्राम

ये ऐसी अवस्था आ जाएगी । वृत्तियों को देखोगे न तो ऐसी अवस्था आ जाएगी । फिर भगवान को भजना नही पड़ेगा । न मन से, न उर से, न कर से भगवान तुम्हारा भजन करेंगें और सच्ची बात ये है कि भगवान और तुम दो रहोगे भी नही । तुम्हारी और भगवान की दूरी दूर हो जाएगी, अगर दूरी रखना चाहते हो तो जैसी वृत्तियाँ हो वैसा खाओ पीओ, करते रहो कसरत । दूरी दूर करना चाहते हो तो एकांत में बैठो कुछ भी न करो अपने गुण को भी न देखो, दोष को भी न देखो, दूसरे के गुण और दोष को भी न देखो ।

 

अहंकार ही दुखरूप


 

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ये जो कुछ दुःख है दुनिया में, जो कुछ परिश्रम करने के बाद भी परेशानियाँ हैं | सब कुछ पाने के बाद भी खालीपना है, खोखलापन है | सब कुछ पाने के बाद भी करना रह जाता है, बहुत कुछ जानने के बाद भी जानना रह जाता है | बहुत कुछ नाक रगड़ने के बा, ग्राहक को नाक रगड़ो, सेट को रगड़ो, पत्नी को रगड़ो, पतियों को रगड़ो, दुनिया भर की खुशामद करो, जीवन भर न जाने क्या-क्या पापड़ बेलो, फिर भी आदमी दुखों से छूटता नहीं | कुछ न दुःख, कुछ न कुछ चिंता, कुछ न कुछ परेशानियाँ, कुछ ना कुछ किसी से बदला लेना, किसी को दिन के तारे दिखाना, ये सब रह जाता है | सारी जिंदगी झक मार लेते हैं, फिर भी निश्चिंत जीवन, पूर्ण जीवन का अनुभव नहींं होता है | हम चाहते हैं निश्चिंत जीवन । चाहते हैं पूर्ण जीवन, पूर्ण सुख, लेकिन सब कुछ कर करा के भी अंत में | एक मनुष्य प्राणी है जो रोता हुआ जन्मता है, फरियाद करता हुआ जीता है और निराश होकर मर जाता है | कुछ न कुछ उसकी आशाएँ अधूरी रह जाती हैं | और अपने को न चाहते हुए भी लाचार, पराधीन, मोहताज मृत्यु की गोद में ढल जाता है | उसके पीछे क्या कारण है ? दुःख प्रकृति में नहीं है | दुःख परमात्मा में नहीं है | और दुःख हम चाहते नहीं हैं | फिर भी सब कुछ करते-कराते, मरते समय दुःख ही रह जाता है | जीवन में विदेश गये, दुबई गये, पैसे लाये, क्या-क्या किया | अरे टाल के बाल भी घिस गये, फिर भी दुःख नहीं मिटता | वह खोजना पड़ेगा के अब दुःख है किसको और मिटे कैसे ! दुःख आत्मा को नहीं है और दुःख जड़ को पता ही नहीं है | दुःख है शुद्ध, बुद्ध, सच्चिदानंद, चिद् घन, चैतन्य, परमात्मा के चेतना से जो स्फुरणा हुआ, अपनी चेतना का ज्ञान नहीं और स्फुरणा बहिर्मुख हुआ | और बाहर की परिस्थितियों से जुड़कर अपने को मान बैठा, उसी का नाम है अहंकार | अहंकार  ि‍वमुढात्मा, ि‍व उपसर्ग है |  अहंकार से जो विमूढ़ हो गये, ठीक तरह से मुर्ख हो गये, कर्ताअहम इति मन्येत | जो कुछ क्रिया-कलाप हो रहा है, सूरज अपनी जगह पर है, फिर भी उसके अस्तित्व मात्र से सूर्य में कमल खिलता है | पक्षी चहचाहने लगते हैं | वातावरण में जीवनी शक्ति का प्रादुर्भाव और आकाश की आकाशगंगाएँ बहने लगती हैं अपने-अपने माहौल-वातावरण में | सूर्य अपनी जगह पर है फिर भी पृथ्वी के ऊपर, लाखों-करोड़ों माईल दूर होते हुए भी असर पड़ती है | ऐसे ही आत्मदेव अपनी जगह पर है और ये हो रहा है प्रकृति में | आँख में, नाक में, कान में, रक्त वाहिनियों में कर्म हो रहा है | लेकिन बेवकूफी से आँखें देखती है, बोलते हैं मैं देखता हूँ | कान सुनते बोले मैं सुनता हूँ | जीभ खाती-चखती है बोले मैं चखता हूँ | मन सोचता है, बोले मैं सोचता हूँ | बुद्धि निर्णय करती है, बोले मेरा निर्णय है | मैं अग्रवाल हूँ, मैं पंजाबी हूँ, मैं गुजराती हूँ | खोजो, के जहाँ से मैं उठता है वहाँ न अग्रवाल मिलेगा, ना पंजाबी मिलेगा, ना सिंधी मिलेगा | इस मैं में मसला भर दिया | मैं फलाने का पति हूँ, फलाने की पत्नी हूँ | मेरा फलाना मकान है, फलाना एड्रेस है | ये बस ऐसे कम्प्‍युटर में प्रोग्राम सेव करते गये, ऐसे अहम में ये भरते गये | और फिर जब जरूरत पड़े तो फिर निकलता भी है | जितना-जितना इस खोपड़े में, कम्पुटर में सेव किया – हाँ तमे बोल्‍या  था ना ५ वर्ष पहला, तमारा नाम पश्‍या काका  ??? अरे नहीं पश्‍यो भई, अबे काको थयो, हाँ-हाँ माफ़ करना | तो ये सब भरा किस में हैं ? चैतन्य ज्यों का त्यों है, जड़ को पता नहीं, तो चैतन्य और जड़ के बीच जो स्पंदन है, संकल्प-विकल्प आत्मा को हुआ तो मन हो गया | निर्णय आत्मा को हुआ तो बुद्धि हो गया | चिंतनात्‍मक स्‍फुरणा  हुआ तो चित हो गया | अहमात्मक हुआ तो इसी अहम से – अज्ञाने न आवृतं ज्ञानम ते न मोह्यंती जन्तवा | गीता में आता है | अज्ञान से असली ज्ञान ढक गया, और फिर मोहित हो जाते हैं | और मोह सारे व्याधियों का मूल है, सारे जन्म-मरण का मूल है | सारे दुखों का मूल है | सब कुछ कर-कराते हुए भी ये अहंकार जो है ना विमूढ़ता से आदमी को दुखी करता रहता है | तो अहंकार को नाश करने का यत्न करो | इसीलिए भक्ति मार्ग वाले भगवान के आगे दंडवत करते हैं | गुरु भक्त गुरु के आगे झुकते हैं | गणपति वाले गणेश की मूर्ति बनाकर झुकते हैं | ये सब अहँकार को विलय करने के लिए | सूर्य के आगे सूर्य नमस्कार करके झुकते हैं | माता-पिता के आगे झुकते हैं | ये अहँकार को विसर्जित करने के लिए धार्मिक उपासना और कर्म-काण्ड है | लेकिन अहँकार झुकते-झुकते अंदर बन जाता है के मैं देखो माता को प्रणाम करता हूँ, पिता को प्रणाम करता हूँ | नमाज अदा करता हूँ, भगवान के आगे दंडवत करता हूँ | तो फिर अंदर बन जाता है | जेल में जाने का भी अहँकार हो जाता है | नया कैदी आया, ऐ – कितनी सजा हुई है ? बोले ६ महीने की | बोले हूँ वहीँ रहे, वहीँ, बरामदे में बिस्तर लगा | तुझे पता नहीं २० साल वाले हैं फलाने | तू सिखड़ है, क्या है, किसी का हाथ-पैर तोड़ा होगा | ६ महीने की सजा, कल का छोरा | वहीँ, वहीँ – तो अहँकार – जेल भोगने का भी अहंकार ले आता है | नन्हें बच्चे साईकल चलायेंगें तो देखेंगें कोई जान रहा है तो टनिन, टनिन, टा, टनिन, टनिन, – देख रहे हैं क्या खेल करता है | चवन्नी का चोकलेट देखना  ये सब अहँकार है | जबतक ये अहँकार शांत होता है तो बच्चा प्यारा लगता है | ज्यों अहँकार उभरा, जितना जितना अहँकार दृढ़ होता है उतना-उतना फिर वो फीका हो जाता है | बात करने में भी कोई अपना अहँकार दिखाता है तो उसकी बात रसहीन हो जाती है | महापुरुष और भाषण कोई करे, तो भाषण कोई करता है तो किसी विषय को समझाएगा, तो मैं समझा रहा हूँ, ये उसके अंदर में अहम आएगा | तो सामने वाले को शब्द मिलेंगें लेकिन इतना आदर नहीं होगा | और जिसका अहम नहीं है और सामने वाले का मंगल हो तो कैसी भी टूटी-फूटी भाषा में शबरी बोलेगी, मीरा बोलेगी, रहिदासजी बोलेंगें, नानकजी बोलेंगें, लीलाशाहजी बोलेंगें, कोई भी महापुरुष बोलेंगें तो बहुत प्यारा लगेगा, रसमय लगेगा | क्योंकि सीधी वाणी है – अहँकार हट गया – अहँकार विलय हो गया | तो अहँकार को मिटाना है | जब भी दुःख होता है तो समझो अहँकार को है | चिंता होती है तो अहम को होता है | भय होता है तो अहम को होता है | कर्म बंधन होता है तो अहम को ही होता है | आत्मा को कर्म बंधन नहीं होता | कर्ताभाव से जब कर्म करते हैं तो बंधन होता है | नारायण, नारायण, नारायण, नारायण, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ, ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ…….राम राम राम राम राम हरि ॐ, ॐ ॐ | फौजी  हाथ उठाता है तो समर्पित होता है ऐसे ही हम हाथ उठायें तो मानो अहँकार विसर्जन हो, हम भगवान की शरण हैं | हरि ॐ , ॐ……. | दिन में एक-दो बार ऐसा करके, हम भगवान को समर्पित हैं | भगवान को समर्पित होकर अहँकार विलय करना ये भक्ति मार्ग है | ध्यान-भजन करके अहंकार को भगवान में शांत करना ये योग मार्ग है | शिव भक्त बोलेगा शिवजी की पूजा के बिना आनंद नहीं आयेगा शिवजी की पूजा करते-करते थोडा अहम विसर्जित होता है तो बड़ा आनंद आता है | वैष्णव विष्णुजी की पूजा के बाद वो आनंद का एहसास करते हैं | अहँकार थोडा विलय होता है | माता-पिता का भक्त माता-पिता की सेवा करके थोडा अच्छा महसूस करता है | गुरु का भक्त, प्रातःकाल उठिके  रघुनाथा, मात-पिता-गुर नावही माथा | दोनों भाई पग चम्पी करत हैं | कौन कि  राम और लक्ष्मण | अहँकार विसर्जित होता है | राम-लक्ष्मण-जानकी जय बोलो हनुमान की | जहाँ अहँकार विसर्जित होता है वहाँ परमात्म स्वभाव जागृत हो जाता है | तो कुल-मिलाकर अहँकार को मिटाना है | अहँकार में ही द्वेष है, बदला लेने की भावना, लांछन, भय | सब मसाला अहँकार में ही रहता है | इसीलिए अहँकार को मिटाओ तो सब मिट जायेगा | बोले मन नहीं लगता है भगवान में, अरे अपने मैं को लगाओ तो अपने-आप मन लगेगा | जैसे मैं-मैं-मैं बोलते हो, वो मैं कौन हूँ ? ऐसा खोजने से भी वो मैं रूपी अहँकार विलय हो जायेगा | जैसे रस्सी दिख रही है, उसको खोजो, साँप दिख रहा है तो उसको खोजो तो साँप गायब हो जायेगा, रस्सी मिलेगी | ऐसे ही अहम को खोजोगे तो अहम गायब हो जायेगा, परमात्म शांति मिलेगी | आरती – ॐ जय जगदीश हरे, ……….. | …. अहंकार का क्‍या लागे….  तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागत मेरा || जो ध्यावे फल पावे दुःख बिनशे मन का | उस जगदीश्वर को, उस जगत का इश जो चैतन्य परमात्म, ओ उसका चिंतन करने से दुःख बिनशे मन का | सुख सम्म्पति घर आवे, पाप मिटे तन का | उस परमात्मा का चिंतन दुखों को हरने वाला है | चिंतन, भगवान का चिंतन अहँकार की परत को हटाकर गहराई में ले जाता है | इसीलिए भगवान का ध्यान, भगवान की प्रीति…… |

तो कई प्रकार के धर्म, मजहब, पंथ हैं | मुसलमान कहेगा बांग पुकारेंगें, अल्लाह की बंदगी करेंगें | उसको आनंद आएगा, थोडा अहँकार सजदा करने से थोडा शायद उसको अच्छा लगे | शैव शिवजी को प्रार्थना करते हुए – उसको- अहँकार थोडा – अच्छा लगता है | गणपति का पूजा वाला भी, अनजाने में थोडा अहँकार विलय होता है ऐसे ही गुरु भक्त मुक्तानंद स्वामी हो गये | बोले शैव को शिव के पूजन से जो आनंद आता है, वैष्णव को विष्णु के पूजन और ध्यान से | शाक्त को शंकर से, सौर्य को सूर्य भगवान से, गाणपत्‍य को गणपति जी से ऐसे ही मुक्तानंद को अपने गुरुदेव के चिंतन से, ध्यान से, वो ही सच्चिदानंद का सुख मिलता है | तो सच्चिदानंद तो एक है, लेकिन जिसके प्रति तुम्हारा सद्भाव उसके प्रति वो अहँकार की परते हट जाती हैं फायदा होता है | गुरूभक्‍त एकलव्य को हो गया चमत्कारिक फायदा |ध्रुव को हो गया नारदजी से फायदा | गदाधर को हो गया फायदा तोतापुरी गुरु से | नरेंद्र को हो गया फायदा रामकृष्ण से | जिसका जिसके प्रति आस्था होगी, प्रीति होगी और सामने वाला जितना ऊँचा होगा, उतना ही हमारा अहँकार विलय करने में उनकी मदद मिलती है | बड़ा आनंद आता है | मूर्ति में तो भावना करनी पड़ती है भगवान हैं, लेकिन गुरु तो सामने दिखते हैं और उनके अंत:करण का भगवान प्रकट हुआ | तो मैं मेरे गुरूजी को देखते ही आनंदित हो जाता और ज्ञान भी मिलता | इसीलिए बोलते गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा | ब्रह्मा जैसे सृष्टि करते हैं वैसे ही सबका सिंचन करते हैं | विष्णु की नाईं पालन करते हैं सद्भाव का | शिवजी की नाई हमारे अहँकार का संहार करते हैं | गुरु साक्षात पर-ब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नमः || अहँकार को विसर्जित करना है  | अहँकार कई तरीकों से बनता है ऐसे ही विसर्जित भी कई तरीकों से होता है | अौर मैं अहँकार को विसर्जित करूं तो फिर मैं तो बना रहा | वहीं तो अहँकार है | महाराज बोलता है मेरा अहँकार ले लो, मेरा अहँकार ले लो, वो भी विचित्र बात लगती है | कोई आकर बोले मेरा अहँकार ले लो, मेरा अहँकार मार दो, तो भी बात फ़ालतू लगती है | बड़ा सुक्ष्म  है, ज्यों हटाओ त्यों गहरा घुसे, ना हटाओ तो परेशान करे | हटाओ तो गहरा घुसे, ऐसा है ये, इसीलिए गुरु का सान्निध्य चाहिए युक्ति से | काँटे को नहीं निकालो तो मुसीबत करे और थोड़ा सा हिलाओ तो मुसीबत करे | तो क्या करें  ? ……पोटिस बाँधो थोड़ी …. जरा सूजे …. फिर यूं दबोचो तो फटाक निकल जाए ये ऐसा है | बड़ी अटपटी चाल है इस अहँकार को विसर्जित करने में बड़ी अटपटी चाल है | यों तो दंडवत करने वाले करते हैं मंदिरों में | वृंदावन में जाओ तो दंडू, पूरा दंडवत भी नहीं बोलेंगें, दंडू, महाराज दंडू, और दंडवत करते भी हैं | और सरल भी होते हैं लोग, दंडवत करने वाले | अथवा देवी उपासना करते हैं, सरल भी बनते हैं थोडे । कुछ लोग तो मैं सरल हूँ, इस बात का भी अहँकार घुस जाता है | मैं सच बोलता हूँ इस प्रकार कभी अहँकार घुस जाता है |

अरे तुमको क्या बताऊं मैं डीसा में था ना तो साधन-भजन करके लगता था के देखो भई, अपन लोकों को बापू की आज्ञा से सत्संग सुनाते, लेकिन कोई चीज-वस्तु लाता है तो अपन लेते नहीं, बाँट देते हैं | अभी भी अपन घर का खाते हैं | ओ, मैंने कहा, ओऐ-हाेये, घर का खाते हैं, ये भी एक अहँकार है | कान पकड़ा लगाई तपाक | जो कुछ अँगूठी-वंगुठी थी, सामान था, वो वहाँ बेच-बाच के भंडारा कर दिया | हो गये फ्री, अब क्या खाओगे ! भिक्षा माँगने गये | भिक्षा माँगने गये तो जरा जाने में पहले दिन तो बहुत शर्म आवे, संकोच होवे | ११, १२, १ बजा, २ बजे, मैं बोला अब भूख लगी है चलो भिक्षा मांगें | किसी माई के द्वार गये, देखा के रोटी, गर्मा-गर्म फुल्का उतर रहा है | उसको पता नहीं के हम सिंधी जानते हैं | वो सिंधी बाई थी, सिंधी | नारायण हरि | वो बाई ने सुनाई हट्टा-कट्टा टमाटे जैसा लाल, कमाने में जोर आता है | पड़ोस से आटा माँग के आई हूँ, पहला फुल्का देख के खड़ा हो गया | आँखे डाल दी मुये ने, चल, चल, चल | ऐसा सुनाया माई ने लगा के देख अब दुःख किसको होता है ? ऐ… हे… दुःख अहम को होता है | अपमान अहम का होता है, आत्मा का होता है कि  शरीर का होता है | फिर आगे गया तो कोई माई जानकार थी | अरे, अरे ! लीलाशाह बापू का साधक है | दूसरे दिन गये तो कॉलोनी में कोई खीर बना के रखा है, कोई माल पुए, पुड़ी, क्या-क्या | झाँक रहे हैं बस, जैसे कोई दिख गया और सब तैयार हो गये | बाबा इधर-इधर | बाबा माफ़ करो | वो भर दिया करमंडल | वो रास्ते में भिखारी दिखे तो बाँटते-बाँटते अपने हिस्से का लेके, फिर देखा के ये भी झंझट भर गया, छोड़ो | इतने में तो मेरे गुरूजी को लोगों ने समाचार भेजे के साईं आपका साधक है, हम आपके शिष्य हैं | हमारा गुरुभाई रोटी के लिए कालोनी में भीख माँगे, हमारी  इज्ज़त का सवाल है, शरम आती है हमको | हम रोज एक टिफिन भेज देंगें | किसी के घर से भी अथवा तो भिक्षा लेनी है तो कभी किसी के घर से तैयार टिफिन जाएगा | साईं ने उत्तर दिया कि तुम छोड़ो, वो होशियार है और और होशियार बनेगा | उसको जो करता है ठीक है | ये बात फिर मेरे को भक्तों ने बताई, मैंने कहा हश ! अंदर से अहँकार मिटाने के लिए जो करवाता है, भगवान ही है | फिर निकलते कभी-कभी रात को देर से जब जंगल की तरफ निकल जाते के देखें के क्या होता है | हे दारु की भट्टी चले, वो दारु की भट्टी वाला, ऐ बाबा, ऐसा करके गालियाँ बोले | बोले इधर आ, फिर धारिया रखे | धारिया तो लकड़ी पे घुमाओ तो लकड़ी कट जाए, गर्दन क्या होती है ? बोले खेंचुं, ऐसे बड़ी-बड़ी गालीयाँ सुनाये | बोला तेरी मर्जी पूर्ण हो तो उसका धारिया गिर गया । पैरों पड़े | लेकिन उस समय ऐसा नहीं लगा के मैं इतना बड़ा हो गया | मेरे पैरों गिरता है, ऐसा नहीं लगा |  अहँकार हो तो लगे ना | तो ऐसा नहीं लगा ऐसा भी नहीं | भगवान की शांति बनी रही | अगर अहँकार होता तो डर जाते | सफल होते तो अहँकार आता | लेकिन भगवान के ऊपर छोड़कर चल पडे | कभी-कभी मोचियों की बस्ती में चले जाते | शुद्धि-अशुद्धि का, भई ये गंदा है, ऐसा है, वैसा है सब | सुख-दुःख में सम रहते हैं कि नहीं | ऐसा-ऐसा क्या-क्या प्रयोग करते | लेकिन अब पता चला के वो सब करने की जरूरत ही नहीं थी | नये-नये सिखड़ होते हैं ना तो इधर से जाओ, उधर से जाओ, इधर, बस गुरु वशिष्ठ पढ़े और शांत हो गये | मैं कौन हूँ ? जब भी दुःख-सुख आये तो उसको देखें | जब दिखता है तो चैतन्य देखता है | और जो ि‍दखता है, ि‍दखता है माया है | दुःख-सुख अहँकार में होता है | इसको भी जो जानता है, उसकी स्मृति आ जाती है एकदम काम सरल हो जाता है | कुछ लोग पुरानी बातें याद करके दुखी होते रहते हैं | ये अहँकार है | पति ने कुछ कह दिया, पत्नी ने कुछ कह दिया | माता-पिता ने कभी कुछ कह दिया तो पुराना बात ये ऐसा, ये ऐसा, मेरे को तो बड़ा दुःख होता है | जो बीते हुए का दुःख करते हैं वो बहुत-बहुत अपना घाटा करते हैं | बीते हुए को याद करके, मेरा तो बड़ा अपमान हुआ, मेरे को बडी चोट लगी, मेरे को ऐसा लगा, दुखी होते रहते हैं | तो जबभी दुःख आये तो समझ लेना कि अपनी मान्यता, अहँकार ने कोई मान्यता पकड़ी है उसको चोट लगी है | आत्मा में तो दुःख है नहीं | जड़ में भी दुःख नहीं, चेतन में भी दुःख नहीं, तो दुःख कहाँ है ? अहम में है | जबभी दुःख आये या राग-द्वेष होता है तो अहम में ही होता है | ये टांटिया खेंच कार्यक्रम किसमें होता है ? आत्मा में होता है क्या ? अब बधु जे थाये छे आत्मा में होता है ? नहीं | जड़ में होता है, नहीं | तो दुःख प्रकृति में नहीं है, दुःख आत्मा में नहीं है | तो दुःख है अक्स में जिसको बोलते हैं चिदाभास | चिदाभास कैसा, जैसे सूर्य में अँधेरा नहीं, और यहाँ भी अँधेरा नहीं है  | यहाँ कोई पानी की थाली पड़ी है, अथवा आईना पड़ा है तो सूर्य का प्रतिबिंब पड़ा  और प्रतिबिंब से दीवार पर उसका अक्स पड़ा, रिफ्लेक्स पड़ा उसको बोलते हैं चिदाभास | ऐसे ही अंत:करण है, चैतन्य है और उसका अक्स पड़ा बुद्धिवृति पर | ये नाड़ियाँ सूक्ष्म हैं, बुद्धिवृति, तो जैसे भाले की नोक पे चमक हो किसी चीज की | ऐसे ही बुद्धि की वृति में जो अक्स है चैतन्य का उसको बोलते हैं चिदाभास | जैसे इतनी सारी बैटरी है, बल्ब इतना है, कितना है उसका प्रकाश | ऐसे ही बुद्धि वृति पर जो अक्स होता है, उसको चिदाभास बोलते हैं | वो वृति व्याप्ति, एक होती है वृतिव्याप्ति, दूसरा होता है फलव्याप | वृति घटाकार होगी तब घड़ा दिखेगा | अभी ये केबिनाकार वृति बनी, तब केबिन दिखेगी  | केबिन दिखते ही केबिनाकार वृति बन गयी | तो वृति के साथ-साथ चिदाभास चैतन्य है | जैसे बैटरी मारी, कोई चीज दिखी, तो ये प्रकाश है ना | ऐसे ही अपनी वृति में, वृति के अग्र भाग में, जैसे बैटरी के आगे के भाग में प्रकाश होता है | ऐसे ही वृति के अग्रभाग में चैतन्य का चिदाभास, चैतन्य का सत्ता | तो चैतन्य तो भरपूर है लेकिन वृति होती है ना उसके अग्र भाग में उसका अक्स पड़ा | जैसे सूर्य तो सब जगह है लेकिन जहाँ आईना ले जाते हो, तो प्रतिबिंब इधर-उधर घूमता रहता है, अक्स | ऐसे ही वृति कान के तरफ गयी तो सुना, नहीं तो नहीं सुनेगा | वृत्ति किसी की तरफ मन में गयी तो सुना नहीं तो फिर नहीं सुना | तो जहाँ वृत्ति व्‍याप्ति  वहाँ फल व्‍याप्ति होती है | जहाँ-जहाँ वृति व्‍याप्ति होती है वहाँ हूं तो भूली गयो मैं सांभण्‍यों नहीं बरोबर । अरे के सूं करे ध्‍यान राख रे | ध्‍यान राख मने वृत्ति में फल व्‍याप्ति । ऐसा ज्ञान तुम १० साल किताब अपने आप पढ़ते रहो, तो इतना नहीं समझ में आएगा | इसीलिए बोलते हैं ज्ञानदाता गुरु का बड़ा उपकार मानना चाहिए | उनसे गद्दारी करने वाले को बहुत नुकसान होता है | बहुत जन्मों तक नीच योनियों में भटकना पड़ता है | ज्ञानदाता गुरु का जितना उपकार मानो इतना कम है | मैं मेरे गुरुदेव का जितना उपकार मानूं उतना कम है | ये मैं मेरे गुरुदेव के चरणों में बैठकर ही मैं सिखा | किताब पढ़कर नहीं सिखा हूँ ये वृति व्याप्ति है, थल व्याप्ति है, चिदाभास है, अक्स है | तो ये हाँ, दो  प्रकार का अज्ञान होता है इस चैतन्य को  – एक तो होता है – शुरू, शुरू में पढ़ा था, आवरण – अपने आत्मा को ना जानना ये आवरण और दूसरा होता है विक्षेप | शास्त्र से तो जान लिया, परम चैतन्य है, आत्मा है, ये तो जान लिया, फिर भी दुःख नहीं मिटा | तो विक्षेप है – ऊपर से जान लिया वास्तविक में अनुभव नहीं हुआ | तो असत्वापादक आवरण, दो प्रकार के आवरण होते हैं | एक तो ईश्वर के अस्तित्व का पता नहीं | सत्संग सुना तो मान लिया ईश्वर है, सत है, चेतन है, ये मान लिया | असत्वापादक आवरण हट गया, नासमझी हट गयी ईश्वर के विषय में | फिर अभी अनुभव नहीं हुआ | तो अभानापादक आवरण है, मतलब भान नहीं हुआ | मानते तो हैं लेकिन अभी भान नहीं हुआ | तो असत्वापादक आवरण तो शास्त्र ज्ञान से हट जाता है, सत्संग में | अभानापादक आवरण हटाने के लिए थोडा सूक्ष्‍म श्रवण, मनन, नित्याभ्यासन, वेदांत का रास्ता | भक्ति भाव, सेवा, ये उपासना का रंग – निष्काम कर्मयोग – ये कर्मयोग का रास्ता है |

तो लेकिन जो भी करे तत्परता से करे असत्वापादक आवरण तो हट गया, अभानापादक आवरण मिटाने के लिए प्यास जगेगी, भूख जगेगी | अभी भूख है तभी बैठे हैं | राजे महाराजे ये ऐसी बात समझ लेते थे के राज छोड़कर गुरुओं के द्वार पर झाड़ू-बुहारी करते थे | हमने भी बर्तन मांजे, बुहारियां की, ये ऊँची चीज पाने के लिए | है तो साथ में लेकिन उसका भान गुरु कृपा के बिना नहीं हो सकता |

 

धार्मिक तो सब लोग हैं, कोई अल्लाह को मानता है तो वो भी तो धार्मिक हैं बेचारे | ऐसा थोड़े कि  मुसलमान नास्तिक हैं, ऐसा नहीं है | वो भी धार्मिक हैं, आस्तिक हैं | कोई कृष्णजी को माने, कोई रामजी को माने, कोई शिवजी को माने, कोई किसी को माने लेकिन अभानापादक आवरण हट जाए ऐसा कोई सद्गुरु का प्यारा ही जानता है | और कोई कहींं सद्गुरु मिलता है और भूख होती है तब हटता है | सद्गुरु का प्यारा तो हो गया और सद्गुरु भी मिल गया, लेकिन अभी अपना अज्ञान अपने को अभी दुःख नहीं देता है | जहाँ हैं ठीक हैं, चलो दिन बीत रहे हैं तो फिर अभानापादक आवरण नहीं हटेगा | ये सत्संग बार-बार सुनने से पता चलेगा कि अभानापादक आवरण हटना चाहिए, तब हटेगा |

तो मुक्तानंद ने लिखा शैव का सचिदानंद, शैव का आनंद शिव, शिव की पूजा और शिव की भक्ति, वैष्णव का आनंद विष्णु की पूजा और विष्णु की भक्ति | सौर्यवंशियों का आनंद सूर्य की पूजा और सूर्य की भक्ति | गाणपत्‍येां का आनंद गणपति की पूजा और गणपति की भक्ति | ऐसे ही मुक्तानंद का आनंद, हूँ, मुक्तानंद का ईश्वर है नित्यानंद | जैसे शैवों का ईश्वर शिव, वैष्णव का ईश्वर विष्णु, गाणपत्‍येां  का भगवान गणपति ऐसे ही मुक्तानंद का गुरु भगवान है नित्यानंद | मेरा तो शिव ही नित्यानंद, गणपति ही नित्यानंद, मेरे गुरु ही मेरे उपास्य देव हैं | मुक्तानंद की बड़ी ऊँची स्थिति हो गयी | नित्यानंद तो साक्षात् ब्रह्म्वेता संत थे | उनके लिए भी लोगों ने जो कुछ कुप्रचार करना था करते थे | पिछले २००० वर्षों से जभी संत-महात्मा हुए तो उनका डट के कुप्रचार हुआ | उसके पहले थोडा बहुत होता था | फिर भी देखो संस्कृति की रक्षा करने वाले संत होते ही रहते हैं | कुप्रचार होता है फिर भी दूसरे संत भी,  साधक भी संतत्व की तरफ चलते रहते हैं | असत्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण तो ये अहम में हैं | ये आवरण हटे तो अहम हट जायेगा, अहम हटा तो आवरण हट जायेगा | बोले मन नहीं लगता, मन नहीं लगता, खुद कहींं लगे, खुद तो लगे हैं संसार में, मन लगाये भगवान में | कैसे लगेगा ? खुद ही लगे भगवान में | और खुद ही भगवान में लगेगा तो खुद  गायब होता जायेगा | भगवान में लगता जायेगा तो खोता जायेगा | ऐसा नहींं के भगवान में लगे तो अपने कुछ बन जाये, नहीं, अपना मैं मिटता जायेगा, भगवान प्रकट होते जायेंगें | ऐसे नहीं हाथ-पैर वाला भगवान अंदर प्रकट होता है, नहीं | भगवान का सतस्वभाव, भगवान का चेतन स्वभाव, भगवान का आनंद स्वभाव… वो प्रकट होता जायेगा | भगवान थे, भगवान हैं और भगवान रहेंगें | शरीर पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | दुःख पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | सुख पहले नहीं था, अभी है, बाद में नहीं रहेगा | लेकिन इसको जानने वाला पहले था, अभी है, बाद में रहेगा | तो भगवान ही ठोस हैं | लेकिन नासमझी से असत्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण से संसार पहले भी दीखता है, अभी भी है, बाद में रहेगा | ऐसा लगता है लेकिन भगवान क्या पता हैं के नहीं | भगवान ही तीनों काल में हैं लेकिन ये आवरण के कारण लगता है के भगवान कभी कहीं मिलेंगें | कभी मिलेंगें, कहीं पर होंगें | और हम तो हैं, जगत अभी है, पहले था, बाद में रहेगा | नहीं, भगवान ही पहले थे, अभी है, बाद में रहेंगें | जगत पहले नहीं था, शरीर पहले नहीं था, भगवान थे | ये शरीर पहले नहीं था, लेकिन मैं जहाँ से उठता है वो पहले था | ये शरीर मर जाने के बाद भी मैं जहाँ से उठता है वो चेतन रहेगा | तो वास्तव में भगवान ही थे, भगवान ही हैं और भगवान ही रहेंगें | क्योंि‍क असत्वापादक और अभानापादक आवरण की ऐसा लीला है के लगता है के भगवान कहीं दूर हैं | कभी मिलेंगें तो मिलेंगें | भगवान हैं के नहीं ऐसा भी अहँकार बना देता है | कुछ लोग तो ऐसा बोल देते हैं के भगवान की भक्ति की क्या जरूरत है ? अरे ! मनुष्य की माँग का नाम है भगवान | मनुष्य की माँग क्या है ? मैं सदा सुखी रहूँ | सहज में सुखी रहूँ और कभी दुखी ना होउं  | तो जो सदा है, सहज है और निर्दुख है उसी का नाम भगवान है | भगवान की माँग, मनुष्य की माँग ही भगवान है | ये समझ ले के मैं एयर कंडीशन चाहता हूँ, ये झूठी बात है, पत्नी चाहता हूँ झूठी बात है | पत्नी भी सुख के लिए चाहते हैं, एयर कंडीशन भी सुख के लिए चाहते हैं, पति भी सुख के लिए चाहते हैं | और वो सुख नित्य रहे | तो पत्नी का सुख, एयर कंडीशन का सुख नित्य नहीं रहता | जो नित्य है वो तो भगवान ही है | और वो सुख स्वरूप भी  है, चेतन स्वरूप भी है, आनंद स्वरूप भी है और सदा अपने साथ है | पति-पत्नी का शरीर या उनकी अनुकूलता सदा साथ में नहीं रहेगी | लेकिन वो सत, चित, आनंद, परमेश्वर स्वभाव सदा साथ में है | तो उसकी जागृति करना | उसके ऊपर परते गिरी हैं | मैं फलाना हूँ, ये मिल जाये तो सुखी, ये हो जाये तो सुखी, उसमें वो मिट जाते हैं | जैसे पानी के बल से, पानी के बल से ही उस पर काई जमती है, सेवार | और उसमें जो जंतु होते हैं उन में भी पानी का अस्तित्व होता है | और वो काई पे ही घूमते रहते हैं और पानी के मूल का पता नहीं | हालांकि काई में भी पानी है, उनके शरीर में भी पानी है, और काई बनी है पानी पे | तो सब पानी ही पानी है | फिर भी पानी के अस्तित्व को नहीं जानते | ऐसे ही हमारी ये माया रूपी काई है | और उस पर ये जीवात्मा रूपी जंतु है और परमात्मा रूपी जल है | तो माया में भी परमात्मा की चेतना है, पृथ्वी में भी परमात्मा की चेतना है तभी तो पेड़-पौधे उभरते हैं | जड़ में परमात्म चेतना  है तभी तो स्वाद है | अग्नि में, चंद्रमा में परमात्म चेतना  है तभी तो उनका ताप और औषधि पुष्ट करता है | तो भगवान हैं, और भगवान में प्रकृति है और प्रकृति में भी भगवान हैं | और प्रकृति से पैदा हुए उनमें भी भगवान हैं | बोलते हैं वासुदेव सर्वम इति, स: महात्मा सुदुर्लभ | ऐसे ही वासुदेव है सब, सब में बसा है इसी का नाम वासुदेव | चतुर्भुजी नारायण अपने को वासुदेव स्वरूप में जानते हैं इसीलिए वो भगवान वासुदेव हैं | लेकिन केवल चतुर्भुजी वासुदेव नहीं हैं | वो वासुदेव तत्व उनका वासुदेव है | बहुत ऊँची अनुभूति है | शांत | साढे आठ पौने नौ बज जाते हैं और इतने सारे लोग आश्चर्य है | यहाँ भी बाहर बैठे हैं | वहां भी, हॉल के सामने भी बाहर बैठे हैं | हॉल के दाई और भी लोग बाहर बैठे हैं | अब पौने नौ बज गये | और जगह हो रहा है क्या सत्संग आज का | कितने राज्यों में हो रहा है ? कहाँ-कहाँ हो रहा है ? ये सत्संग बड़ा सारगर्भित है | कहाँ-कहाँ हो रहा है ? इस सत्संग को आत्मसात कर लो | अहँकार ही दुखदाई है | अहँकार ही जन्म-मरण में ले जाता है | अहँकार में ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिंता, भय, शोक, सारा झंझट उसी में है | इसीलिए अहँकार को नष्ट करो, ऐसे भगवान वशिष्ठजी अपने प्यारे सतशिष्य, परम योग्य सतशिष्य श्री रामचंद्रजी को कहते हैं | अब रामचंद्रजी को जो ब्रह्मज्ञान मिल रहा है, हम लोग रामचंद्रजी नहीं हैं, फिर भी हमको वो ब्रह्मज्ञान मिल रहा है तो हमारा कितना बड़ा भाग्य है | कितनी बड़ी उन्नति हो रही है | साधो, साधो… | हम भगवान राम नहीं हैं लेकिन भगवान राम को जो दिव्य ज्ञान मिल रहा है वो ही हमको मिल रहा है | हमारे कर्मों की बराबरी कौन कर सकता है | हमारे भाग्य की सरहाना हम क्या करें, कितनी करें | हे रामजी इस अहँकार को ही मिटाओ और रामजी ने तो गुरु के वचन जानकर अहँकार को तो विलय कर दिया तभी तो भगवान राम | श्री रामचंद्र कृपालु भजन मन, हरण भव भय दारुणम | राम, राम, राम | किसी को पुरानी बातें याद आती हो – देखो मेरे से भाई ने ऐसा व्यवहार किया, पत्नी ने ऐसा किया, पति ने ऐसा किया, दुःख की गाँठ बंध गयी हो, तो उस दुःख को मिटाने के लिए कोशिश करोगे तो और मजबूत होगा | भूतकाल की बातें याद आती हैं, दुःख ही दुःख है, मैं भूलने की करती हूँ | मन को कहती हूँ  मुआ भूल लेकिन नहीं भूलता है | जितना मुए को समझाती हूँ उतना ही मुआ नहीं भूलता है | तो कैसे भूलेगा | समझाने वाला मैं है तो भूलेगा कैसे ? इधर मत देखना तो देखेगा | ये मत पढ़ना, तो पढ़ेगा | इनकार भी तो आमन्त्रण देगा ना | भूलने की मत करो, याद भी मत करो | तो क्या करो ? ब्रह्माजी के पास नारदजी गये  के लोग दुखी हैं, भूतकाल की बातें याद करके दुखी हैं | राग-द्वेष में दुखी हैं | सब कुछ छोड़कर लोग जाकर तीर्थ में बैठे और वहाँ के पवित्र वातावरण में जरा सुख-शांति मिले तो वहाँ तीर्थों में भी ढोंगी, पाखंडी लोग भी हैं | और इधर पैसा रखो अथवा पकोड़े खा लो, ये खा लो, चटोरापन भी है | मनुष्य जन्म पाकर भी परमात्मा शांति नहीं है | लोग उससे दूर हैं | पिताजी उनके दुःख को देखकर मैं बड़ा दुखी हूँ | ये संत हृदय है, दुसरे का दुःख मिटाने के लिए द्रवीभूत होता है | तो भगवान ब्रह्माजी अपने सपूत नारदजी का वचन सुनकर द्रवीभूत हो गये | और ब्रह्माजी ने तीन अंजली पानी लिया, ध्यानस्त हो गये | अब ब्रह्माजी को तो अहम कहाँ है, सीधे ब्रह्म में लीन हो गये | ब्रह्माजी के लिए तो घर की खेती थी ना | मैं ब्रह्माजी हूँ और ध्यान करता हूँ ऐसा नहीं होता उनको | जैसे तुम लोग ध्यान करने बैठते हो तो ध्यान करने वाला रहता है | ऐसे ही ब्रह्माजी नहीं रहते हैं के मैं ध्यान कर रहा हूँ | मेरे गुरूजी जब ध्यान कर रहे थे तो ऐसा थोड़े ही सोचते हैं के मैं ध्यान कर रहा हूँ, लीलाशाहजी हूँ | ऐसा नहीं होता, वो तो सीधे निसंकल्‍प, चुप | ब्रह्माजी भी निसंकल्‍प , परमात्मा में शांत हो गये | तो वहां से दिव्य ज्ञान आता है, मधुमय दृष्टि बरसाई | पुत्र ये कलयुग के दोषों से तरने का उपदेश सुन लो | जो उपदेश दिया वो कलितरणोंपनिषद बन गयी | कलियुग से तारने वाली उपनिषद बन गयी | तो आम आदमी को क्या करना चाहिए | बोले कलयुग के दोषों को हरने के लिए हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण, हरे, हरे | हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे, हरे | अब निवाई गौशाला जयपुर वाले भी सुन रहे हैं सत्संग, और सुरत आश्रम के लाले सुन रहे हैं सत्संग | भोपाल के भक्त और भोपाल के साधक सुन रहे हैं सत्संग | लेकिन भोपाल के साधकों का सौभाग्य है कि भोपाल का संचालक कृष्णानी साधू स्वभाव का है | साधू है, साधू | कृष्णानी उनको बोलना, वो उनकी मजाक उड़ाना है | उनको कृष्णानी बोलना उनको गाली देना है | उनको दादा, बाबा बोलना ये भी | वे तो कृष्णानंद हैं | इतने पक्के, निष्ठावान संचालक हैं और ईमानदार के उनको कृष्णानी बोलना समझो उनको हम नहीं पहचानते | ये भोपाल के संचालक कृष्णानंद सुन लें, कृष्णानी नहीं | कृष्णानी मर गये और कृष्णानंद प्रकट हुए हैं | फिर मेरठ वाले भी सुन रहे हैं | टाल-बाल वाले जो भी हैं | बम्बई वाले सुन रहे हैं, दिल्ली वाले, समझी गयो, समझी गयो, दिल्ली के दुलारे | हरि के प्यारे दिल्ली आश्रमों में सुन रहे हैं | ग्वालियर आश्रम में सुन रहे हैं | देवास वाले सुन रहे हैं | और आैरंगावाद सतूर-सतुराई करो, फिर अहमदनगर सुन रहे हैं | आगरा वाले, भावनगर, बरोड़ा वाले भी सुन रहे हैं | मेघजी भाई संचालक भी सुनते होंगें उनके साथ | पूना के प्यारे भी सुन रहे हैं और नागपुर के नारायण भी सुन रहे हैं और जयपुर के जुपिटर भी सुन रहे हैं | हांगकांग वाले भी सुन रहे हैं | अमेरिका में शिकागो वाले भी सुन रहे हैं तो मैं आज सोचा के देर हो गयी है, के थोडा काम था, आज काम पे नहीं जाऊं तो चला लेंगें | उधर वो प्रोजेक्टर पर सुनते होंगें | मैं सोचा नहीं जाऊं फिर लगा के चलो जाके आये | ये तो अच्छा हुआ के मैं आया | तो इतने देशों में, परदेश में लोगों को सत्संग मिल गया | साधो, साधो, साधो, साधो | तो ये जो भी सुनते हैं चाहे अमेरिका वाले सुन रहे हैं, चाहे हिंदुस्तान वाले सुन रहे हैं चाहे हांगकांग वाले | सचमुच, आप सचमुच कितने भाग्यशाली हो उसको तोलने वाली तराजू ब्रह्माजी की बनी नहीं | और बन भी जाए तो टूट जाएगी | इतना पूण्य लाभ होता है वो तोल नहीं सकते | साधो, साधो | मैं जानता हूँ के हांगकांग वाले, भोपाल वाले, कृष्णानंद महाराज, अब मैं कृष्णानंद जी बोलूँगा | प्रमोशन हो गया भोपाल के कृष्णानंद का | नहीं हुआ ! कृष्णानंद के पूण्य, कृष्णानी के पूण्य से कृष्णानी के बच्चे इतने ऊँचे पद पे पहुँचे | कृष्णानी के ही पूण्य प्रभाव से, नहीं तो, संभव ही नहीं है, संभव ही नहीं है | सांईं के घर तक पहुँचना संभव ही नहीं है | लेकिन कृष्णानी के पूण्य ने परिवार को चमका दिया | वफादार शिष्य, सच्चा, वफादार सतशिष्य | ऐसे कई हैं माई के लाल, एक-एक के नाम लेने की कोई जरूरत नहीं है | सब अपनी-अपनी जगह पर, जितना जो वफादार उतना उसका असत्वापादक आवरण गायब, अभानापादक आवरण काफी कम हो जायेगा और अपने आप में तृप्त रहेगा | कृष्णानी ने कभी नहीं कहा मेरे को छुट्टी दो | मैं इधर जाऊं घुमने को, इधर जाऊं यात्रा करने को | ऊँ-हूँ, बस लगे तो लगे, अपने आप में ही तृप्त | ऐसी बात है | जिनको गुरु में दृढ़ श्रद्धा होती है उनको देश-परदेश इधर-उधर जाकर सुख लेने की जरूरत नहीं पड़ती | वो तो जो सेवा कार्य, अभी बिहार में और कोई संस्थाएं नहीं पहुँची हैं  लेकिन हमारी समिति वालों ने शुरू कर दिया है | कार्य चालू हो गया | भोजन बनता है, और लंगर चलता है | जो आये खाए लेकिन सब्जी-वब्जी मिलती नीहीं बेचारों को | थोडा बहुत आलू-वालू डाल के खिचड़ी-विचडी बनाके, मैंने कहा जीरा-वीरा डाल के थोड़ा बढ़िया बना के खिलाओ | फलानी जगह चालू है भंडारा, लंगर, फलानी जगह चालू है | दूसरा सामन भी भेज रहे हैं | दवाइयों की लिस्ट भी बनी हैं, वो ट्रेन में जायेगी दवाई | मोबाइल वैन भी जाने को हमने बोल दिया है, जाए | तो सेवा हो रही है तो अच्छी बात है | हम चाहते हैं के हम भी चले जाएँ बिहार | लेकिन जाउँगा तो लोग फिर आगे-पीछे | देखता हूँ कैसा जमता है | बिहारी लोगों को भी वहाँ सत्संग मिलता रहे ऐसा प्रोजेक्टर-व्रोजेक्टर बोल देना चालू करें और उनको सांत्वना दें | बर्तन-वर्तन भी खरीदे जा रहे हैं, कपड़े, बर्तन ये-वो सब | नारायण, नारायण, नारायण, नारायण…… |

कुल-मिलाकर अहँकार को नष्ट करो | और ज्यों नष्ट करोगे त्यों लड़ेगा | ज्यों बंदर को, लो बेटा ये मंत्र करो, लेकिन बंदर को याद मत करना | बंदर याद ना आये तो याद ही आएगा | हद हो गयी, बंदर जाता ही नहीं, आँखों से ओझल ही नहीं होता | रात भर यूँ आँखे, करवट ले तो भी बंदर दिखे | सुबह गया गुरूजी को बोला, गुरूजी ये क्या क्या आपने कह दिया ये मंत्र देता हूँ | मंत्र जपना और बंदर को याद मत करना | अब तो बंदर ही बंदर हो गया है | मंत्र तो गौण हो गया है, बंदर ही ि‍दखता हैए हरामजादा  | गुरूजी ये कैसे बंदर दे दिया ? बोले बस, बंदर को याद नहीं करना ये मैंने दिया तो आया बंदर | तो हम जो नहीं चाहते वही हो जायेगा फिर | तो चाहने से भी होता है, ना चाहने से भी होता है | आप कुछ मिटाना चाहते हो तो भी गहरा होते हो क्योंकि आप सत्ताधीश है | तो क्या उपाय है, उपेक्षा | आप बैठे हैं, ये विचार आये, तो ये विचार नहीं आये, तो भी आयेंगें | और ये विचार आयें ऐसे करते रहोगे तो भी विघ्न होगा | इस विचारों को महत्व ही नहीं दो | सब शांति, विचार आये, गये | उसको जानने वाला चैतन्य प्रभु मेरा, मैं प्रभु का | ॐ आनंद, ॐ शांति, फिर दीर्घ प्रणव, फिर चुप | मंत्र जाप के बाद, जो भी अनुष्ठान करती हैं बच्चियाँ, महिला आश्रम में, बच्चे इधर | तो कभी-कभी श्‍वांस को देखे | अभी ये अहँकार में आया | ये अहँकार है के नहीं, इसको जो जानता है वो कौन है | तो ऐसे करके शांत हो जाओगे तो अहँकार की परतें ढीली हो जाएँगी | ईश्वर में आ जाओगे, अनजाने में ही | अये होये होये… साधो, साधो | ब्रह्माजी के पास तराजू नहीं बनी अभी कितना पूण्य हुआ | हुआ है ? पूण्य होता है ? ज्ञान बढ़ रहा है ? भक्ति बढ़ रही है ?

हाँजी – ठीक है |

 

ये तीन होते-होते रसोड़े में | ये  एक… दो… तीन में तो रसोड़े में | एक.. दो.. अढ़ाई, दौड़ो-दौड़ो-दौड़ो | जा ख्ख्म-खखैया खा-खा-खा | 

हम सर्वस्व लगाकर भी इस संस्कृति का फायदा विश्व-मानव तक पहुँचायेंगे-पूज्य बापू जी


सनातन धर्म की स्थापना किन्हीं ऋषि-मुनि या पीर-पैगम्बर ने नहीं की बल्कि श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसी विभूतियाँ सनातन धर्म में प्रकट हुई हैं। सनातन धर्म तो उनके पूर्व भी था।

यह धर्म कहता हैः सङ्गच्छद्वं…. हम सब कदम-से-कदम मिलाकर चलें। सं वदध्वं…. हम दिल से दिल, विचार से विचार मिलाकर चलें। अगर हमारे विचार नहीं मिलते हैं तो हमें स्वतंत्र विचार रखने का अधिकार  है, सामने वाले को भी है। क्यों लड़ मरें, क्यों खप मरें ? परस्परदेवो भव। तुममें मुझमें जो चैतन्य देव है, उसके नाते हमारा मिलना जुलना हो और उसी में हम सभी विश्रांति पायें।

गीता उपनिषदों से निकला अमृत है और उपनिषदें वेदों के उभरा अमृत है। इसलिए हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी – कोई भी गीता को तटस्थता से पढ़ता है तो सिर-आँखों लगाता है, चाहे महात्मा थोरो हो, चाहे अमेरिका का तत्त्वचिंतक एमर्सन हो, जिन्होंने भी गीता, उपनिषदों का अध्ययन किया है उन्होंने भारतीय संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है।।

हाँ, फिर भी पराये दिखते हैं। गंगा का कोई घाट ऋषिकेश का है तो कोई हरिद्वार का है… घाट भिन्न-भिन्न हैं, गंगा तो वही की वही। सागर के किनारे भिन्न भिन्न हैं, सागर वही का वही। जैसे सागर में सतह पर लहरें, बुलबुले भिन्न भिन्न होते हुए भी गहराई में केवल शांत जल है, ऐसे ही सबके मन की तरंगें, भाव और मान्यताएँ भिन्न भिन्न हैं पर गहराई में केवल शांत, सच्चिदानंद परब्रह्म परमात्मा है। उसमें विश्रांति पाना ही आगे बढ़ना है।

समाज आत्मज्ञान से जितना दूर जाता है उतना ही कलह, अशांति, संघर्ष और आपसी वैमनस्य बढ़ता जाता है, जिससे शक्तियों का ह्रास होता है। सजातीय में समझौता होने पर विजातीय पर विजय पाने का सामर्थ्य जुटता है। विजातीय से धर्मयुक्त व्यवहार करने से प्रकृति कि सिद्धियों पर आसक्त न होकर प्रकृति के मूल के प्रति प्रेम करने से परब्रह्म-परमात्मा प्रकट होता है और जीवात्मा परमात्मा का साक्षात्कार करके परब्रह्ममय हो जाता है।

सनातन भारतीय संस्कृति संसार में सत्य की, परमात्मा की राह दिखाने वाली संस्कृति है। हमारे देश की संस्कृति या इष्टदेव के लिए कोई कुछ बोल दे और हम ‘हीं हीं’…. कर दें, चुप रहें….. नहीं ! हमारी अपनी जहाँ तक योग्यता है वहाँ तक पूरा तन-मन, जीवन को लगाकर भी इस संस्कृति की महानता का विश्व मानव को फायदा मिले ऐसा हमें यत्न करना चाहिए और हम करेंगे। ॐ…ॐ….ॐ…..

सबका मंगल सबका भला।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 11 अंक 300

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