संत संग से सधते हैं सब योग-पूज्य बापू जी

संत संग से सधते हैं सब योग-पूज्य बापू जी


सत्पुरुषों का सान्निध्य बड़े भाग्य से मिलता है। कद्र करें न, तो तर जायें। कद्र तो करते हैं लेकिन फिर महापुरुषों से मनचाहा कराना चाहते हैं। मनचाहा नहीं कराना चाहिए, उनके अनुभव में, मार्गदर्शन में स्वयं चलने को तैयार होना चाहिए। मन तो अपने कोई कई जन्मों से भटका रहा है। उसके अनुसार हो तब सुखी होना-इसमें तो कुत्ता भी राज़ी हो जाता है, इसमें क्या बड़ी बात है ! सात साल (डीसा निवास के दौरान) कैसा-कैसा हमारे मन के विपरीत हुआ तब भी हम डटे रहे। ….तो मन से पार होना है न !

संतों के संग से कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग – तीनों योग हो जाते हैं। संतों के चरणों में रहने से सेवा मिल जायेगी… कर्मयोग हो गया, संतों के प्रति सद्भाव होगा… भक्तियोग हो गया और संतों के पास रहेंगे तो सत्संग स्वाभाविक, मुफ्त में मिल जाता है…. ज्ञानयोग हो गया।

साचा संतोने1 वंदन प्रेमथी रे2 …।

3 तो जगमां4 चालता5 छे भगवान।।

  1. संत को 2. प्रेम से 3. ये 4. जग में 5. चलते फिरते

भगवान का साकार रूप संत ही होते हैं। निराकार ब्रह्म तो नित्य विद्यमान है लेकिन उसे देखना हो तो वह संतों के रूप में होता है।

श्री योगवासिष्ठ में वसिष्ठ जी महाराज कहते हैं- “हे राम जी ! जो संतजनों का संग करता है, सत्शास्त्र और ब्रह्मविद्या को बारम्बार विचारता है, उसकी बुद्धि संतजनों के संग से बढ़ती जाती है। जैसे शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला दिन-प्रतिदिन बढ़ती है, वैसे ही उसकी बुद्धि बढ़ती है और विषयों से उपरत होती है।

संतों के वचनों का निषेध करना मुक्तिफल का नाश करने वाला और अहंतारूपी पिशाच को उपजाने वाला है। इसलिए संतों की शरण में जाओ और अहंता को दूर करो।”

संतों की बात काटना, उनमें दोष देखना, उनके संकेत को अन्यथा लेना मुक्तिफल और पुण्यों का नाश कर देता है और उनके वचनों का आदर सदगति देने वाला है। इसलिए ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण जाओ, अहंता दूर करो। देह में अहं है और वस्तुओं में मम (मेरा पन) है। अहंता दूर हुई तो ममता हट जायेगी।

मैं अरु मोर तोर की माया।

शरीर को मैं और चीज वस्तुओं को मेरा मानता है…. असली मैं से दूर हो गया। असली मैं की तरफ आना है तो थोड़ा समय एकांत में जा के असली मैं में चले गये। एक बार असली मैं को जान लिया तो फिर नकली मैं का व्यवहार चलेगा, कोई फर्क नहीं पड़ता। संत संग करते-करते पहले की हल्की बुद्धि हटती है, दिव्य बुद्धि बनती जाती है। जैसे लौकिक विद्या से अनजान विद्यार्थी पढ़ाई करते-करते स्नातक हो जाता है, ऐसे ही अध्यात्म-विद्या में भी है।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा….. पहले व्यक्ति आत्मवेत्ता महापुरुषों से वेदांत ज्ञान सुनता है, उसका विचार करता है फिर ध्यान करता है, सत्कर्म करता है। धीरे-धीरे वह ज्ञान अनुभव में आता है तो विज्ञान (आत्मानुभव) बन जाता है और फिर आत्मतृप्ति होने लगती है। हर लाख लोगों में एक पुरुष भी आत्मतृप्त हो जाय तो संसार 5 मिनट में स्वर्ग हो जाय। जो दिव्य संस्कार लाख-दो लाख में नहीं मिलते है, करोड़ों में नहीं मिलते हैं, वे दिव्य संस्कार देते हैं आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष। जो लोग ऐसे महापुरुषों से वह ज्ञान पाते हैं उनके कुटुम्ब का, खानदान का तथा वातावरण व समाज का कितना भला होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 25 अंक 300

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