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गुरुसेवा हि केवलं


शुद्ध प्रेम इसको बोलते हैं | प्रीति रसमय होती है | प्रीति का क्रियारूप सेवा है | जैसे ठाकुरजी की सेवा करते है तो प्रीति है तब सेवा करते है और सेवा करते है तो प्रीति बढती है | वैसे ही ठाकुरजी जब मूर्ति में है तो उनको नहलाना, खिलाना ये सेवा हो जाती है और ठाकुरजी प्रत्यक्ष है तो फिर प्रत्यक्ष सेवा |  परमात्मा कहो अथवा प्रेम कहो |  प्रेम ही परमात्मा है, परमात्मा ही प्रेमस्वरुप आनंदस्वरुप | “राम ही केवल प्रेम प्यारा, जान ले कोई जाननहारा” |  रोम रोम मैं रम रहा है वो प्रेमस्वरुप है प्रेम का प्यारा है और प्रेमदाता भी है | तो प्रीति का साकाररूप क्रिया, क्रियारूप जिसके प्रति प्रीति है, उसकी सेवा किये बिना नहीं रहा जाता और जिसके प्रति सेवा होती है उसके प्रति प्रीति प्रकटती है तो सेवा का फल प्रीति है और प्रीति का प्रारम्भ सेवा है | जो भी भगवान से गुरू से (गुरू कहो, भगवान कहो, एक ही आत्मा कहो) जुड़ना चाहते है, उन्हें सेवा द्वारा ही जुड़ना होता है और उसका फल है उनको नित्य सुख की प्राप्ति और नित्य तो आत्मा ही है और सुखरूप | वही इष्ट है वही गुरू है |

तो नित्य सुख की प्राप्ति, नित्य जीवन की प्राप्ति के लिए बीच में अडचन आती है  गलती, तो की हुई गलती फिरसे ना दोहराए, अपना विवेक सजाग रखें | दूसरी बात होती है कि सेवक को अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा कुछ नहीं है, जो कुछ है मेरा इष्ट का है इष्ट के लिए है | तो ऐसा सेवक सेव्य को, जैसे सांदीपक वेदधर्मं की सेवा में लग गया तो भगवान शिव बिन बुलाये आये, भगवान नारायण का दर्शन बिना बुलाये हुआ | जो सेवा करता है उसको स्वामी सहज में मिलता है और सेवा में मांग नहीं होती, सेवा में स्वार्थ नहीं होता | सेवा स्नेह से जुडी होती है |

तो सेवा करनेवाले में अपने अधिकार की परवाह नहीं होती, अगर प्रीति है, सेवा है तो अधिकार उसका दास है | अधिकार और सुविधाएँ तो उसकी दासी हो जाए | जैसे सेठ की प्रेम से कोई सेवा करता है तो सेठ की सेवा करने के लिए उसको सेठ के बंगले में रहने को नहीं मिलता | सेठ की सेवा करने वाले को क्या सेठ की तरह गाड़ी में बैठने को नहीं मिलता | तो ऐसे ही सेठो का सेठ भगवान है गुरू तत्व है तो उनकी प्रसन्नता के लिए, उनकी प्रीति प्राप्ति के लिए, जब सेवा की जाती है तो वो सेवा करनेवाले को अपना स्वार्थ नहीं होता | मेरा कुछ है नहीं और मुझे कुछ चाहिये नहीं तो ऐसा जो सेवक है वो प्रीतिपूर्वक उसकी सेवा होती है | सेवा में जब चाह होती है, स्वार्थ होता है तो सेवा नौकरी बन जाती है | वैसे तो कई नौकर काम करते है, पर वो सेवा नहीं गिना जाता है | कई लोग झाड़ू लगाते है, लेकिन सब शबरी नहीं होते, तो शबरी की प्रीति थी मतंग ऋषि के चरणों में तो उसका झाड़ू लगाना भी सेवा हो गया |

तो जिसके प्रति प्रीति होती है उसका कार्य करने में आनंद होता है |  तो प्रीति का साकाररूप है सेवा और सेवा करते-करते सेव्य इतना बलवान हो जाता है कि सेवा का बदला नहीं चाहता अपितु  फिर भी बदला उसको ढूंढ निकालता है | उसके चित्त की शांति, आनन्द, विवेक, सेवक का तीव्र विवेक ये है कि सेवा करते समय भूल जो हो तो दिखेगी भूल, भूल को भूल जानकर दुबारा भूल ना हो उसमे सावधान हो जायेगा तो उसकी कार्य करने की योग्यता भी बढ़ जाती है | सेवा करते-करते सेवक स्वयं स्वामी बन जाता है, इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है, मन का स्वामी बन जाता है, बुद्धि का स्वामी बन जाता है | अपने शरीर को, मन को, इन्द्रियों को, मैं मानने की गलती उसकी निकल जाती है | मन, इन्द्रियों और शरीर में रहते हुए, मन, इन्द्रियों और शरीर से पार हो जाता है |  फिर चाहे शबरी भीलन हो, चाहे एकलव्य जैसा व्यक्ति हो, चाहे सांदीपक हो, चाहे मछन्दरनाथ के शिष्य गोरखनाथ हो, तो भी गुरू की बहुत सेवा की है | तोटकाचार्य ने भी शंकराचार्य की खूब सेवा किया और महान हुआ | पुरनपुडा भी सेवा से ही महान पद को प्राप्त हुआ, प्रीति में कमी होगी तो सेवा में भूल होगी | आजकल किताबी ज्ञान तो बहुत बढ़ गया |

पहले के जमाने में लोग इतना किताबी ज्ञान नहीं भरते थे खोपड़ी में, सेवा से अपनी प्रीति को जगाते थे और प्रीति जब हृदय में दृढ़ होने लगती है, तो “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते” जो मुझे प्रीतिपूर्वक भजता है उसे बुद्धियोग मिलता है | ये भगवान भी कहते है गीता में |  “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते” | भजताम प्रितिपुर्वकम ददामि | जो मुझे प्रीतिपूर्वक भजता है उसे बुद्धियोग सहज में प्राप्त हो जाता है | किताब पढ़ने से बुद्धिवान होगा, किताबी ज्ञान पचाकर व्यवहार में सुविधाये लायेगा, वो बुद्धिजीवी होगा, लेकिन बुद्धियोगी तो सबसे ऊँचा है, महान से महान होता है | बुद्धियोगी वही होता है जो प्रीतिपूर्वक भजता है, प्रेमास्पद को तो प्रेम का आरम्भ है, निष्काम सेवा, सत्कर्म, सेवा प्रेम का आरम्भ है और प्रेम प्रीति, सेवा का फल है | फिर सेव्य और सेवक दो दिखते है, जैसे कई कमरे में दो दिये हैं, दो दीपक दिखते हैं,  किन्तु प्रकाश तो दोनों का एक है, ये नहीं कह सकते की सेवक दिये का प्रकाश फलाना और स्वामी दिये का फलाना |  दो दीयों का प्रकाश एक हो जाता है | ऐसे ही सेवक और स्वामी की प्रीति तदाकार्ता को प्राप्त हो जाती है, तो ये व्यवहार में अगर ईश्वर प्राप्ति के दर्शन करने हो तो सेवा ईश्वर प्राप्ति का आरम्भ है और ह्रदय की शीतलता, प्रसन्नता ईश्वर प्राप्ति की निशानी है |  तो सेवा में ये शक्ति है कि ह्रदय शुद्ध कर दे, सेवा में ये शक्ति है कि सेव्य को प्रसन्न कर दे, सेवा में ये शक्ति है कि सुख की वासना मिटा दे, विकारी सुख की वासना मिटा दे, सेवा में ये शक्ति है कि दुःख में निर्लेप कर दे और सुख में निर्लेप कर दे | सेवा में ये शक्ति है कि स्वामी के सद्गुण भर दे | सेवा में ये शक्ति है कि स्वामी का अनुभव अपना अनुभव हो जाता है, स्वामी का स्वरुप अपनास्वरुप बन जाता है | सेवा में ये शक्ति है |

“सबते सेवा धर्म कठोरा”, सेवा धर्म कठोर तो है लेकिन फल भी उसका, ऐसा बढ़िया से बढ़िया | सेवक बने सुख चाहे,  सेवक सुख नहीं चाहता, चलो सेवा पाके कोई सुख का साधन ले लूँ, कोई वस्तु ले लूँ, वो तो नौकर है |  सेवक को तो सेवा में ही आनंद आता है |  सेवक को जो सुख मिलता है वो ह्रदय का सुख मिलता है और पगारदार या सेठ को धंधा करने या नौकरी करने से जो सुख मिलता है वो विषयो का सुख मिलता है, तो विषयो का सुख और सुविधा, ये संसार में घरकाओ करते हैं और ह्रदय का सुख और शांति परमात्मा में स्थित करते हैं |

ॐ ॐ ॐ हरि ॐ …ॐ ….ॐ….ॐ ॐ ॐ मधुर शांति…….

जो विषय विलास या विकार में फंसा है उसको सेवा करने की रूचि और योग्यताई विकसित करने की कला नहीं रहती | जो विकारों में, काम विकार में आकर्षित है, वो गुरू के देवीकार्यो का महत्व ही नहीं समझ सकता, सेवा का महत्व ही नहीं समझता | गुरू की सेवा साधू जाने, गुरू सेवा क्या मुर्ख पहचाने | ॐओम्म्मम्म्म्म और उत्तम सेवक को गुरू के तरफ से चाहे कितना भी कठोर दंण्ड मिले, तभी भी वो समझता है कि दंण्ड मेरी गलती को है, मेरी शुद्धि के लिये है, वो धन्यवाद महसूस करेगा | उडिया बाबा से किसी ने पूछा कि कैसे पता चले कि गुरूजी ने हमको स्वीकार कर लिया है ? भई ! गुरूजी ने स्वीकार कर लिया अथवा गुरूजी की कृपा है, इसका अनुभव करना हो तो  तुम गलती करो, तो गुरूजी तुमको निसंकोच डाटें, तुम्हे डांटने में गुरू को संकोच हो रहा है तो गुरू समझते है कि क्या पता ये समर्पित है कि नहीं | अगर निसंकोच तुम्हे डांटे तो समझना कि गुरू ने स्वीकार किया है | जैसे अपनी वस्तु का निसंकोच उपयोग करते है, ऐसे ही शिष्य को निसंकोच भाव से गुरू सेवा कहे, ये कर दे वो कर दे, ये करना है और गलती हो तो निसंकोच डांटे, तो समझ लो कि वो सेवक बड़भागी है कि गुरू का हो गया, गुरू ने उसको स्वीकार कर लिया | गुरू को अगर सेवा देने में संकोच होता है, ये करेगा कि नहीं करेगा, मानेगा कि नहीं मानेगा, डांटेंगे तो भाग जायेगा कि रहेगा, तो वो शिष्य अभागा है | गुरू को शिष्य के साथ व्यवहार करने में संकोच होता है तो वो शिष्य अभी शिष्यत्व को उपलब्ध नहीं हुआ |

तो प्रेमास्पद को, परमात्मा को पाने के लिये, गलतिओं से बचने के लिये, सेवा अथवा तो कलियुग में भक्तियोग, गुरुभाक्तियोग, निष्कंटक योग है, निर्विघ्न योग है, हटयोग में रोग होने का भय होता है, लययोग अथवा और योगों में भी साधक को अकेले ही यात्रा करनी पड़ती है | गुरुभक्तियोग में तो साधक के मार्गदर्शक, सुरक्षक, पथ-प्रदर्शक, प्रेरक और पुष्टिदायक गुरूकृपा साथ में रहती है | कलयुग का जीव इन्द्रियों का गुलाम, मन की चंचलता, मति की मन्दता, ये वेदांत का पुस्तक पढ़ेगा तो ज्ञानबद्ध हो जायेगा | मनमाना कोई योग की प्रक्रिया करेगा तो उलझ जायेगा |  किताब खूब पढ़ लेगा, सूचना इक्कठी कर लेगा, लेकिन प्रीति की प्राप्ति, आत्मरस की प्राप्ति तो उन्ही बडभागिओं को होता है, आत्मरस की प्राप्ति वे बड़भागी कर पाते है, जिन्होंने आत्मवेताओं को इष्ट समझकर आत्म-परमात्मा की उपासना | सेवा द्वारा, सत्संग सुमिरण द्वारा अपने उपास्य को तृप्त कर दिया है, उनका उपास्य उनके ह्रदय में पूर्णरूप से प्रकट होने लगता है |

ॐ …………. उपास्य है सचिदानंद प्रभु, उपास्य है सत चित्त आनंद, सत् माने जो सदा रहेगा, जो चेतनस्वरुप है और आनंदस्वरुप है, वह परमात्मा ही उपास्य है, चाहे फिर शिव के रूप में, कृष्ण के रूप में, गुरू के रूप में, अम्बा के रूप में किसी रूप में, साकार रूप में हम मान के चले, लेकिन फल तो वही होगा सचिदानंद | निष्काम सेवा, उपासना का साकार स्वरुप है और सत्-चित्त-आनंद की अनुभूति उपासना का उत्तरफल है, वह पूर्वपक्ष है, सेवा उत्तरपक्ष है | सचिदानन्दस्वरुप में स्थिति “असम्भू अयं पुरुष्य” वह असंघ आत्मा-परमात्मा पुरुष की प्राप्ति, वह प्रीति जो नित्य नवीन रस में प्रकटाती है, वह रस जिस रस से जीवमात्र रसवान होते है, जिस रस को जीवमात्र तो चाहता है ईश्वर भी जिस रस का रसिया है, वह आत्मरस, वह प्रीति साधक के ह्रदय में सहज में आ विराजती है |

विवेक करके वैराग्य लाना, संसार की तुच्छता समझना और असार संसार है, ये जीवन का कृष्णपक्ष है | संसार में असुविधाओं के बीच सुख सुविधा भी है, आनंद मंगल भी है, उत्सव-पर्व भी है | Socrates (सुकरात ) का, धनवानों का कृष्णपक्ष देखते है, कितना धन वैभव अंत में रोग शोक और मृत्यु कोई सार नहीं | कवि कालिदास संसार का, मुनष्य का, जीवन का कृष्णपक्ष अंकित करते है | जिनको गुरुदेव की अनुभूति मिल गयी व्यासो की, अत्मवेता श्रीव्यास जैसे गुरू की कृपा मिल गयी, वो जीवन को कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष दोनों जीवन के पह्लुओं को प्रकृतिगत, समझकर, प्रेमास्पद में प्रीति करने की कला सिखा देता है | वो नश्वर में शाश्वत के अनुभव, अनित्य में नित्य का अनुभव, मिटने में अमिट रस की अनुभूति कराने में सफल हो जाता है | वो रसियामय रसोवय “वैश्वा नरा:” भगवान रसस्वरुप है भागवत में आता है | जो हमारी वृतिओं की मान्यताओं की विक्राहट को सेवा के द्वारा, सत्कर्मो के द्वारा सुचारू रूप से व्यवस्थित कर दे, ऐसे आत्मवेता भगवान व्यास गुरू मिल जाए, आत्मसाक्षात्कारी गुरू मिल जाए तो नित्य जीवन, नित्य रस और नित्य स्वरुप की प्राप्ति होती है, फिर जीवन ना दुःख और दर्द है ना सुख सुविधा है,  जीवन शाश्वत है |  जहाँ प्रलय की आंधी भी कुछ महत्व नहीं रखती, जहाँ प्रलय अग्नि भी शांत हो जाती है वह ऐसा रस ब्रह्मरस है, जो प्रलय के शोक को भी मिथ्या समझने में समर्थ हो जाता है, प्रलय को भी हँसते हँसते सह लेता है |  पूर्ण जीवन, पूर्ण गुरू किरपा मिली, पूर्ण गुरू का ज्ञान आसुमल से हो गये, साईं आसाराम, लोग गाये तभी ठीक ना गाये तो भी कोई हरकत नही, खूब मस्ती, खूब आनंद, वाह ! प्रभु, वाह ! मौला, गुरू पिया मेरी रंग दे चुनरिया, उसे फिर कहना भी नहीं पड़ता, क्योंकि सेवक चाहता नहीं, वो तो किये जाता है, अधिकार तो उसका, अपने आप दौड़ के उसके ह्रदयरुपी घर में बैठ जाता है |

सेवक सेवा में ही मस्त रहता है, फल की आकांक्षा नहीं रखता फल तो अपनेआप लगता है उसके ह्रदय में, आनंद का फल, सुख का फल, मस्ती का फल, धन्यवाद का फल अपनेआप फलित होता है | सेवक तो चाहता है सेवा मिलती रहे, तत्परता से करता रहूं, किसकी सेवा कर रहा हूँ बस वो देख रहा है, कौनसी सेवा कर रहा हूँ उसके लिए महत्व नहीं है, चाहे वो बुहारी कर ले शबरी की नाइ, चाहे सांदीपक की नाइ, सब प्रकार की सेवा कर ली, चाहे गोरखनाथ की नाइ |  आज्ञा सम नहीं साहेब सेवा | सेवा कर ले, लेकिन सेवक तो बस सेवा में अपने को धन्य बनाता जाता है और धन्य बनाने की इच्छा नहीं रखता अपने आप धन्य बनता ही जाता है | मधुर मधुर, पावन-पावन सेवा का सद्गुण जिसके ह्रदय में है उसको अलग से तप, धारणा, ध्यान, समाधी नहीं करनी पड़ती, सेवा के बल से ही निर्वासनिक होता जाएगा, सेवा के बल से ही निरहंकार होता जाएगा, सेवा के बल से ही निर्द्वन्द होता जाएगा, लेकिन सेवा सेवा के लिए हो अहंकार या फांका सजाने के लिए नहीं, अहंकार और फांका मिटाने के लिए सेवा हो, तत्परता से हो, विनम्र भाव से हो, सेवा प्रीति को जगा देगी | आत्मपद को जगा देगी, सेवा दोषों को हर लेगी, गुणों को भर देगी, जितनी ईमानदारी से, तत्परता से, निष्काम भाव से सेवा होगी | उतना ही वो सेवक सेव्य के आनंद को, सेव्य के ज्ञान को, सेव्य के अधिकार को उपलब्ध होता जाएगा |

थोडा रास्ता भी ठीक नहीं है अभी भी | आपका ऑटोरिक्शा नहीं जा सकता, स्कूटर नहीं जा सकता | अभी भी, ऐसी जगह में आश्रम है |  वहाँ से बाबाजी चलते और गाँव में जाते, सिर पे पोटला लेके, कुछ किताबें, ब्रह्मचर्य की, कुछ नारी धर्म की,  कुछ और, कुछ और की, किताबें लेकर | बापूजी ! हमारे गुरुदेव (पूज्यश्री का जो चित्र है) सिर पे वे रखते और पहाड़ी इलाके में एक गाँव इधर है, तो एक पहाड़ के इलाके में, छोटे-छोटे गाँव है और दूरी बहुत होती है | पहाड़ दिखता सामने है लेकिन दो चार मील हो जाता है | वो पहाड़ी इलाको के गाँव में गुरू महाराज जाते थे और गाँव के लोगो को बोलते : भई ! “ये फर्स्ट क्लास किताब है|  बहुत अच्छा है, आपको फायदा होगा, आपको दे जाता हूँ, पढ़ों ! आठ दिन के बाद फिर आऊंगा, ये किताब ले जाऊंगा, दूसरी दे जाऊंगा |” अरे ! तो पैसा वैसा ? पैसा वैसा नहीं ! आप पढो ! आपको लाभ होगा, बस यही पैसा है | ऐसे महापुरुषों ने सिर पे पोटला उठाकर गाँव-गाँव में जाकर, धर्म का प्रचार करने के लिए पुस्तकें बांटी | फिर ले आये, फिर दे आये | शंकराचार्य केरल से चले | दक्षिण भारत से और उत्तर भारत तक प्रचार किये, पैदल का जमाना था |  विवेकानंद पीक में छुप कर रहना पड़ा अमेरिका में | भूखे ! सड़क के चौराहे में जो पीक होते है ना, रात को रहने खाने का हुआ नहीं, पीक में छुप के रहे, दिन को फिर प्रचार करते, सत्संग कोई सुने ऐसे जगह खोजते | रामतीर्थ बिन बुलाये स्टीमर में बैठे और अमेरिका पहुंचे गए, कोई वहाँ खिलानेवाला पिलानेवाला कोई था नही | सब उतर रहे थे सरासर |  एक यात्री देखा कि सब सामान सँभालें रहे हैं, ये भारत का साधू बैठा है चुप ! अमेरिका आ गया, आप क्या कर रहे हैं ?  आपको कोई बुलानेवाला मित्र, आप कहाँ जाना चाहते हैं ? बोले : “जहाँ जाना चाहता हूँ वहाँ आ गया हूँ”| तो बोले: “कोई आपको रिसीव करने आनेवाला आएगा ? आपका कोई मित्र है ? आपका सामान कहाँ है ?”  “सामान तो जो ये चादर है जो मैं ओढा हूँ”| आपका कोई मित्र आनेवाला है ?  बोले : हाँ ! कहाँ है ? “बोले तुम्ही हो” ! इतना स्नेह से बोले कि उस यात्री ने रामतीर्थ को अपने घर ले जाके रखा और फिर रामतीर्थ ने प्रचार चालू किया | तो कितनी ढाढस है महापुरुषों में, हम तो उन्ही के संतान हैं,  उन्ही के औलाद हैं, भारत में जन्म लिया है | “आप जपे औरा नू जपावे” | आठ प्रकार का दान होता है, अन्नदान, वस्त्रदान, भूमिदान, कन्यादान, गौदान, गौरस दान, स्वर्णदान और ज्ञानदान | ज्ञानदान में भक्तियोग ये सब ज्ञान, ईश्वर प्राप्ति का ज्ञानदान |

तो सब दान, अब अन्नदान किया तो भोजन किया, चार घंटे के बाद ठन ठनपाल, कन्यादान दिया किसीको फिर हो सकता है कि वो शराबी होकर दुःखी हो जाये |  गौदान दिया |  गाये की दूध की उसको सुविधा रहेगी बाकि तो उसकी अज्ञान तो मौजूद रहेगा | लेकिन जिसको भक्तिरस का दान मिल गया,  ज्ञान, भक्तिरस उसको तो महाराज यहाँ भी सुख शांति से जीने का ढंग और मरने के बाद मुक्ति मिल जाती है | महादान है और इसमें जो भी लुटा दे, वो कम है  और जो भी लुटा दे, उसका अनंत गुना होके आ जाता है | गांधीधाम समिति बैठा है, इसने संकल्प किया था कि बापू को यहा गांधीधाम लाना है, वाकिय लाना है  ये कोशिश किया, किया, ये बोले चलो, धीरज रखो चलो, फिर इसने की | जब तक बापू गांधीधाम नहीं पधारते तब तक हम संसारी नहीं रहेंगे |  मतलब इसकी पत्नी का नाम है माया,  इसका नाम घनश्याम है, तो माया के कमरे में नहीं जायेंगे, ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया, दाढ़ी बढ़ा लिया, फोटो स्टूडियो है, स्टूडियोवाला आदमी तो टिपटॉप होना चाहिये ! ये दाढ़ीवाला क्या है ! बस हमारे बात आये, लगा रहा, लगा रहा, तो अब अकेला आदमी | जो खर्च हुआ होगा २०-२५ हज़ार, ४०-३० जो भी हुआ होगा, वो खर्च हुआ इसका | फिर तो संस्था वालो ने सत्संग सुना, जब सत्संग रख रहे थे | बोले : इधर थोड़ी,  इतने थोड़ी आदमी आयेंगे यार हमारी संस्था का नाम ख़राब होगा, वो गली में रख रहे थे तो गली में २०० आदमी आवे और गली भर जावे | फिर मैदान में रखा, पहली बार था | वहाँ वो संस्था वाले पहले ही दिन देखकर वायरे हो गये और कुछ खर्चा उन्होंने उठा लिया बाकि का काफी इन्होने उठाया | इन्होने जो ५-२५ हज़ार जो खर्चा, उसके तीन गुने पैसे आ गये इनके पास |  बिलकुल मैं सही बोल रहा हूँ इनके सामने, अभी बस दो महीने हुए, गांधीधाम (भुज) में जो सत्संग हुआ, दो ही महीने हुए होंगे | एक काम ये करने वाले थे जो ५०००० में होने वाला था, २०००० में हो गया, ३०००० फायदा हो गया और दुकान में अब पुण्य के प्रभाव से कहो या जो भी भगवान की कृपा से कहो, दुकान में जो लाइन लगती है | रोज आर्डर, रोज आर्डर, किन्तु फिर भी सत्संग कराने का पुण्य इतना नहीं है कि तुमने जो भी खर्चा किया तीन गुना आ जाये | ये इसका फल नहीं है | यह तो क्या पता कैसे है, इसका फल तो वही जानता है बस, ये तो महादान है और जितना आदमी निःस्वार्थ होता है, उतना उसका ह्रदय पावन होता है | गीता में आया है “येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ” जिसके पापो का अंत हो गया है, पुण्य कर्म जो करता है पापो का अंत तो होगा ना और पुण्य कर्म नहीं करेगा तो पापो का अंत नहीं होगा और पापो का अंत नहीं होगा तो जन्म-मरण का और दुःखो का भी अंत नहीं होगा |  तो पापी मनुष्य की पहचान है कि स्वार्थ में ज़िन्दगी खर्च डाले, परमार्थ के लिए जिसके पास समय, शक्ति कुछ वस्तु नहीं है वो पापी मनुष्य की पहचान है शास्त्र भाषण है और पुण्य आत्मा मनुष्य की वह पहचान है कि जो परिस्थितियों को अपनी वासनापूर्ति के अनुकूल नहीं बनाना चाहता, लेकिन वो परिस्थितियाँ जैसी आएगी भोग लेगा लेकिन परहित में अपना जीवन लगाता है | वो पुण्यात्मा आदमी के लक्षण है |

तो जहाँ कुमति वहाँ दुःख निधाना और जहाँ सुमति वहाँ सम्पति नाना | जहाँ सुमति होती है वहाँ अनेक प्रकार के सुख सुविधाएँ, जैसे दरिया के पास नदियाँ खीँच के जाती हैं, वैसे जहाँ सुमति और पुण्याई होती है वहाँ सुख, धन, सम्पति, आनंद, प्रेम, आरोग्यता ये अपनेआप आ जाता है और जहाँ कुमति होती है वहाँ अशान्ति, झगडे ये वो उसी में फिर बर्बादी होती है |  वैसे ही जब कुमति का धन आता है या कुमति का जीवन के समय में जो बच्चे आते है ना, वो बच्चे बड़े शैतान होते है, माँ बाप के नाक में दम ले आते है |  सुमति के कार्य करते-करते जब वो बालकों का जीवन होता है तो कुमति अवस्था में जो बालकों जो जन्म मिल गया फिर माँ-बाप सुमति के तरफ चलते है तो देर सवेर उन बच्चो का भी कल्याण हो जाता है | बच्चे तो बड़ी सम्पति है कि नहीं, बच्चे भी तो आपके वारिसदार है वो भी तो सम्पति है | सत्कर्म करने से उनकी सुमति होती है आपका धन पवित्र होता है, आपका तन-मन पवित्र होता है तो आपकी पीढ़िया तर जाती है और स्वार्थ से अगर जीते हो तो फिर अन्दर-अन्दर बाप-बेटे का भी मेल नहीं बैठेगा | पति-पत्नी का भी मेल नहीं बैठता, शरीर से भी होता है, कुछ कुदरत से कूप हो जाते है, पिस-पिस के आदमी मर जाता है, पुण्य कमजोर होता है ना | ये फल केवल सत्संग कराने का या सत्संग में करने का केवल इतना ही फल नही कि करोड़, दो करोड़ कमा लिया | ये तो बड़ी छोटी चीज है, भक्ति मिल जाती है, करोड़ रूपए से भी भक्ति ऊँची है, पुण्य मिल जाता है | जितने-जितने सत्संग का प्रचार प्रसार ज्ञानदान में चार कदम भी आप चले तो भगवान भी बदला देने में कमी नहीं रखी | गीता में कहा है : “भगवान श्रीकृष्ण ने – जो मेरे गीता के ज्ञान का प्रसार प्रचार करता है, हे अर्जुन !  मुझे वो प्राणों से भी ज्यादा प्यारा है, तभी तो वैकुण्ठ में मेरा गैरहाजिरी हो सकती है, कभी योगियों के ह्रदय को भी लांघ जाता हूँ, लेकिन जो मेरे सनातन सत्य का प्रचार प्रसार करते हैं, उनके ह्रदय में तो मैं नित्य नवीनरूप से छलकता हूँ |” गीता में लिखा हुआ है पढ़ के देखना | आठ प्रकार के दान है | सतजुग था तब सत्य पे आदमी रहता था और जो चाहता कर लेता था |  त्रेता में तप से मनोकामना पूरी कर लेता था, पुण्य कमा सकता था और द्वापर में यज्ञ से | धर्म के चार पैर है सत्य, यज्ञ, तप और दान | सतयुग गया तो सत्य गया, त्रेता गया तो तप गया, द्वापर गया तो यज्ञ गया,  “दानम केवलम कलिजुगम ” कलियुग में केवल दान ही फलता है, दूसरा कोई कर नहीं सकता, अभी यज्ञ नहीं फलता | पहले यज्ञ में आहुति देते थे और यज्ञ पुरुष खड़ा हो जाता था, खीर का कटोरा लिए, अभी तो पानी आचमन लेके भी कोई नहीं आता, तब वो ज़माना था जब यज्ञ करते थे और यज्ञ पुरुष प्रकट हो जाता था, यज्ञ करते थे और बरसात हो जाती, यज्ञ करते और पुत्र हो जाता, अब नहीं होता है | सतयुग गया तो सत्य गया, त्रेता गया तो तप गया, द्वापर गया तो यज्ञ गया, दानम केवलम कलिजुगम,  तीन युग गये उनके तीन प्रभाव चले गये, कलियुग का प्रभाव सिर्फ दान में है, दान आठ प्रकार के होते है इसमें हरीनाम दान, सत्संग दान, ज्ञानदान |

ऐसे तो संस्थाओ की कमी नहीं है देश में, वो सब संस्था देखने भर को है, संस्था का नाम लेके भी लोग ऊब जाते हैं, क्योंकि खुदगर्जी है उसमे, खुदगर्जी और स्वार्थ जो है ना, फिर वो लाभ नहीं मिलता है | जो कुदरत का मिलना चाहिये, जो ह्रदय की शांति मिलनी चाहिये, लाखों रुपयों से भी जो नहीं मिलती है वो अन्दर की पुण्याई से शांति से मिलती है, लाखों करोड़ों रूपए बना लो फिर भी जो आनंद नहीं आता वो आनंद सत्कर्म करने से अपनेआप छलकता है |  बिलकुल सच्ची बात कह रहा हूँ, आपको अनुभव की बात है | लाखों रूपया कराड़ो रूपया खर्च ले, जो आनंद, जो शांति नहीं मिलती वो सत्कर्म करने से, सेवा का काम करने से अपनेआप मिल जाती है | अब वो भूरा काका है, वो भाडा खर्च करके आता है, जब आएगा दो-चार घंटे मुसाफिरी करके, कही से भी |  सूरत में शिविर थी तो अहमदाबाद से आया और पंचेड में शिविर थी तो अहमदाबाद से वहाँ पहुँचेगा | आएगा बस थोड़ी देर में, इतना बुढा आदमी आते ही लग जायेगा, रसोड़ा बनाने में और फिर विदाई लेगा तो दक्षिणा धरेगा, इतना बुढा आदमी बना-बनाके खिलाता है और इसको कभी कहा भी नहीं की तुम सेवा करो रसोड़ा में आके | इसको जो आनंद आता है वो उसको रोक नहीं सकता कि सेवा कोई उसकी छीन लेवे | पुण्य बढ़ गया | तो अभी दो महीने एकांत में रहने की तैयारी हो गयी |  नहीं तो बूढ़े होके मरते है संसार में, घर में अपमानित होके मर रहे है, ये देखो तगड़ा भी है काका, दर्शन दे दो, भूरा काका खड़ा हो जा जरा |  ५०० रूपए रसोइया को दे दे, तो रसोइया को ५०० रूपए से जो मिलेगा उससे इनको जो मिला है उसकी ५०० रूपए की तो कोई कीमत नहीं है, वो पाँच लाख खर्चे तो भी इतनी शांति आनंद नहीं मिल सकती जितना इनको ऐसे ही मिल जाता है |  सेवा में बड़ी ताकत है, हम कितनी सेवा करते है ऊधर ध्यान ना दे, इससे भी बढ़िया कैसे कर सकते है ? इसने सहयोग नहीं दिया, उसने सहयोग नहीं दिया, इसने ये करा, उसने वो करा | अरे तू चाहे तो तू अकेला ही कर सकता है, तेरे को सब देख रहे है कि तेरे पास कितना है ? क्या है ? तू चाहे तो अपना अकेला कर सकता है, बातें बनाने से थोड़ी काम चलता है,  वो लोग एक नहीं हो रहे हैं, वो लोग सहयोग नहीं कर रहे हैं, एक छोटे आदमी ने खड़ा कर दिया जाके,  सबका नाक काट के हाथ में दे दिया ये, लो बेशर्म बना दिया सबको, दो-दो साल से बना दिया संस्था, कमिटी और बातों-बातों में रह गये, एक आदमी ने जाके खड़ा कर दिया | ले ! हिम्मत करे सेवा करनी है ईमानदारी से तो एक आदमी भी लग जाए तो महाराज !

शास्त्रो में आता है, टीटोडी पक्षी होते है टीटोडी ना, जो हुतुतू- हुतुतू हुतुतू- हुतुतू करते है उसको टीटोडी बोलते है, तो टीटोडी और टीटोडा जा रहे थे चारा चुगने तो टीटोडी ने कहा : समुन्दर को तो बडा घमंड है उछलेगा, अपने बच्चे घसीट के ले जायेगा अंडे को |  अंडे कैसे ले जायेगा में जिन्दा हूँ और अपने बेटों को ले जाये | वो समुन्दर का अधिष्ठाता देव सुन रहा था |  बोले अरे ! पक्षी भी मेरे ऊपर दादागिरी करता है, पत्नी ने कहा : “ले जायेगा तो क्या करोगे?”, बोले : ले जायेगा तो समुन्दर को सुखाके | अपने बेटों को ले आऊँगा वापस,  टीटोडा बोलता है | वो महाराज ! दरिया के अधिष्ठाता देव ने अंडे हड़प कर लिए, वो आई पत्नी रोई बोली देखो में तो बोलती थी, दरिया उछलेगा इसको बड़ा घमंड है और ले जायेगा अपने  बच्चों को | बोले तू रोती क्या है, इसको सुखाऊंगा और उठाया तिनका मुंह में और समुन्दर में डूबाके दूर जाके पानी खाली करके आया, तिनका डूबाके पानी दूर छाटेग तो समुन्दर खाली कैसे होगा, पत्नी ने कहा: “ये तुम क्या कर रहे हो?”  बोले : “तू मेरी अर्धांगिनी है, मैंने जो कार्य लिया है इसमें सहयोग कर,  मेरा उत्साह मत भंगकर”| उसने भी महाराज उठाया तिनका दो और पक्षियों ने कहा : “ये क्या मुर्खता है?” “मुर्खता है कि तुमसे पूछ के हमने चालू नहीं किया, तुम्हारी जरुरत हो सहयोग करो नहीं तो बस” और भी लग गये कौतुक बस चलो भाई, ऐसे करते, जो भी देखते पांच-पच्चीस सौ आदमी काम कर रहे है, तो फिर तो दूसरे देख के भी जुड़ जाते है, देखते-देखते महाराज पक्षिओं के झुंड हो गये, इतने में देव ऋषि नारद पसार हुए की पक्षी वहाँ दरिया में जाके तिनका डूबाते फिर कहीं खाली करते क्या बात है बोले : “ऐसे ही टीटोडी के बच्चे दरिया ने ले लिए” |  नारद ने कहा : शाबाश है ! अपने कार्य में लगे तो है |  कैपेसिटी उसकी अपनेआप भगवान बढाता है |  इनकी निष्ठा का फल इनको मिलना चाहिए, नारद के ह्रदय में भी उस भगवान का नाम है | नारद गये वैकुण्ठ में | गरुड़जी ! पक्षिराज हो तुम पक्षिओं के राजा हो और भगवान नारायण के खास आदमी और तुम्हारा तो दो पंख कहीं से पसार होती है तो पृथ्वी थरथराती है और आज तुम्हारी जाति के पक्षी मुंह में तिनका लिए पानी उड़ेल-उड़ेल के समुन्दर से दो बेटे उनके वापस लाने को तत्पर है और तुमको पता नहीं |  बोले : “ये पक्षी जाति का अपमान माना, पक्षी जाति के सम्राट का अपमान है” | नारदजी ने बात समझा दी |  गरुड़ कोपायमान हो गये |  गरुड़ कोपयमान हो गये तो समुद्र के अधिष्ठाता देव को पता ही नहीं कि इतनी मुसीबत बढ़ेगी मेरी |  उसको ये पता ही नहीं कि आदिनारायण का मेनेजर आके हमारे पे टूट पड़ेगा और गरुड़जी कुपित होके आये कि “क्या समझता है कि हमारे नन्हे-नन्हे पक्षिओं की तू मजाक उडाता है, आज तेरे को ठीक करते है” | वो पाहिमाम पाहिमाम | वो अंडे बाहर निकाल के लेके आ गया, जब टीटोडा अपना काम कर सकता है तुम तो पढ़े-लिखे मनुष्य हो | भईया !  दो अंडों को समुन्दर से ला सकता है टीटोडा पक्षी वापस, तो तुम अपने किये हुए शुभ-संकल्प को साकार बनाने में क्यों नही सफल हो सकते | खुदगर्जी जो है ना हमारी सुषुप्ति शक्तियां रोक देती है और खुदगर्जी से जीवन अन्दर संकीर्ण रह जाता है | धुंधला रह जाता है | शंकर है या शिवलाल है या मैं हूँ या आप हो, आप हमारे किसीका विषय नही है जो अपन लेके बैठे न वो किसीका खानदानी धन्धा नही | शिवलाल का भी कोई खानदानी धन्धा नही कि प्रसाद देना है या सफाई करना है | ये शंकर का  हमारा तुम्हारा किसीका ये काम नही फिर भी ये समिति जो सेवा करती है ना दुसरो के मुह में ऊँगली आ जाती है, देखते रह जाते है, समिति का जो कार्य होता है कि कैसे चल रहा है क्या हो रहा है, क्यों ? अपना विषय नही और फिर भी अपनी कल्पना उतनी नहीं भगवान सफलता देता है | क्यों देता है कि उसका कार्य है वो राजी है, सहमत है |

जब-जब शिविर होती है उत्तरायण की या तो ठंडी पहले पड़ जाती है या तो ठंडी बाद में पड़ती है | ये चार दिन को संभाल लेता है वो प्रकृतिवाला आप नोट करके देखो १५ साल हो गये, बर्फ १२ जनवरी को पड़ता या १३ जनवरी को भी पड़ सकता था, पहले पड़ गया, बाद में ज्यों शिविर चालू हुई, त्यों ठंडी कम होती गयी या तो कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि शिविर पूरी होने के बाद सर्दी बढ़ गयी | ऐसे ही कई चौमासे में भी सत्संग रखते है न, तो मनसुर में सत्संग करते ना तो | ये इतना पानी है, सत्संग परसों होनेवाला है और यहाँ मैदान में इतना पानी है, सत्संग कैन्सल करो, शंकर और वागिला गये | बोले : “सत्संग जाहिर किया है जिन लोगो ने फिर कैन्सल करे”, हिम्मत करके कर दिया, कर दिया तो महाराज सत्संग चालू हो, उसके एक दिन तो पहले पानी बरस रहा है और सत्संग चालू गारा में मन्ड़प कैसे बांधेंगे मट्टी-वट्ठी ला के ठीक-ठाक करके मंडप बाँधा, सत्संग चालू हो उसके पहले बरसात बंद हो गयी, सत्संग पूरा हो गया उसके बाद बरसात चालू हो गया | तो ये मन्सूर की बात नही है फिर दूसरी जगह भी ऐसे ही हुआ था | मनासा में भी उस देव की कैसी लीला ! परमात्मा की, सत्संग की तारीख ले गये, उनको तो जैसे तारीख मिलती नहीं थी | भई ! तो कोई भी मिल जाये जो खाली तारीख है कि वो ले लेते, कि बरसात है, फिर देखा जायेगा | महाराज !  मनासा में बरसात धम-धम पड़ रहा है कि अब कैसे होगा ? क्या होगा? | कि भगवान की दया है सब सत्संग पूरा हुआ स्टेज छोड़ा और आदमी अपनी-अपनी जगह में पहुंचे कि आधा घंटा के बाद ऐसा चला, ऐसा चला, दे धामा-धम ! उसने सवारते-सवारते थोडा उसका कुछ भीगा, भीगा ना भीगा बाकि का, आधा घंटा के बाद चालू हो गया | धीरे-धीरे बढ़ा तब तक लोगों को नोटिस देता गया | ऐसे ही लगुना में भी हुआ था शंकर को वागिला को पता होगा, सुबह सत्संग होना है | रात में भर बरसात, हम आये बरसात में, मंडप गिर गया, ये हो गया, वो हो गया, कोई बात नहीं, भगवान का सत्संग कर रहे है | सुबह देखा तो धीरे-धीरे साफ़ होता गया, होता गया | चौमासे में सत्संग करने को वो सहयोग दे रहे हैं, अभी तो अपने को पता नहीं है कि फलाने दिन बरसेगा, फलाने दिन नहीं | इसीलिए चतुर्मास में तो जाहिर में सत्संग करने को भी नही होते | साधू एक जगह में ठहरते हैं और एक जगह में ठहरने का हमको तो ये युग लगता नहीं, ये तो भागने का युग है | तो चौमासे में भी कार्यक्रम हुआ, फिर सागवाडा में भी ऐसा हुआ, ये सारा का सारा चौमासे का कार्यक्रम है, लगुना, मनासा, सागवाडा, पंचेड की शिविर, सात इंच पानी गिरा पंचेड में और शिविर होनेवाली है | परसों, पहले पानी गिर गया फिर शिविर शुरू हो गई, इतना सहयोग परमात्मा कर रहा है ना, नहीं तो आप लागों का हम लोगों का कोई विषय नहीं, सत्संग करना | आश्रम चलाना ये हमारे बाप-दादा के खून में नहीं है |  हमारा कोई खानदानी पेशा नहीं है भैया !  क्या आप लोगों का है? क्या समिति बनाना कोई खानदानी पेशा, बोलो है क्या?  फिर भी खानदानी पेशेवालों का भी काम इतना बढ़िया नहीं चलता जितना अपना चल रहा है, तो मानना ही पड़ेगा की ईश्वर के कार्य में उसका ही सहयोग है |  अपन निम्मित है, निम्मित बनके कमा रहे हैं तो क्या घाटा है | अपना हाथ पैर और ह्रदय अगर ईश्वर के काम आ जाता है तो इससे बढ़कर और इसकी महता क्या हो सकती है ?  अनंग नाम का भिक्षु बुद्ध को बोलता है कि “मैं धर्म का प्रचार करने निकलूं” ?  बोले : “अभी तो अपना धर्म संग के लिए लोग बड़े खिलाफ बोलते, गलियां बोलते, अपमान करते, तुम प्रचार करने निकलोगे ? लोग पत्थरबाजी करेंगे तो तू क्या करेगा ? बोले : “भगवान को धन्यवाद दूंगा की खाली पत्थरबाजी किया अंग तो नहीं भंग किया, कोई इंद्री तो नहीं निकाल दिया आँखे निकल तो नहीं दिया पत्थर लगा ठीक है”, बोले : “मानो कोई तुम्हारा अंग-भंग करदे तो, धर्म का प्रचार करने जाओ और अंग भंग करदे तो ? बोले : “मैं फिर भी उसको धन्यवाद् दूंगा कि एक ही अंग-भंग हुआ ना पूरा शरीर तो जीवित रहा” | बोले : “मानो कि शरीर का हाथ पैर तोड़ दे”, “ये हाथ पैर तोड़ेंगे फिर भी प्राण तो बचे रहेंगे” | बोले : “मानो कोई गला दबा दे तुम प्रचार करते हो और लोग इतना विरोध करें, कुप्रचार हो गया था, लोग इतना विरोध करें की तुम्हारे प्राण निकाल दें”, बोले : “फिर भी भगवान को धन्यवाद् दूंगा कि गुरू के ज्ञान को फैलाते-फैलाते प्राण ले लिए मेरा प्राण सार्थक हो गया” |  ऐसे लोग भी है, फिर उन्ही के कारण बुद्धिज़्म फैला | अब उस भिक्षु को तो पता भी नहीं होगा कि २५०० वर्ष के बाद आसाराम बापू आएंगे और मेरे को याद करेंगे उसको थोड़ी खबर है | सत्कर्म का बदला तो महाराज ! छूप के पाप करते हैं तो उसका बदला मिलता है तो पुण्य करेंगे तो उसका बदला क्यों नहीं मिलेगा?  सच्चा भगत को बदले के लिए करता ही नहीं है ईश्वर के लिए करता है |  बदले में हमे वाहवाही नहीं चाहिए, बदले में हमे इधर का भोग नहीं चाहिए, स्वर्ग नहीं चाहिए, बदले में कुछ नहीं चाहिए | जो बोलता है बदले में कुछ नहीं चाहिए तो वो स्वयं बोलता है बदले में “मैं हूँ” | जो कुछ नहीं चाहता है, बदले में वो स्वयं आता है, वो स्वयं प्रकट होता है | इसीलिए आपकी समितियां फलेगी फूलेगी | सम, साहस और स्नेह ये समिति के सूत्र हैं जो भी समिति होगी, आपस में सम, कार्य करने में साहस, जो आपका उत्साह तोड़ेंगा ये इधर आदमी नहीं होंगे, ये गदेरिंग नहीं होगी, इधर तुम सफल नहीं जाओगे |  भई ! पहले तुम करोड़पति हो ठीक है आपकी बात, अपना साहस से काम करो | साहस, स्नेह और सम तीन सखा ये समितिओं के लिए सूत्र हैं फिर कोई काम तुम्हारे लिए असम्भव नहीं होगा, एक आश्रम के आमेठ में चार आश्रम और बना सकते हो |  जयराम जी बोला करो  | ये जो बना है अभी एक व्यक्ति ने जो कुटीर बनायीं है इससे तो दस गुना सौ गुना तुम बना सकते हो, चाहे तुम्हारे समिति में अभी फूटी कौड़ी नहीं हो फिर भी तुम बना सकते हो |  ये तीन सूत्र है, पीछे हटकर क्या करना है | विवेकानंद बोलते थे कि जब दुनिया में आये हो तो यार चार दिन की जिन्दगी, ऐसा करके जाओ कि तुम्हारे पदचिन्हों पे ओर कोई आदमी यात्रा कर सके |  स्वार्थ से तो कुत्ता, घोडा, बिल्ला और जंतु जी के मर जाते है |  मनुष्य जीवन मिला है तो दुनिया में कुछ तो करके जाओ | मरना भला उसका जो जीता है खुद के लिए, जीना भला उसका जो जीता है इंसानि के लिए |  क्या अपना क्या दूसरों का जब समिति चालू,  शिविर चालू होगी ना जाके हाजिरी पूरा के आयेंगे तो, फिर उनको हाजिरी पुराने जितना ही माल मिलता है, कार्य तो बाहर करते हैं आनंद अन्दर में आता है | रामतीर्थ बोलते थे इन मूर्खो को पता ही नहीं की जो स्वार्थ से काम करता है वो, जो निस्वार्थ से करते हैं उनको तो इनसे अनन्त गुना मिलता है, जो बहुतों के काम आता है जो ईश्वर के काम आता है वो कभी भूखा रह सकता है, जो परमात्मा के काम आता है वो कोई दरिद्र रह सकता है, जो कोई परमात्मा के काम आता है कोई वो दीन हीन रह सकता है, देर सेवर उसकी तो उन्नति होती जाएगी | पट्टावाले काम आनेवाला झाड़ू भी ठीक जगह पे होता है तो प्राइम मिनिस्टर काम आनेवाली टाइ की भी महिमा अपरमपार है रखने के लिए तिजोरी भी १०००० की होगी, वैसे ही ईश्वर के काम आने वाला जो अंतकरण उसकी तो कीमत बहुत होती है

गुरू की सेवा साधू जाने, गुरू सेवा कहाँ मुरख जाने- (भजन)

परमात्मप्रेम के हैं 5 साधक व 5 बाधक


परमात्मप्रेम बढ़ाने में सहायक 5 बातें

1.भगवच्चरित्र का श्रवण करो। महापुरुषों के जीवन-चरित्र, प्रसंग सुनो या पढ़ो। इससे भक्ति बढ़ेगी एवं ज्ञान वैराग्य में मदद मिलेगी।

2.भगवान की स्तुति-भजन गाओ – सुनो।

3.जब अकेले बैठो तब भजन गुनगुनाओ या सुमिरन, जप करो अन्यथा मन खाली रहेगा तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) आयेंगे। कहा भी गया है कि ‘खाली दिमाग शैतान का घर।’

4.जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वरप्राप्त महापुरुषों की चर्चा करो। दीया तले अँधेरा होता है लेकिन दो दीयों को आमने-सामने रखो तो अँधेरा भाग जाता है। फिर प्रकाश-ही-प्रकाश रहता है। अकेले में भले कुछ अच्छे विचार आयें किंतु वे ज्यादा अभिव्यक्त नहीं होते हैं। जब ईश्वर की चर्चा होती है तब नये-नये विचार आते हैं। एक-दूसरे का अज्ञान हटता है, प्रमाद हटता है, अश्रद्धा मिटती है।

भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में हमारी श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करनी-सुननी चाहिए। सारा दिन ध्यान नहीं लगेगा, सारा दिन समाधि नहीं होगी। अतः ईश्वर की चर्चा करो, ईश्वर-संबंधी बातों का श्रवण करो। इससे समझ बढ़ती जायेगी, ज्ञान-प्रकाश बढ़ता जायेगा, आनंद व शांति बढ़ती जायेगी।

5.सदैव प्रभु की स्मृति करते-करते चित्त में आनंदित होने की आदत डाल दो। ये 5 बातें परमात्मप्रेम बढ़ाने में अत्यंत सहायक हैं।

परमात्मप्रेम में बाधक 5 बातें

1.बहिर्मुख लोगों की बातों में आने से और उनकी लिखी हुई पुस्तकें पढ़ने से परमात्मप्रेम बिखर जाता है।

2.अधिक ग्रंथों को पढ़ने से भी परमात्मप्रेम बिखऱ जाता है। सदगुरु-अनुमोदित शास्त्र, साहित्य हितकारी है।

3.बहिर्मुख लोगों के संग से, उनके साथ खाने-पीने अथवा हाथ मिलाने से हलके स्पंदन आते हैं और उनके श्वासोच्छ्वास में आने से भी परमात्मप्रेम में कमी आती है।

4.किसी भी व्यक्ति में आसक्ति करोगे तो आपका परमात्मप्रेम खड़्डे में फँस जायेगा, गिर जायेगा। जिसने परमात्मा को नहीं पाया है उससे अधिक प्रेम करोगे तो वह आपको अपने स्वभाव में गिरायेगा। परमात्मप्राप्त महापुरुषों का ही संग करना चाहिए।

श्रीमद्भागवत में माता देवहूति को भगवान कपिल कहते हैं- “विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद् बंधन मानते हैं किंतु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है।”

प्रेम करो तो ब्रह्मवेत्ताओं से, उनकी वाणी से, उनके ग्रंथों से। संग करो तो ब्रह्मवेत्ताओं का ही । इससे प्रेमरस बढ़ता है, भक्ति का माधुर्य निखरता है, ज्ञान का प्रकाश होने लगता है।

5.मनमर्जी से उपदेशक या वक्ता बनने से भी प्रेमरस सूख जाता है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं। प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाहिं।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 19 अंक 301

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सपने सोने नहीं देते और व्यर्थ विचार आत्मा में जगने नहीं देते


तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि

तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः।

यस्यानुषङिगण इमे भुवनाधिपत्य-

भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।।

‘हे मन ! अंतरहित, जरा-मरण आदि रहित, सर्वोत्कृष्ट, सर्वव्याप होने से सर्वत्र भासमान उस ब्रह्म का ही चिंतन किया कर। इन व्यर्थ के संदेहजनक विचारों से क्या लाभ ? ब्रह्मविचारशून्य हृदयवालों को ही ये राज्य और स्वर्ग आदि भोग इष्ट लगते है। ब्रह्म में नित्य प्रीति रखने वाले को ये भोग तुच्छ ही लगते हैं।’ (वैराग्य शतकः69)

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता है कि “हम लोगों का जीवन ऐसा है कि सपने सोने नहीं देते और व्यर्थ विचार आत्मा में जगने नहीं देते। लोग व्यर्थ के विचारों में उलझ कर दिन खपा देते हैं और सपनों के किले बाँध के रात बिगाड़ लेते हैं।

ऐ मन ! आशा तृष्णा को तू छोड़। आशा करनी है तो एक अपने अन्तर्यामी चैतन्यस्वरूप की कर, दूसरी आशाएँ करके अपने को बाँध मत। तेरी आज की आशाएँ कल का भविष्य हो जायेंगी। तेरी आज की वासनाएँ कल का प्रारब्ध बन जायेंगी और फिर तू वहाँ फँसेगा। आज तक जो तूने देखा, भोगा, खाया उससे तेरा कोई भला नहीं हुआ और आज के बाद भी इनकी आशा करके भविष्य को बिगाड़ मत। अगर आशा नहीं छूटती है तो यह आशा कर कि ‘मुझे आत्मपद की प्राप्ति कब होगी ? मैं जीते जी अपनी अमरता का साक्षात्कार कब करूँगा ?’ इस प्रकार का चिंतन करके हे मानव ! तू आशारहित हो और अपने अंतरात्मा में गोता मार।

आशा एक आत्माराम की, और आश से हो निराश।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2018, पृष्ठ संख्या 23 अंक 301

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